Monday 10 November 2014

हमारे रचनाकार- अरुन श्री


जन्म तिथि- २९.०९.१९८३
शिक्षा- बी. कॉम., डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
प्रकाशित कृतियाँ- मैं देव न हो सकूँगा (कविता संग्रह), परों को खोलते हुए (संयुक्त काव्य संग्रह), शुभमस्तु (संयुक्त काव्य संग्रह), सारांश समय का (संयुक्त काव्य संग्रह), गज़ल के फलक पर (संयुक्त गज़ल संग्रह)
पता- मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मोबाइल- 09369926999
ई-मेल- arunsri.adev@gmail.com

अरुन श्री की कविताएँ 

मैं कितना झूठा था !!

कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था!!!

तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी!
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से!
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी, न मैं!

एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग!
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी!

तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती!
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -
कि अभी बच्ची हो!
तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती!

तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही, मैं कवि होने लगा!
तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर!
मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता!

एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -
सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम!
मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर!

आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग
दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से!
मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ!
दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता!
हमने तब जाना कि एक रंग अँधेराभी होता है!

रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन!
तुम सुबह-सुबह काजल लगा लेती कि छुपा रहे रात का रंग!
मैं फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना!

मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गाँव के सत्ती चौरे पर!
तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने!
उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टाँकता था मैं!
मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय!

तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम!
मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूँगा कविताएँ!

कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था!!!

अंतिम योद्धा

हाँ
मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र
तुम्हारी पायल के लिए
और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव
शोभा बनेंगे
किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की
फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा!

हाँ
मैं लिखूँगा प्रेम कविताएँ
किन्तु ठहरो तनिक
पहले लिख लूँ एक मातमी गीत
अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी हिचकियों की लय पर
बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र

हाँ
मैं बुनूँगा सपने
तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से
पर इससे पहले कि उस दीवार पर -
जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल
जिनमें से झांक रहा है एक दागदार चाँद!
वहीं दूसरी तस्वीर में
किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर!
- मैं टांग दूँ अपना कवच
कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने
मेरे छोटे भाइयों के लिए
मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा

हाँ
मुझे प्रेम है तुमसे 
और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !

सुनो स्त्री!

सुनो स्त्री!
पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो!
और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते!

तेज हुई साँसों की लय पर थिरकती छातियाँ
प्रेम कहेंगी तुमसे -
संगीत और नृत्य के संतुलन को!
सामंजस्य जीवन कहलाता है!
(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)
सम्मोहन टूटते है अक्सर -
बर्तन फेकने की आवाजों से!

आँगन और छत के लिए आयातित धूप
पसार दी जाती है,
शयनकक्ष की मेज पर!
रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते हैं,
जब बुझ जाएगा तुम्हारी आँखों का सूरज!
(अगर डूबता तो फिर उग भी सकता था)

थोपी गई धार्मिक स्मृतियाँ विस्मृत कर देतीं हैं -
प्रतिरोध की आदिम कला!
इस घटना को आस्तिक होना कहा जाएगा!

तो सुनो स्त्री!
पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो!
बस, ह्रदय कर्ज़दार न हो
तुम्हारे कान गिरवी न रख दिए जाएँ!
(होंठ उम्र भर सूद चुकाते रहेंगे)
दूब ताकतवर मानी गई है,
कुचलने वाले भारी भरकम पैरों से!
बीच समुन्दर,
अकेला जहाज,
मस्तूल पर तुम!
तुम्हारे पंख सजावट का सामान नहीं हैं!
थोपी गई स्मृतियाँ नकार दी जानी चाहिए!

तय करना है

चाँद-सितारे, बादल, सूरज
आँख मिचौली खेल रहें हैं।
धरती खुश है,
झूम रही है।
झूम रहा है प्रहरी कवि-मन।
समय आ गया नए सृजन का।

खून सनी सड़कों पर-
काँटे उग आए हैं।
जीवन भाग रहा है नंगे पाँव
मगर बचना मुश्किल है।
सन्नाटों का गठबंधन-
अब चीखों से है।

हृदयों के श्रृंगारिक पल में
छत पर चाँद उतर आता है।
कवि के कन्धे पर सर रखकर
मुस्काता है।
नीम द्वार का गा उठता है
गीत प्यार के।

कविताएँ नाखून बढाकर
घूम रहीं हैं।
नुचे हुए भावों के चेहरे
नया मुखौटा ओढ़ चुके हैं।
अट्टहास करती है नफरत
प्यार भरी कुछ मुस्कानों पर।

अलग-अलग से दो मंजर हैं,
किसको देखूँ?

जुदा-जुदा सी दो राहें हैं,
क्या होगा-
मेयार सफर का?

तय करना है !

आवारा कवि

अपनी आवारा कविताओं में -
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन!
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध!
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ!
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम तो देह लिखता हूँ!
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना!

और जब -
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा!
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है!
रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र!
चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है!
चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आँगन में!
जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ!
बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ!

मैं तय नहीं कर पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी!
किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की!
आवारा लड़की को ढूँढते हुए मर जाता है प्रेम!
अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बाँधी गई पगड़ी में,
और लिखने लगता हूँ -
अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ!

लेकिन -
मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ!
प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से!
अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगाता कोई योद्धा!

दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं-
उस आवारा लड़की को भूल जाऊँगा एक दिन,
और वो दिन -
एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा!

Thursday 2 October 2014

रचनाकार

मधुकर अष्ठाना
जन्म- 27-10-1939
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी साहित्य एवं समाजशास्त्र)
प्रकाशन- सिकहर से भिनसहरा (भोजपुरी गीत संग्रह), गुलशन से बयाबां तक (हिंदी ग़ज़ल संग्रह) पुरस्कृत, वक़्त आदमखोर (नवगीत संग्रह), न जाने क्या हुआ मन को (श्रृंगार गीत/नवगीत संग्रह), मुट्ठी भर अस्थियाँ (नवगीत संग्रह), बचे नहीं मानस के हंस (नवगीत संग्रह), दर्द जोगिया ठहर गया (नवगीत संग्रह), और कितनी देर (नवगीत संग्रह), कुछ तो कीजिये (नवगीत संग्रह) | इसके अतिरिक्त तमाम पत्र-पत्रिकाओं तथा दर्जनों स्तरीय सहयोगी संकलनों में गीत/नवगीत संग्रहीत |
सम्मान-पुरस्कार- अब तक 42 सम्मान व पुरस्कार
विशेष- ‘अपरिहार्य’ त्रैमासिक के अतिरिक्त संपादक, ‘उत्तरायण’ पत्रिका में सहयोगी तथा ‘अभिज्ञानम’ पत्रिका के उपसंपादक | कई विश्वविद्यालयों में व्यक्तित्व व कृतित्व पर लघुशोध व शोध |
वर्तमान में जिला स्वास्थ्य शिक्षा एवं सूचना अधिकारी, परिवार कल्याण विभाग, उ.प्र. से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन |
संपर्क सूत्र- ‘विद्यायन’ एस.एस. 108-109 सेक्टर-ई, एल.डी.ए. कालोनी लखनऊ |
उनके एक नवगीत की कुछ पंक्तियाँ-
जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |

सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे

थोपा गया
माथ पर पर्वत 
हमने कहाँ चुना |

Wednesday 1 October 2014

कविता क्या है- कुमार रवींद्र


     कुमार रवींद्र


कविता क्या है 
यह जो अनहद नाद बज रहा भीतर 

एक रेशमी नदी सुरों की 
अँधियारे में बहती 
एक अबूझी वंशीधुन यह 
जाने क्या-क्या कहती 

लगता 
कोई बच्ची हँसती हो कोने में छिपकर 

या कोई अप्सरा कहीं पर 
ग़ज़ल अनूठी गाती
पता नहीं कितने रंगों से 
यह हमको नहलाती 

चिड़िया कोई हो 
ज्यों उड़ती बाँसवनों के ऊपर 

काठ-हुई साँसों को भी यह 
छुवन फूल की करती 
बरखा की पहली फुहार-सी 
धीरे-धीरे झरती 

किसी आरती की 
सुगंध-सी कभी फैलती बाहर

Sunday 28 September 2014

नाजिम हिकमत की कविताएँ

नाजिम हिकमत

आशावाद
कविताएँ लिखता हूँ मैं
वे छप नहीं पातीं
लेकिन छपेंगी वे.
मैं इंतजार कर रहा हूँ खुश-खैरियत भरे खत का
शायद वो उसी दिन पहुँचे जिस दिन मेरी मौत हो
लेकिन लाजिम है कि वो आएगा.
दुनिया पर सरकारों और पैसे की नहीं
बल्कि अवाम की हुकूमत होगी
अब से सौ साल बाद ही सही
लेकिन ये होगा ज़रूर.
(अंग्रेजी से अनुवाद- दिगम्बर)

मैं तुम्हें प्यार करता हूँ

घुटनों के बल बैठा-
मैं निहार रहा हूँ धरती,
घास,
कीट-पतंग,
नीले फूलों से लदी छोटी टहनियाँ.
तुम बसंत की धरती हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें निहार रहा हूँ.
पीठ के बल लेटा-
मैं देख रहा हूँ आकाश,
पेड़ की डालियाँ,
उड़ान भरते सारस,
एक जागृत सपना.
तुम बसंत के आकाश की तरह हो, मेरी प्रिया,
मैं तुम्हें देख रहा हूँ.
रात में जलाता हूँ अलाव-
छूता हूँ आग,
पानी,
पोशाक,
चाँदी.
तुम सितारों के नीचे जलती आग जैसी हो,
मैं तुम्हें छू रहा हूँ.
मैं काम करता हूँ जनता के बीच-
प्यार करता हूँ जनता से,
कार्रवाई से,
विचार से,
संघर्ष से.
तुम एक शख्शियत हो मेरे संघर्ष में,
मैं तुम से प्यार करता हूँ.
(अनुवाद- दिगम्बर)

जीने के बारे में

जीना कोई हंसी-मजाक नहीं,
तुम्हें पूरी संजीदगी से जीना चाहिए
मसलन, किसी गिलहरी की तरह
मेरा मतलब जिंदगी से परे और उससे ऊपर
किसी भी चीज की तलाश किये बगैर.
मतलब जिना तुम्हारा मुकम्मल कारोबार होना चाहिए.
जीना कोई मजाक नहीं,
इसे पूरी संजीदगी से लेना चाहिए,
इतना और इस हद तक
कि मसलन, तुम्हारे हाथ बंधे हों पीठ के पीछे
पीठ सटी हो दीवार से,
या फिर किसी लेबोरेटरी के अंदर
सफ़ेद कोट और हिफाज़ती चश्मे में ही,
तुम मर सकते हो लोगों के लिए
उन लोगों के लिए भी जिनसे कभी रूबरू नहीं हुए,
हालांकि तुम्हे पता है जिंदगी
सबसे असली, सबसे खूबसूरत शै है.
मतलब, तुम्हें जिंदगी को इतनी ही संजीदगी से लेना है
कि मिसाल के लिए, सत्तर की उम्र में भी
तुम रोपो जैतून के पेड़
और वह भी महज अपने बच्चों की खातिर नहीं,
बल्कि इसलिए कि भले ही तुम डरते हो मौत से
मगर यकीन नहीं करते उस पर,
क्योंकि जिन्दा रहना, मेरे ख्याल से, मौत से कहीं भारी है.
ll
मान लो कि तुम बहुत ही बीमार हो, तुम्हें सर्जरी की जरूरत है
कहने का मतलब उस सफ़ेद टेबुल से
शायद उठ भी न पाओ.
हालाँकि ये मुमकिन नहीं कि हम दुखी न हों
थोड़ा पहले गुजर जाने को लेकर,
फिर भी हम लतीफे सुन कर हँसेंगे,
खिड़की से झांक कर बारीश का नजारा लेंगे
या बेचैनी से
ताज़ा समाचारों का इंतज़ार करेंगे….
फर्ज करो हम किसी मोर्चे पर हैं
रख लो, किसी अहम चीज की खातिर.
उसी वक्त वहाँ पहला भारी हमला हो,
मुमकिन है हम औंधे मुंह गिरें, मौत के मुंह में.
अजीब गुस्से के साथ, हम जानेंगे इसके बारे में,
लेकिन फिर भी हम फिक्रमंद होंगे मौत को लेकर
जंग के नतीजों को लेकर, जो सालों चलता रहेगा.
फर्ज करो हम कैदखाने में हों
और वाह भी तक़रीबन पचास की उम्र में,
और रख लो, लोहे के दरवाजे खुलने में
अभी अठारह साल और बाकी हों.
फिर भी हम जियेंगे बाहरी दुनिया के साथ,
वहाँ के लोगों और जानवरों, जद्दोजहद और हवा के बीच
मतलब दीवारों से परे बाहर की दुनिया में,
मतलब, हम जहाँ और जिस हाल में हों,
हमें इस तरह जीना चाहिए जैसे हम कभी मरेंगे ही नहीं.
यह धरती ठंडी हो जायेगी,
तारों के बीच एक तारा
और सबसे छोटे तारों में से एक,
नीले मखमल पर टंका सुनहरा बूटा
मेरा मतलब है, यह गजब की धरती हमारी.
यह धरती ठंडी हो जायेगी एक दिन,
बर्फ की एक सिल्ली के मानिंद नहीं
या किसी मरे हुए बादल की तरह भी नहीं
बल्कि एक खोंखले अखरोट की तरह चारों ओर लुढकेगी
गहरे काले आकाश में
इस बात के लिये इसी वक्त मातम करना चाहिए तुम्हें
इस दुःख को इसी वक्त महसूस करना होगा तुम्हें
क्योंकि दुनिया को इस हद तक प्यार करना जरुरी है
अगर तुम कहने जा रहे हो कि मैंने जिंदगी जी है”…

(अनुवाद दिगंबर)

दलित और आदिवासी स्वरों की संवेदना समझनी होगी: नागर

प्रयास संस्थान की ओर से सूचना केंद्र में शनिवार को आयोजित समारोह में वर्ष 2014 का डॉ. घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार जयपुर के ख्यातनाम साहित्यकार भगवान अटलानी को दिया गया। नामचीन लेखक-पत्राकार विष्णु नागर के मुख्य आतिथ्य में हुए कार्यक्रम में उन्हें यह पुरस्कार एकांकी पुस्तक सपनों की सौगातके लिए दिया गया।
समारोह को संबोधित करते हुए नागर ने कहा कि आज हमारा समाज धर्म और जातियों में इस प्रकार बंट गया है कि हम एक-दूसरे से ही खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन हमें यह समझना होगा कि यदि परस्पर भरोसा कायम नहीं रहा तो केवल तकनीक और वैज्ञानिक प्रगति के सहारे ही हम सुखी नहीं रह सकते। उन्होंने कहा कि हजारों वर्षों के अन्याय और शोषण के बाद अब दलित और आदिवासी स्वर उठने लगे हैं तो हम उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते बल्कि हमें उन स्वरों की संवेदना को समझना चाहिए। जब तक समाज के तमाम तबकों की भागीदारी तय नहीं होगी, समाज और देश की एक बेहतर और संपूर्ण तस्वीर संभव नहीं है। अटलानी के रचनाकर्म पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नागर ने कहा कि वर्तमान में व्यक्ति तमाम तरह के अंतर्विरोधों से घिरा हुआ है और हमारे आचरणों को परिभाषित करने वाली कोई सरल विभाजक रेखा यहाँ नहीं है। व्यवस्था की विसंगतियों ने ईमानदार आदमी के जीवन को दूभर बना दिया है और आदर्शवाद के सहारे हमारी बुनियादी दिक्कतें हल नहीं हो रही हैं। उन्होंने कहा कि आज भारतीय भाषाओं के साथ षड्यंत्र करते हुए यह कहा जा रहा है कि जो भी अच्छा लिखा जा रहा है, वह केवल अंग्रेजी में लिखा जा रहा है। हमें इस साजिश को समझना होगा और इस चुनौती का जवाब अपनी रचनात्मकता और सक्रियता से देना होगा।

मुख्य वक्ता एवं प्रख्यात साहित्यकार श्योराज सिंह बेचैन ने कहा कि देश के बौद्धिक जगत में कभी आदिवासी और दलित नहीं रहे और जो लोग रहे, उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं किया लेकिन यह देश दलितों और आदिवासियों का भी है। सैकड़ों सालों से हमने आदिवासी-दलितों के संदर्भ में जो क्षति पहुँचाई है, उसकी पूर्ति की इच्छा भी कभी तो हममें जागनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि कोई साहित्यकार अपना भोगा हुआ लिखता है तो निस्संदेह उसकी प्रामाणिकता सर्वाधिक कही जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि देश में कोई भी जाति कमजोर होगी, तो देश कमजोर होगा।
पुरस्कार से अभिभूत भगवान अटलानी ने कहा कि आदर्श और यथार्थ के बीच दूरियाँ नहीं होनी चाहिए। तमाम यथार्थ को भोगते हुए और उससे जूझते हुए हमें एक आदर्श स्थापित करना चाहिए ताकि हम समाज को अच्छा बनाने की दिशा में एक योगदान दे सकें। आदर्शों की ऊँचाइयों पर व्यक्ति पहुँचे, मेरा समग्र साहित्य इसी दिशा में एक समर्पण है।

समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात गणितज्ञ डॉ. घासीराम वर्मा ने कहा कि हमें किताबें खरीदकर पढ़ने की प्रवृत्ति खुद में विकसित करनी चाहिए। जिस व्यक्ति के पास दो से अधिक कमीज-पतलून है, उसे अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर पुस्तकें खरीदनी और पढ़नी चाहिए। उन्होंने कहा कि आज देश के वैज्ञानिकों ने मंगल पर यान भेजकर बड़ी सफलता अर्जित की है लेकिन उन्हें मीडिया में उतनी तवज्जो नहीं मिल रही, जितनी कुछ दूसरी फिजूल चीजों को मिल रही है। विशिष्ट अतिथि डॉ. श्रीगोपाल काबरा ने आयोजन के लिए प्रयास संस्थान की सराहना की। वरिष्ठ साहित्यकार भंवर सिंह सामौर ने आभार जताया। इससे पूर्व अतिथियों ने दीप प्रज्जवलित कर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। प्रयास के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने आयोजकीय रूपरेखा पर प्रकाश डाला। संचालन कमल शर्मा ने किया। समारोह में ख्यातनाम साहित्यकार रत्नकुमार सांभरिया, रियाजत खान, युवा जागृति संस्थान के अध्यक्ष जयसिंह पूनिया, रामेश्वर प्रजापति रामसरा, नरेंद्र सैनी, रामगोपाल बहड़, ओम सारस्वत, हनुमान कोठारी, बाबूलाल शर्मा, उम्मेद गोठवाल, कुमार अजय, डॉ. कृष्णा जाखड़, सुनीति कुमार, विजयकांत, डॉ. रामकुमार घोटड़, माधव शर्मा, उम्मेद धानियां, बजरंग बगड़िया, केसी सोनी, आरके लाटा, सुरेंद्र पारीक रोहित, श्रीचंद राजपाल सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, मीडियाकर्मी एवं नागरिक मौजूद थे। 

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...