Thursday, 28 August 2014

हमारे रचनाकार : जगदीश पंकज

पूरानाम : जगदीश प्रसाद जैन्ड
जन्म : 10 दिसम्बर 1952
स्थान : पिलखुवा, जिला-गाज़ियाबाद (उ.प्र .)  
शिक्षा : बी .एस सी .
विभिन्नपत्र पत्रिकाओं में गीत एवं कवितायें प्रकाशित, एक नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन
सम्प्रति : सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवा निवृत्त एवं स्वतंत्रलेखन
संपर्क : सोमसदन ,5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्रनगर,साहिबाबाद ,गाज़ियाबाद-201005 .
मो. : 08860446774
ईमेल : jpjend@yahoo.co.in

1. अपने को ही पाती लिखकर
अपने को ही पाती लिखकर
खुद ही बैठे बाँच रहे हैं
अपने-अपने रंगमंच पर
कठपुतली से नाच रहे हैं

सम्बोधन के शब्द स्वयं ही
हमने अपने लिए गढ़े हैं
आत्ममुग्धता में औरोंके
पत्र अभी तक नहीं पढ़े हैं

अपने ही सब प्रश्न-पत्र हैं
उत्तर भी खुद जांच रहे हैं

सदियों से संतापित भी तो
कुछ अपने ही आस-पास हैं
उनके भी अपने अनुभव हैं
वे भी कुछ तो आम-ख़ास हैं

उनको मिले हाशिए, उनके
हिस्से टूटे कांच रहे हैं

मात्र आंकड़ों में अंकित है
अपनी-अपनी रामकहानी
पिसते रहे उम्रभर अब तक
पाने को कुछ दाना-पानी

कुछ कर्मों के, कुछ जन्मों के
बंधन झूठी-सांच रहे हैं


2. क्या बोयाक्या काट रहे हैं

क्या बोया, क्या काट रहे हैं
अपनी क्यारी में
हम हैं किस अज्ञात
भविष्य की तैयारी में

किस पीढ़ी ने खाद-बीज ये
कैसे डाल दिए
अंकुर भी आये तो भारी
खर-पतवार लिए
जैसी भी है फसल काटनी
है लाचारी में
भागम-भाग लगी है जैसे
कोई लूट मची
संतों की करनी-कथनी भी
शक से नहीं बची
राह दिखाने वाले फेंकें
घी चिंगारी में

अपने ही घर में चोरी करके
क्यों रीझ रहे
चेहरा दर्पण में देखा
कालिख से खीझ रहे
जो विकल्प हैं उन्हें सभालें
कल की बारी में
3. फिर सभी सामान्य होते जा रहे हैं

फिर सभी सामान्य
होते जा रहे हैं
भूलकर अब
हादसों को लोग

मर रही संवेदना का
शव-परीक्षण
कर सकें तो
जानकारी ही मिलेगी
सोच के हम किस
धरातल पर खड़े हैं
जान पायें चेतना
कुछ तो हिलेगी
चीख चौंकाती नहीं
मुँह फेर चलते
देखकर अब
बेबसों को लोग

मुक्त बाजारीकरण की
दौड़ में अब
वेदना भी, जिंस
बनती जा रही है
कौन प्रायोजक मिलेगा
सांत्वना को
नग्नता टीआरपी
जब पा रही है
घाव पर मरहम लगाना
भूलकर अब
घिर रहे क्यों
ढ़ाढसों में लोग……              

4. हताशा हँस रही

हताशा हँस रही, चिपकी
अवश, निरूपाय
चेहरों पर.

विकल्पों में कहाँ खोजें
कोई अनुकूल-सी सीढ़ी
व्यस्त अवसाद, चिन्ता में
घिरी जब, आज की पीढ़ी

महत्वाकांक्षा आहत
विवश, अनजान
लहरों पर.

विमर्शों में नहीं कोई
कहीं मुद्दा कभी बनता
विरोधाभास में जीती
विफल, असहाय-सी जनता

असहमत मूक निर्वाचन
खड़ा है व्यर्थ
पहरों पर…….

5. रिसता हुआ हमारा जीवन

धीरे-धीरे संचित होकर
जल्दी-जल्दी रीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है

निष्ठाओं पर प्रश्न-चिन्ह हैं
व्यवहारों पर टोका-टाकी
अंकगणित से जुड़ी जिन्दगी
जोड़-घटाकर क्या है बाकी

हासिल कितना, किसके हिस्से
कौन हारकर जीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है
               
विश्व-ग्राम के सपने लेकर
हम जंजीरों में जकड़े हैं
जंगल के विश्वासों को भी
अंधे बन, कसकर पकडे हैं

अपने घर का मुक्त-प्रबंधन
आशा के विपरीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है..

('शब्द व्यंजना' पत्रिका के प्रवेशांक (मई -२०१४) में सम्मिलित ये नवगीत शब्द व्यंजना की वेबसाइट पर भी पढ़े जा सकते हैं http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1006&rid=10
 

Sunday, 24 August 2014

नरेश शांडिल्य के दोहे

नरेश शांडिल्य

दोहे

एक कहो कैसे हुई, मेरी-उसकी बात।
मैंने सब अर्जित किया, उसे मिली खैरात।।

भीख न दी मैंने उसे, लौट गया वो दीन।
उससे भी बढ़कर हुई, खुद मेरी तौहीन।।

उनकी आँखों में पढ़ी, विस्थापन की पीर।
उपन्यास से कम न था, उन आंखों का नीर।।

ख्वाब न हों तो जिन्दगी, चलती-फिरती लाश।
पंख लगाकर ये हमें, देते हैं आकाश।।

महलों पर बारिश हुई, चहके सुर-लय-साज।
छप्पर मगर गरीब का, झेले रह-रह गाज।।

कहना है तो कह मगर, कला कहन की जान।
एक महाभारत रचे, फिसली हुई जुबान।।

कबिरा की किस्मत भली, कविता की तकदीर।
कबिरा कवितामय हुआ, कविता हुई कबीर।।

मुट्ठी में दुनिया मगर, ढूँढ रहा मैं नींद।
खोई जिसकी बींदणी, मैं हूँ ऐसा बींद।।

सिंह गया तब गढ़ मिला’, हा ये कैसी जीत।
तुम्हीं कहो इस जीत का, कैसे गाऊँ गीत।।

इस दुनिया से आपकी, नहीं पड़ेगी पूर।
चलो चलें शांडिल्य जी, इस दुनिया से दूर।।

Wednesday, 20 August 2014

आभासी दुनिया और साहित्य

- डाहेमन्त कुमार
          साहित्य हमेशा तमाम तरह के खतरों और विरोधाभासों के बीच लिखा जाता रहा है, और लिखा जाता रहेगा। लेकिन साहित्य तो अन्ततः साहित्य ही कहा जायेगा, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भले ही बदलता जाय। इधर काफ़ी समय से साहित्य जगत में इस बात से खलबली भी मची है और लोग चिन्तित भी हैं कि अन्तर्जाल का फ़ैलाव साहित्य को नुकसान पहुँचाएगा। लोगों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। लेकिन क्या किसी नये माध्यम के चैलेंज का साहित्य का यह पहला सामना है? इसके पहले भी तो जब टेलीविजन पर सीरियलों का आगमन हुआ था, नये चैनलों की भरमार हुयी थीक्या तब भी साहित्य के सामने यही प्रश्न नहीं उठे थे? तो क्या चैनलों के आने से साहित्य के लेखन या पठनीयता में कमी आ गयी थी? अगर आप पिछले दिनों को याद करें तो—‘चन्द्रकान्ता धारावाहिक के प्रसारण के बाद चन्द्रकान्ता सन्तति उपन्यास तमाम ऐसे लोगों ने पढ़ा जिनसे कभी भी साहित्य का नाता नहीं रहा था। भीष्म साहनी का उपन्यास तमस, मनोहर श्याम जोशी का कुरु कुरु स्वाहा, तमस और कक्का जी कहिन धारावाहिकों के प्रसारण के बाद तमाम पाठकों ने उत्सुकतावश पढ़ा। तो टेलीविजन ने साहित्य के पाठक कम किये या बढ़ाये? ठीक यही बात मैं अन्तर्जाल या आभासी दुनिया के लिये भी कहूँगा। अन्तर्जाल के प्रसार और ब्लाग जैसे अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम की बढ़ती संख्या के साथ ही एक बार फ़िर साहित्य से जुड़े लोगों को तमाम तरह के खतरे नजर आने लगे हैं। उनके मन में तरह तरह की शंकाएँ जन्म लेने लगी हैं। जबकि मुझे नहीं लगता कि साहित्य को ब्लाग या अन्तर्जाल से किसी प्रकार का कोई खतरा हो सकता है क्योंकि किसी भी नये माध्यम के नफ़े नुक्सान दोनों ही होते हैं। अब यह तो साहित्यकारों के समूह पर है कि वह इस विशाल, वृहद आभासी दुनिया से क्या लेता है क्या छोड़ता है।
साहित्य के ऊपर इस आभासी दुनिया का सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही
तरह का प्रभाव पड़ रहा है। सकारात्मक इस तरह कि
vइस आभासी दुनिया की वजह से दिग्गजों और मठाधीशों (साहित्य के अखाड़े के) की मठाधीशी अब खतम हो रही है। पहले जहाँ साहित्य कुछ गिने चुने नामों की धरोहर बन कर रह गया था वो अब सर्व सुलभ हो रहा है। आप देखिये कि जहाँ बहुत सारे नये लेखक, कविकिसी पत्र पत्रिका में छपने को तरस जाते थे (मठाधीशी के कारण) वो आज इसी आभासी दुनिया के कारण ही प्रकाशित भी हो रहे हैं, पढ़े भी जा रहे हैं और अच्छा लिख भी रहे हैं।
vआभासी दुनिया में हर रचना का तुरन्त क्विक रिस्पान्स मिलता है। अच्छा हो या बुरा तुरन्त आपको पता लगता है, आप उसमें परिवर्तन परिमार्जन भी कर सकते हैं। जब कि प्रिण्ट में ऐसा नहीं है। आपको लिखने के कई-कई महीने बाद अपनी रचना पर प्रतिक्रियायें मिलती हैं। आप आज लिखते हैं, हफ़्ते भर बाद किसी पत्र-पत्रिका में भेजते हैं। वह स्वीकृत होकर महीनों बाद छपती है। तब कहीं जाकर उस पर आपको पाठकीय प्रतिक्रिया मिलती है। जबकि आप ब्लाग पर या किसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर लिखते हैं तो वहाँ आपने रात में लिखा और और सुबह तक आपके पास प्रतिक्रियायें हाजिर। कुछ तारीफ़ कीकुछ सुझावों या वैचारिक मतभेद के साथ।
vलेखक और प्रकाशक (प्रिण्ट माध्यम) दोनों अब आमने सामने हैं। आभासी दुनिया में जहाँ लेखक को पाठक उपलब्ध हैं वहीं आज आप देखिये कि प्रकाशक भी आसानी से अच्छे और नये लेखकों को अन्तर्जाल से लेकर छाप रहा है। ये हमारे साहित्य, साहित्यकारों, पाठकों सभी के लिये एक शुभ संकेत है।
जहाँ तक नकारात्मक प्रभाव की बात है---उसके खतरों से भी आप इन्कार नहीं कर सकते।
vबहुत से रचनाकारों की रचनायें अच्छी और स्तरीय न रहने पर भी वाह-वाह, सुन्दर,प्रभावशाली जैसी टिप्पणियाँ रचनाकार को नष्ट करने का काम कर रही हैं और इस बेवजह तारीफ़ का शिकार होकर कुछ रचनाकार अपने शुरुआती मेहनत और लगन के दौर में ही शायद ख़त्म हो सकते हैं।
vऐसे भी रचनाकार यहाँ आपको मिलेंगे जो सिर्फ़ यही तारीफ़ सुनने या अपना मनोरंजन करने के लिये कुछ भी लिख रहे हैं, जिसका साहित्य, समाज, देश के लिये या पाठकों के लिये भी कोई उपयोग नहीं। ऐसे साहित्य की भरमार होने पर इस आभासी दुनिया में से अच्छे रचनाकारों को खोजना अपेक्षाकृत कठिन हो जायेगा।
इसके बावजूद मेरा मानना यही है कि अन्तर्जाल ने आज साहित्यकारों, पाठकों और प्रकाशकों को आपस में इतना करीब ला दिया है कि अब प्रकाशित होना, पढ़ा जाना कोई समस्या नहीं और मुझे लगता है कि यदि इसे थोड़ा सा नियन्त्रण में रखा जाये तो यह आभासी दुनिया रचनाकारों, पाठकों, प्रकाशकों के बीच एक अच्छे और मजबूत सेतु का काम करेगी।
          आज आप देख सकते हैं कि पूरे साहित्य जगत में ब्लाग, फ़ेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस की चर्चा हो रही है। हर महीने अगर आप नेट पर या अखबारों में देखें तो किसी न किसी शहर में आपको ब्लागर्स मीट सम्पन्न होने, किसी ब्लागर के सम्मानित होने, ब्लाग माध्यम पर आधारित किसी पुस्तक का विमोचन होने, ब्लाग्स पर किसी सेमिनार, संगोष्ठी की खबर जरूर पढ़ने को मिल जायेगी। मेरी जानकारी में कई विश्वविद्यालयों में भी इस नये माध्यम पर सेमिनार, संगोष्ठियों का आयोजन हुआ है। इसके अलावा भी विशुद्ध साहित्यिक संगोष्ठियों में भी अब इस माध्यम के बारे में थोड़ी बहुत चर्चायें तो हो ही रही हैं।
          मुझे खुद नेट से जुड़े हुये लगभग तीन साल हुये हैं। मैं ब्लाग से तब परिचित हुआ जब अमिताभ बच्चन और शाहरुख का वाक युद्ध ब्लाग पर आया था। मैंने मित्र लोगों से पूछ-पूछ कर ब्लाग के बारे में जानकारी इकट्ठी की और इसकी मारक क्षमता को समझकर इससे जुड़ गया। आप आश्चर्य करेंगे जहाँ मेरे पाठक 2008 में सिर्फ़ भारत में थे वहीं आज की तारीख में दुनिया के हर देश में मेरे दो चार पाठक मौजूद हैं। यह सब इसी आभासी दुनिया का ही तो कमाल है और मुझे लगता है कि जिस रफ़्तार से हमारे देश में (पूरे विश्व की बात नहीं करूँगा) अन्तर्जाल पर ब्लाग्स, सोशल नेट्वर्किंग साइट्स, समूह, फ़ोरम बनते जा रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि पूरे देश में एक तकनीकी क्रान्ति आ चुकी है जिससे जुड़ कर लोग एक दूसरे के काफ़ी करीब हो रहे हैं, एक दूसरे को सुन रहे हैं, समझ रहे हैं. इस आभासी दुनिया ने दूरियों को समाप्त कर दिया है और यह सही वक्त है देश को, समाज को, राष्ट्र को एक सही दिशा देने में इस आभासी दुनिया के सदुपयोग का। तभी हम सही मायनों में सूचना तकनीकी के सही लाभार्थी कहे जायेंगे।

Monday, 18 August 2014

कबीर के दोहे

पर नारी पैनी छुरी, विरला बांचै कोय
कबहुं छेड़ि न देखिये, हंसि हंसि खावे रोय।

पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।

कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।

शब्द न करैं मुलाहिजा, शब्द फिरै चहुं धार।
आपा पर जब चींहिया, तब गुरु सिष व्यवहार।।

कागा काको धन हरै कोयल काको देत
मीठा शब्द सुनाय के, जग अपनी करि लेत

शब्द बराबर धन नहीं, जो कोय जानै बोल
हीरा तो दामों मिलै, सब्दहिं मोल न तोल

Sunday, 17 August 2014

हर पल यहाँ.....




संगीता सिंह ''भावना''


टूटते सपनों को देखा 
सिसकते अरमानों को देखा 
दूर जाती हुई खुशियों को देखा 
भीगी पलकों से .......
बिखरते अरमानों को देखा ,
अपनों का परायापन देखा .
परायों का अपनापन देखा 
रिश्तों की दुनिया देखी
थमती सांसों ने .....
धीरे से फिर जिन्दगी को हँसते देखा ..
भावनाओं की व्याकुलता देखा 
आँखों में तड़प देखा 
नफरतों की आँधियों को देखा 
रिश्तों के बंधन में .....
कितने ही अजीब और असहज पल देखा 
बुलंदियों का शिखर देखा 
सपनों की उड़ान देखा 
हर एहसासों की कड़वी सच्चाई देखा 
हर पल यहाँ ..||

Saturday, 16 August 2014

सुनो चारुशीला – एक पाठकीय प्रतिक्रिया

संध्या सिंह 

           नरेश सक्सेना के बारे कुछ लिखने की कोशिश इस प्रकार है जैसे नन्हे पौधे  बरगद के बारे में कुछ कहना चाहें या फिर नदियों से समंदर के बारे में पूछा जाए. वे ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने बहुत कम कविताओं में भी बहुत अधिक पाठक बटोरे. नरेश सक्सेना एक ऐसी शख्सियत हैं जो अपना आजीविका धर्म निबाहते हुए जीवन भर बंजर ज़मीन पर खड़े रहे और सीमेंट व कंक्रीट के ठोस धरातल पर खड़े-खड़े जाने कितनी कविताएँ लहलहा दीं अपनी नर्म मुलायम मन की मिट्टी पर. सिविल इंजीनीयरिंग जैसी शुष्क नौकरी इतने लम्बे समय तक करने के बाद भी इन्होंने कविता की नमी बचा कर रखी. यह उनकी एक ऐसी विशेषता है जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती है.
           नरेश सक्सेना की कविता में जो रवानगी है, जो प्रवाह है, जो बहाव है वो मात्र सपाट गति नहीं वरन एक लय है जो पाठक की धड़कन की धक्-धक् के साथ ताल बिठा कर रफ़्तार पकडती है और उठती-गिरती साँसों के साथ फेफड़ों में समा जाती है, अंततः समूची कविता प्राणवायु बन कर लहू में बहने लगती है. उनकी कविताओं में पाठक के साथ एकरूप हो जाने की अद्भुत क्षमता है.
           उनकी काव्यभूमि इतनी उर्वर है कि उनकी एक-एक कविता भावनात्मक धरातल पर वट वृक्ष की तरह खडी नज़र आती है. उनकी कविताओं में बेहद सरल दिखने वाले शब्द एक तिलिस्म तैयार कर देते हैं और न जाने किन-किन गुफाओं, कंदराओं और सरोवरों से ले कर यूँ गुजरते हैं कि पाठक जान ही नहीं पाता कि रास्ता कब समाप्त हुआ. सबसे बड़ी बात कि प्रत्येक कविता अंत में पाठक को स्तब्ध छोड़ देती है. जैसे ‘रंग‘ में उनकी ये पंक्ति-
‘बारिश आने दीजिए  
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी‘
आठ पंक्तियों की ये कविता जैसे धर्म निरपेक्षता का एक ग्रन्थ हो गयी. इसी तरह ‘ईश्वर की औकात‘ कविता की आख़िरी पंक्ति-
‘इस तरह वे ईश्वर को उनकी औकात बताते हैं‘
ऐसी लगी जैसे आराम से पढ़ते-पढ़ते कोई खट से अचानक वार करके भाग गया हो. यह किसी भी रचना की सबसे बड़ी सफलता है. इसी क्रम में उनकी ‘मुर्दे‘ कविता को पढ़ना आग से गुज़रना है. उस कविता का अंतिम भाग एक विस्फोट से कम नहीं. वहीं उनकी ‘शिशु’ कविता पलकों में नमी का एहसास करा जाती है-
‘बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
इतनी अबोधता? यह कविता समस्त बुद्धिजीवियों के ऊपर एक करारा तमाचा है.
          
          उनकी कविताओं की एक अलग आवृत्ति है. जब कविता नज़दीक आते-आते पाठक की आवृति से मेल खाती है तो बिजली-सी कौंधती है और फिर पाठक और कविता एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं. नरेश जी की कुछ कविताओं को तो समाप्त करते-करते मुझे लगा जैसे उस कविता और मेरे बीच और कोई भी नहीं और मैं उस कविता के साथ ही सोई-जागी, जैसे कि ‘किले में बच्चे‘. वह कविता मुझे अवाक छोड़ कर ख़त्म हो गई और मैं बाद तक जाने क्या-क्या ढूँढती रही उसमें.
          उनकी ‘पीछे छूटी हुई चीजें‘ कविता को पढ़ते हुए लगा कि क्या कोई बिजली गड़गड़ाने और उसके चमकने के बीच यह सम्बन्ध भी स्थापित कर सकता है?‘ इस कविता का अंत कई बार आपको अचानक रात में चौंक कर उठने पर विवश कर सकता है. ’दरवाज़ा‘ कविता पढ़ते-पढ़ते समान्तर सोच साथ चली कि अनूठे भाव की ये दुनिया कैसे उपजी होगी भीतर?
          चाहे ‘सूर्य’ की औलोकिक विकलांगता साबित करती कविता हो या ‘अन्तरिक्ष से देखने पर’ में धरती के दर्द का सूक्ष्म निरीक्षण या फिर ‘घड़ियाँ‘ में हर घड़ी का हर वर्ग से अलग रिश्ता, इन सब कविताओं में एक बात मूलतः उभर कर आई कि ये रचनाएँ, रचनाएँ नहीं उनकी रगों में बहती मानवीय संवेदनाओं की एक पराकाष्ठा है.
          उनकी कविता ‘पानी क्या कर रहा है‘ एक अलग ही धरातल पर रची गई है| इस कविता में जहाँ एक ओर पानी के जमने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है वहीँ दूसरी ओर प्रकृति द्वारा पानी के भीतर तैरते जीवन को बचानें की एक जंग जो विज्ञान के नियम भी बदल देती है और चार डिग्री के बाद मछलियों के लिए एक रक्षा कवच बना देती है| अद्भुत तर्क और अनुपम सोच से उपजी यह कविता अंत में ठन्डे पानी में भी जिज्ञासा की एक आग लगा जाती है, जब नरेश लिखते हैं कि-
‘इससे पहले कि ठन्डे होते ही चले जाएँ
हम, चल कर देख लें
कि इस वक्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड
तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है‘
और अंत में अंतिम पृष्ठ पर लिखी कविता की बात करें ‘परसाईं जी की बात‘ जिसमें उनके अंतिम शब्द जडवत अवस्था में छोड़ देते हैं पाठक को-
‘तो शक होने लगता है,
परसाई जी की बात पर, नहीं ---
अपनी कविताओं पर‘
इसके आकस्मिक अंत पर बिलकुल निःशब्द हूँ|

          नरेश सक्सेना की कविता-यात्रा सरलतम शब्दों की हरी-भरी पगडंडी है जिसमे सघन भाव के कठिन पड़ाव भी पाठक बिना दिमागी उठापटक के सीधे पार कर जाता है और कविता का अक्षर-अक्षर सीधा ह्रदय पर टंकित होता है| नरेश जी को अपने सरल शब्दों से भावों के सागर को तल तक नापना बखूबी आता है| जहाँ एक ओर कवि के रूप में नरेश जी पाठक के ऊपर अमिट छाप छोड़ते हैं  वहीं व्यक्तिगत स्तर पर वे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं| विशिष्ट होते हुए भी सरल, सौम्य और साधारण दिखना उन्हें अतिविशिष्ट बनाता है| उम्र के छियत्तरवें वर्ष में भी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ इतनी सक्रियता एक सुखद आश्चर्य से भर देती है|
          अंत में यही कहूँगी कि नरेश जी के काव्य संग्रह ‘सुनो चारुशीला‘ के पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने तक का  सफ़र मेरे लिए कविता की एक अविस्मरणीय यात्रा है| सच कहूँ तो उनका सृजन वैज्ञानिक पृष्ठभूमि की ठोस चट्टान से निकला एक ऐसा मीठा झरना है जो सच्चे काव्य प्रेमी को बहा कर नहीं ले जाता वरन घूँट-घूँट तृप्त करना जानता है| सघन भावों के धागे में पिरोए उनके सरल शब्दों के मनके उनकी कविता को साहित्य जगत के लिए एक आकर्षक और अनमोल आभूषण बनाते हैं| यह कामना करती हूँ कि उनकी नई रचनाओं से रूबरू होती रहूँ |
http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1014&rid=36

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...