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Thursday 28 August 2014

हमारे रचनाकार : जगदीश पंकज

पूरानाम : जगदीश प्रसाद जैन्ड
जन्म : 10 दिसम्बर 1952
स्थान : पिलखुवा, जिला-गाज़ियाबाद (उ.प्र .)  
शिक्षा : बी .एस सी .
विभिन्नपत्र पत्रिकाओं में गीत एवं कवितायें प्रकाशित, एक नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन
सम्प्रति : सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवा निवृत्त एवं स्वतंत्रलेखन
संपर्क : सोमसदन ,5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्द्रनगर,साहिबाबाद ,गाज़ियाबाद-201005 .
मो. : 08860446774
ईमेल : jpjend@yahoo.co.in

1. अपने को ही पाती लिखकर
अपने को ही पाती लिखकर
खुद ही बैठे बाँच रहे हैं
अपने-अपने रंगमंच पर
कठपुतली से नाच रहे हैं

सम्बोधन के शब्द स्वयं ही
हमने अपने लिए गढ़े हैं
आत्ममुग्धता में औरोंके
पत्र अभी तक नहीं पढ़े हैं

अपने ही सब प्रश्न-पत्र हैं
उत्तर भी खुद जांच रहे हैं

सदियों से संतापित भी तो
कुछ अपने ही आस-पास हैं
उनके भी अपने अनुभव हैं
वे भी कुछ तो आम-ख़ास हैं

उनको मिले हाशिए, उनके
हिस्से टूटे कांच रहे हैं

मात्र आंकड़ों में अंकित है
अपनी-अपनी रामकहानी
पिसते रहे उम्रभर अब तक
पाने को कुछ दाना-पानी

कुछ कर्मों के, कुछ जन्मों के
बंधन झूठी-सांच रहे हैं


2. क्या बोयाक्या काट रहे हैं

क्या बोया, क्या काट रहे हैं
अपनी क्यारी में
हम हैं किस अज्ञात
भविष्य की तैयारी में

किस पीढ़ी ने खाद-बीज ये
कैसे डाल दिए
अंकुर भी आये तो भारी
खर-पतवार लिए
जैसी भी है फसल काटनी
है लाचारी में
भागम-भाग लगी है जैसे
कोई लूट मची
संतों की करनी-कथनी भी
शक से नहीं बची
राह दिखाने वाले फेंकें
घी चिंगारी में

अपने ही घर में चोरी करके
क्यों रीझ रहे
चेहरा दर्पण में देखा
कालिख से खीझ रहे
जो विकल्प हैं उन्हें सभालें
कल की बारी में
3. फिर सभी सामान्य होते जा रहे हैं

फिर सभी सामान्य
होते जा रहे हैं
भूलकर अब
हादसों को लोग

मर रही संवेदना का
शव-परीक्षण
कर सकें तो
जानकारी ही मिलेगी
सोच के हम किस
धरातल पर खड़े हैं
जान पायें चेतना
कुछ तो हिलेगी
चीख चौंकाती नहीं
मुँह फेर चलते
देखकर अब
बेबसों को लोग

मुक्त बाजारीकरण की
दौड़ में अब
वेदना भी, जिंस
बनती जा रही है
कौन प्रायोजक मिलेगा
सांत्वना को
नग्नता टीआरपी
जब पा रही है
घाव पर मरहम लगाना
भूलकर अब
घिर रहे क्यों
ढ़ाढसों में लोग……              

4. हताशा हँस रही

हताशा हँस रही, चिपकी
अवश, निरूपाय
चेहरों पर.

विकल्पों में कहाँ खोजें
कोई अनुकूल-सी सीढ़ी
व्यस्त अवसाद, चिन्ता में
घिरी जब, आज की पीढ़ी

महत्वाकांक्षा आहत
विवश, अनजान
लहरों पर.

विमर्शों में नहीं कोई
कहीं मुद्दा कभी बनता
विरोधाभास में जीती
विफल, असहाय-सी जनता

असहमत मूक निर्वाचन
खड़ा है व्यर्थ
पहरों पर…….

5. रिसता हुआ हमारा जीवन

धीरे-धीरे संचित होकर
जल्दी-जल्दी रीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है

निष्ठाओं पर प्रश्न-चिन्ह हैं
व्यवहारों पर टोका-टाकी
अंकगणित से जुड़ी जिन्दगी
जोड़-घटाकर क्या है बाकी

हासिल कितना, किसके हिस्से
कौन हारकर जीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है
               
विश्व-ग्राम के सपने लेकर
हम जंजीरों में जकड़े हैं
जंगल के विश्वासों को भी
अंधे बन, कसकर पकडे हैं

अपने घर का मुक्त-प्रबंधन
आशा के विपरीत रहा है
रिसता हुआ हमारा जीवन
कुछ ऐसे ही बीत रहा है..

('शब्द व्यंजना' पत्रिका के प्रवेशांक (मई -२०१४) में सम्मिलित ये नवगीत शब्द व्यंजना की वेबसाइट पर भी पढ़े जा सकते हैं http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1006&rid=10
 

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