Showing posts with label कल्पना रामानी. Show all posts
Showing posts with label कल्पना रामानी. Show all posts

Sunday 11 January 2015

कल्पना रामानी के नवगीत

         कल्पना रामानी

धूप सखी 

धूप सखी, सुन विनती मेरी,
कुछ दिन जाकर शहर बिताना।
पुत्र गया धन वहाँ कमाने,
जाकर उसका तन सहलाना।

वहाँ शीत पड़ती है भारी।
कोहरा करता चौकीदारी।
तुम सूरज की परम प्रिया हो,
रख लेगा वो बात तुम्हारी।

दबे पाँव चुपचाप पहुँचकर,
उसे प्रेम से गले लगाना।

रात, नींद जब आती होगी
साँकल शीत बजाती होगी
छिपे हुए दर दीवारों पर,
बर्फ हर्फ लिख जाती होगी।

सुबह-सुबह तुम ज़रा झाँककर,
पुनः गाँव की याद दिलाना।

मैं दिन गिन-गिन जिया करूँगी।
इंतज़ार भी किया करूँगी।
अगर शीत ने मुझे सताया,
फटी रजाई सिया करूँगी।

लेकिन यदि हो कष्ट उसे तो,
सखी! साथ में लेती आना।  
------------------
गुलमोहर की छाँव

गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।

ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।

जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।

फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।

भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की। 

बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।

खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।

फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती। 

कल्प-वृक्ष है यहीं उसे, पहचानें

और न कहना बाकी।

Saturday 3 January 2015

हमारे रचनाकार- कल्पना रमानी


६ जून १९५१ को उज्जैन में जन्मी कल्पना रामानी ने हालांकि हाई स्कूल तक ही औपचारिक शिक्षा प्राप्त की परन्तु उनके साहित्य प्रेम ने उन्हें निरंतर पढ़ते रहने को प्रेरित किया। पारिवारिक उत्तरदायित्वों तथा समस्याओं के बावजूद उनका साहित्य-प्रेम बरकरार रहा।
वे गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि रखती हैं। उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं।
वर्तमान में वे वेब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिका अभिव्यक्ति-अनुभूतिके संपादक मण्डल की सदस्य हैं।
प्रकाशित कृतियाँ- गीत संग्रह- हौसलों के पंख

ईमेल- kalpanasramani@gmail.com

नवगीत
(१)
चलो नवगीत गाएँ

गर्दिशों के भूलकर शिकवे गिले,
फिर उमंगों के चलो नवगीत गाएँ।

प्रकृति आती
रोज़ नव शृंगार कर।
रूप अनुपम, रंग उजले
गोद भर।

जो हमारे हिय छुपा है चित्रकार,
भाव की ले तूलिका उसको जगाएँ।

झोलियाँ भर
ख़ुशबुएँ लाती हवा।
मखमली जाजम बिछा
जाती घटा।

ख़्वाहिशों के, बाग से चुनकर सुमन,
शेष शूलों की चलो होली जलाएँ।

नित्य खबरें
क्यों सुनें खूँ से भरी।
क्यों न उनकी काट दें
उगती कड़ी।

लेखनी ले हाथ में नव क्रांति की,
हर खबर को खुशनुमा मिलकर बनाएँ।

देख दुख, क्यों
हों दुखी, संसार का।
पृष्ठ कर दें बंद क्यों ना 
हार का। 

खोजकर राहें नवल निस्तार की,
जीत की अनुपम, नई दुनिया बसाएँ।
---------------
(२)
कैसे बीते काले दिन

ज़रा पूछिए इन लोगों से,
कैसे बीते काले दिन।
फुटपाथों की सर्द सेज पर,
क्रूर कुहासे वाले दिन।

सूरज, जो इनका हमजोली,
वो भी करता रहा ठिठोली।
तहखाने में भेज रश्मियाँ,
ले आता कुहरा भर, झोली।

गर्म वस्त्र तो मौज मनाते,
इन्हें सौंपते छाले दिन।

दूर जली जब आग देखते,
नज़रों से ही ताप सेंकते
बैरन रात न काटे कटती,
गात हवा के तीर छेदते।

इन अधनंगों ने गठरी बन,
घुटनों बीच सँभाले दिन।

धरा धुरी पर चलती रहती,
धूप उतरती चढ़ती रहती।
हर मौसम के परिवर्तन पर,
कुदरत इनको छलती रहती।

ख्वाबों में नवनीत इन्होंने,
देख, छाछ पर पाले दिन।

----------------

ग़ज़ल

(१)
आज खबरों में जहाँ जाती नज़र है।
रक्त में डूबी हुई, होती खबर है।

फिर रहा है दिन उजाले को छिपाकर,
रात पूनम पर अमावस की मुहर है।

ढूँढते हैं दीप लेकर लोग उसको,
भोर का तारा छिपा जाने किधर है। 

डर रहे हैं रास्ते मंज़िल दिखाते,
मंज़िलों पर खौफ का दिखता कहर है।

खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार अपनी,
साहिलों की ओट छिपती हर लहर है।

साज़ हैं खामोश, चुप है रागिनी भी,
गीत गुमसुम, मूक सुर, बेबस बहर है। 

हसरतों के फूल चुनता मन का माली,
नफरतों के शूल बुनती सेज पर है। 

आज मेरा देश क्यों भयभीत इतना,
हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।

----------------
 (२)
बल भी उसके सामने निर्बल रहा है।
घोर आँधी में जो दीपक जल रहा है।

डाल रक्षित ढूँढते, हारा पखेरू,
नीड़ का निर्माण, फिर फिर टल रहा है।

हाथ फैलाकर खड़ा दानी कुआँ वो,
शेष बूँदें अब न जिसमें जल रहा है।

सूर्य ने अपने नियम बदले हैं जब से,
दिन हथेली पर दिया ले चल रहा है।

क्यों तुला मानव उसी को नष्ट करने,
जो हरा भू का सदा आँचल रहा है।

देखिये इस बात पर कुछ गौर करके,
आज से बेहतर हमारा कल रहा है। 

मन को जिसने आज तक शीतल रखा था,
सब्र का घन धीरे-धीरे गल रहा है।

ख्वाब है जनतन्त्र का अब तक अधूरा,
आदि से जो इन दृगों में पल रहा है।
-------------------
 (३)
सुनहरी भोर बागों में, बिछाती ओस की बूँदें!
नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूँदें!

चपल भँवरों की कलियों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,
मिला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूँदें!

चितेरा कौन है? जो रात, में जाजम बिछा जाता,
न जाने रैन कब बुनती, अकेली ओस की बूँदें!

करिश्मा है खुदा का या, कि ऋतु रानी का ये जादू,
घुमाकर जो छड़ी कोई, गिराती ओस की बूँदें!

नवल सूरज की किरणों में, छिपी होती हैं ये शायद,
जो पुरवाई पवन लाती, सुधा सी ओस की बूँदें!

टहलने चल पड़ें साथी, निहारें रूप  प्रातः का,
न जाने कब बिखर जाएँ, फरेबी ओस की बूँदें!
---------------- 

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...