Saturday 6 April 2013

Wings of Fancy


आज से निर्झर टाइम्स की इस चर्चा की जिम्मेदारी आदरणीया वन्दना तिवारी जी द्वारा सहर्ष स्वीकार की गयी थी लेकिन कुछ तकनीकी समस्याओं के कारण वो चर्चा को आज मूर्त रूप नहीं दे पायीं इसलिए उनके सहायक के रूप में मैं आज यहां उपस्थित हूं।
वन्दना जी द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि वे हर शनिवार को संकलन के रूप में चर्चा लेकर यहां उपस्थित होंगी। मैं अब से बीच बीच में साहित्य के पुरोधाओं की रचनायें लेकर आपके समक्ष उपस्थित होता रहूंगा।
तो पेश है वन्दना जी द्वारा संकलित आज की चर्चा-


Wings of Fancy: 'भावों का आकार': उर के आंगन मे बिखरी है भावों की कच्ची मिट्टी मेधा की चलनी तो है,हिगराने को कंकरीली मिट्टी रे मन! बन जा कुम्भज संयम नैतिकता के कुशल हस्त ...

hum sab kabeer hain: ज़िंदगी का सफ़र

उच्चारण: "ग़ज़ल-सलीके को बताता है..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

स्वस्थ जीवन: Healthy life: साँस की बदबु:हँसी के कारण: "भले ही इंसान का व्यक्तित्व कितना ही अच्छा क्यों न हो मगर   उसकी एक कमी उसे लोगों के बीच हंसी का पात्र बना सकती है।" आज ...

Amrita Tanmay: सुनवाई चल रही है ...: अर्थ है तब तो अनर्थ है जिसपर व्याख्याओं की परतें हैं और उन परतों की कितनी ही व्याख्याएं हैं ... कहीं शून्य डिग्री पर उबलता-खौलता पा...

उच्चारण: "दीप अब कैसे जलेगा...?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘...: रौशनी का सिलसिला कैसे चलेगा ? आँधियों में दीप अब कैसे जलेगा ? कामनाओं का प्रबल सैलाब जब बहने लगा , भावनाओं का सबल आलाप ...

Wings of Fancy: 'अंश हूं तुम्हारा': जब जिन्दगी के किनारों की हरियाली सूख गई हो पक्षी मौन होकर अपने नीड़ों मे जा छुपे हों सूरज पर ग्रहण की छाया गहराती ही जा रही हो मित्र स...

Voice of Silent Majority: दोहे - गंगा

हरफ़े अख़तर: दिल पर तेरा नाम बहुत है: दिल पर तेरा नाम बहुत है  मुझ को ये इनाम बहुत है ! चूल्हा  ठंडा   जेबें    खाली  आज हमे आराम बहुत है! हाँ हाँ तुम यमदू...

उम्मीद तो हरी है .........: हल्ला बोल बे--------

मेरी धरोहर: फिर नदी के पास लेकर आ गयी...........अन्सार कम्बरी: फिर नदी के पास लेकर आ गयी मैं न आता प्यास लेकर आ गयी|   जागती है प्यास तो सोती नहीं और अपनी तीव्रता खोती नहीं वो तपोवन हो के...

Fursat Ke Raat Din: DAWANAL (Forest Fire) / दावानल ........: Unrequited love or one-sided love is not very rare in this world which is also inhabited by egotistic and headstrong individuals. Sometimes,...

उच्चारण: "संस्मरण-वो फस्ट अप्रैल" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्र...:      एक अप्रैल अन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस  यूँ तो   हर साल ही आता है। परन्तु मुझे इस दिन गुलबिया दादी की बहुत याद आती है।      बात आ...

मेरी ग़ज़लें, मेरे गीत/ प्रसन्नवदन चतुर्वेदी: जो जहाँ है परेशान है: आज एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे आप अवश्य पसन्द करेंगे, ऐसी आशा है... जो जहाँ है परेशान है । इस तरह आज इन्सान है। दिल में एक चोट गहरी-...


और अन्त में वन्दना तिवारी जी के शब्दों में एक अनूठी जानकारी-


'वन्दे सुधी मित्रों! 
हमारी भारत भूमि पर जन्मे महात्माओं/महापुरुषों ने स्वयं का ही जीवन नही संवारा बल्कि उनके विचारों से उनकी प्रेरणा से पूरा समाज क्या विश्व पल्लवित होता रहा है। जब-जब मन अशंत हुआ ऐसे ही शब्द रूपी विग्रह ने ढांढस बधाया और अग्रिम मार्ग प्रशस्त किया।आज ऐसी ही दिव्या आत्मा के प्रकाश के कुछ अश साझा कर रही हूं- 
एकबार 1898 ई. के ग्रीष्मकाल में स्वामी श्री विवेकान्द जी अपने परिकर के साथ भ्रमणरत थे, 3 जून को समाचार मिला कि उनके बायें हाथ', 'विश्वस्त' एवं शिष्य श्री जे.जे. गुडविन जी का देहान्त रात्रि में हो गया है।गुडविन एक कुशल आशिलिपिक थे। मर्मासहित स्वामीजी ने गहन शोक व्यक्त करते हुए गुडविन की माता को एक परिच्छेद सहित एक सहलाती हुई गुडविन को समर्पित एक कविता भेजी।फिर भगिनी निवेदिताकृत ग्रन्थ Notes On Some Wanderings के तृतीय अंक में द्रष्टव्य हुई।प्रस्तुत है सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा उसी कविता का काव्यानुवाद- 
आगे बढे ओ' आत्मन!
अपने नक्षत्र जड़ित पथ पर हे परम आनन्दपूर्ण!!
बढो,जहां मुक्त विचार है, 
जहाँ काल से दृष्टि धूमिल नहीं होती, 
और जहाँ चिन्तन शान्ति और वरदान है तुम्हारे लिए ! 
जहाँ तुम्हारी सेवा बलिदान को पूर्णत्व देगी, 
जहाँ श्रेयस् प्यार से भरे हृदयों मे तुम्हारा निवास होगा, 
मधुर स्मृतियाँ देश और काल की दूरियाँ खत्म कर देती हैं। 
बलिवेदी के गुलाबों के समान 
तुम्हारे पश्चात विश्व को आपूरित करेगी। 
 अब तुम बन्धनमुक्त हो, 
तुम्हारी खोज परमानन्द तक पहुंच गई, 
आब तुम उसमें लीन हो,
जो मरण और जीवन बन कर आता है, 
हे परोपकाररत! 
हे नि:स्वार्थ प्राण,आगे बढो! 
इस संघर्षरत विश्व को 
अब भी तुम सप्रेंम सहायता करो।'' (
ज्ञातव्य हो कि गुडविन के कारण ही स्वामीजी ते व्याखानों को ग्रंथाकार मे रक्षित कर पाना सम्भव हुआ था)! 
सादर!'

आज की चर्चा में बस इतना ही। अब बृजेश नीरज को आज्ञा दीजिए।

Monday 1 April 2013

मेरी संवेदना


आप सभी का मूर्ख दिवस पर हार्दिक स्वागत। होली के तुरन्त बाद ‘मूर्ख दिवस’ कुछ अलग ही रंग लेकर आया है। इस रंगे बिरंगे माहौल में साहित्य के कुछ रंग आपके समक्ष प्रस्तुत हैं-


1- मेरी संवेदना: होली और तुम्हारी याद

2- hum sab kabeer hain: प्रेम

3- मेरी धरोहर: मैं शरणार्थी हूं तेरे वतन में..........सुमन वर्मा: कितना दर्द है मेरे जिगर में गली-गली मैं जाऊं आग से ...

4- Kashish - My Poetry: ‘उजले चाँद की बेचैनी’- भावों की सरिता:     अपनी  शुभ्र चांदनी से प्रेमियों के मन को आह्लादित करता, चमकते तारों से घिरा उजला चाँद भी अपने अंतस में कितना दर्द छुपाये रहता ...

5- मेरी धरोहर: अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है .......काति...:   तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है  जीत ले जाये कोई मुझको नसीबों वाला ज़िन्दगी ने मुझे द...

6- ज़रूरत: विक्रम वेताल १०/ नमकहराम: आज होली पर राजा विक्रम जैसे ही दातुन मुखारी के लिए निकला वेताल खुद लटिया के जुठही तालाब के पीपल पेड़ से उतर कंधे पर लद गया दोनों न...

7- जोश में होश खोना | भूली-बिसरी यादें

8- मेरा रचना संसार: मैं तेरा कितना हुआ हूँ ये मुझे याद नहीं...: न जाने कैसे भुलाने लगे हैं लोग मुझे, गए दिनों में गिनाने लगे हैं लोग मुझे। मैं तेरा कितना हुआ हूँ ये मुझे याद नहीं, हाँ तेरी कसम...

Sunday 24 March 2013

किस किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा


- अकबर इलाहाबादी
किस-किस अदा से तूने जलवा दिखा के मारा
आज़ाद हो चुके थे, बन्दा बना के मारा

अव्वल बना के पुतला, पुतले में जान डाली
फिर उसको ख़ुद क़ज़ा की सूरत में आ के मारा

आँखों में तेरी ज़ालिम छुरियाँ छुपी हुई हैं
देखा जिधर को तूने पलकें उठाके मारा

ग़ुंचों में आके महका, बुलबुल में जाके चहका
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

सोसन की तरह 'अकबर', ख़ामोश हैं यहाँ पर
नरगिस में इसने छिप कर आँखें लड़ा के मारा
शब्दार्थ:
1.  अव्वल - पहले
2.  क़ज़ा - मौत
3.  सोसन - एक कश्मीरी पौधा

Friday 22 March 2013

छोड़ दि‍या हमने भी ....

छोड़ दि‍या हमने भी ....: (((...TODAY IS NO SMOKING DAY...))) चल.... आज अंति‍म बार तेरी याद को तेंदू पत्‍ते में भर कस कर  एक धागे से लपेट दूं और सुलगा के उसे लगा...

एक थी गौरैया .

Tere bin: अब की सजन मैं ..होली.....

रचनाकार: विजय शिंदे का आलेख - निरक्षरता से... मुक्ति तक का अद्भुत सफर

Shabd Setu: तेरा यह क्रमशः टूटना

ग़ज़ल गंगा: ग़ज़ल::   मिली दौलत , मिली शोहरत , मिला है मान उसको क्यों  मौका जानकर अपनी जो बात बदल जाता है  . किसी का दर्...

मेरा मन: पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

भूली-बिसरी यादें : कट गयी दीवार:   गर्दे हैरत से अट  गयी दीवार, आइना देख कट गयी दीवार।   लोग  वे मंजरों से डरा करते थे , अब के काया पलट गयी दीवार,  ...

Wednesday 20 March 2013

रूप-अरूप


इधर हालांकि बहुत समय नहीं दे सका फिर भी जितना भी समय मिल सका उसमें कुछ ऐसी रचनायें पढ़ने को मिलीं जो दिल को छू गयीं। ऐसी रचनाओं के लिंक आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं-


रूप-अरूप: यादों के फूल.....: मुझे बेहद पसंद है् पलाश के फूल...जब भी देखती हूं.....बि‍ना पत्‍ते के लाल-लाल.....दग्‍ध पलाश, मुझे लगता है इसके पीछे कोई ऐसी कहानी रही...

मेरी धरोहर: ये तो सोचो तुम्हारी बच्ची है..........अन्सार कम्बर...: थोड़ी झूठी है, थोड़ी सच्ची है हाँ ! मगर बात बहुत अच्छी है मैं तेरी उम्र बताऊँ कैसे थोड़ी पक्की है, थोड़ी कच्ची है तू है कैसी मैं...

Zindagi se muthbhed: अज़ीज़ जौनपुरी : मेरे चेहरे को अपना कहा कीजिए:     मेरे चेहरे को अपना कहा कीजिए                   मेरी   गजलों   को   थोड़ा   पढ़ा कीजिए           आईना  देख  शर्मा   फिर   हँसा  कीजिए...

रूप-अरूप: जलते कपूर सा मेरा प्रेम....: दीप्‍त..प्रज्‍जवलि‍त पान के पत्‍ते पर जलते कपूर सा मेरा प्रेम जो ति‍रना चाहता है अंति‍म क्षण तक जलना चाहता है और तुम चंचल नदी की तरह मुझ...

"घर के दरमियाँ" | भूली-बिसरी यादें

रूप-अरूप: बता दो अपनी यादों को.....: कौन करेगा हद मुकर्रर मेरी चाहत और तुम्‍हारी बेख्‍़याली की कि‍ चांद आकाश में  आज भी है पूरा और मैं तुम बि‍न अधूरी पढ़ा है मैंने अनाधिकार प...

स्वप्न मेरे...........: झलक ...

रचनाकार: प्रमोद भार्गव का आलेख - आतंकवाद का साया क्या भारत में अनंत काल तक मंडराता रहेगा?

Vyom ke Paar...व्योम के पार: लघुकथा-१: कहानी कहना मुझे बहुत अच्छा तो नहीं आता,लेकिन प्रयास कर रही हूँ , एक ऐसी शृंखला शुरू करने की जिस में  ऐसी बातें /घटनाएँ/किस्से  जो पहले स...

तमाशा-ए-जिंदगी: मेरी मृगतृष्णा: मेरी मृगतृष्णा अनंत काल की जन्मो जन्मो से तरसती है मैं कौन हूँ क्या हूँ  सब जानते हुए हर जन्म में नई मोह माया के उधड़े बुने जाल में...

उच्चारण: "गज़ल-भरोसा कर लिया मेंने" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्...: आज एक पुरानी डायरी मिली उसमें ये गज़ल मिल गई! आपके साथ साझा कर रहा हूँ बिना जाँचे-बिना परखे , भरोसा कर लिया मेंने   खुशनुम...

Tuesday 19 March 2013

संकलन


साहित्य के क्षेत्र में कई प्रयास चल रहे हैं। हिन्दी साहित्य को परिमार्जित और समृद्धशाली बनाने वाले इन प्रयासों को नमन करते हुए उनसे चुने कुछ लिंक्स यहां दिए जा रहे हैं। इन नवीन प्रयासों का आनंद लीजिए-






Thursday 7 March 2013

कुछ दोहे नीरज के


गोपालदास"नीरज"

 (1)
मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार
(2)
भारत माँ के नयन दो हिन्दू-मुस्लिम जान
नहीं एक के बिना हो दूजे की पहचान
(3)
बिना दबाये रस दें ज्यों नींबू और आम
दबे बिना पूरे हों त्यों सरकारी काम
(4)
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश
(5)
जब तक कुर्सी जमे खालू और दुखराम
तब तक भ्रष्टाचार को कैसे मिले विराम
(6)
पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष
(7)
कवियों की और चोर की गति है एक समान
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
(8)
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार
(9)
जब हो चारों ही तरफ घोर घना अँधियार
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्कार
(10)
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल
(11)
भूखा पेट जानता क्या है धर्म-अधर्म
बेच देय संतान तक, भूख जाने शर्म
(12)
दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन
(13)
गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्न
अगर ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न
(14)
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए
(15)
टी.वी.ने हम पर किया यूँ छुप-छुप कर वार
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार
(16)
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचार
तब से घर आते नहीं चिट्ठी पत्री तार
(17)
आँखों का पानी मरा हम सबका यूँ आज
सूख गये जल स्रोत सब इतनी आयी लाज
(18)
करें मिलावट फिर क्यों व्यापारी व्यापार
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार
(19)
रुके नहीं कोई यहाँ नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह् को कोई जाये शाम
(20)
ज्ञानी हो फिर भी कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास
(21)
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र
(22)
राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फोन
(23)
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय
(24)
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम
(25)
चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आकाश
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवास
(26)
सेक्युलर होने का उन्हें जब से चढ़ा जुनून
पानी लगता है उन्हें हर हिन्दू का खून
(27)
हिन्दी, हिन्दू, हिन्द ही है इसकी पहचान
इसीलिए इस देश को कहते हिन्दुस्तान
(28)
रहा चिकित्साशास्त्र जो जनसेवा का कर्म
आज डॉक्टरों ने उसे बना दिया बेशर्म
(29)
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप
(30)
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल
(31)
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय
(32)
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व
(33)
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार
(34)
सेज है सूनी सजन बिन, फूलों के बिन बाग़
घर सूना बच्चों बिना, सेंदुर बिना सुहाग
(35)
यदि यूँ ही हावी रहा इक समुदाय विशेष
निश्चित होगा एक दिन खण्ड-खण्ड ये देश
(36)
बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसान
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समान
(37)
चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आयु
इससे ज्यादा तेज़ तो चले कोई वायु
(38)
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश
(39)
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद
(40)
जब कम हो घर में जगह हो कम ही सामान
उचित नहीं है जोड़ना तब ज्यादा मेहमान
(41)
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी उतरे यार
(42)
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य
(43)
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट
(44)
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास
(45)
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल जान
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान
(46)
किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमार
सच कहकर जो झूठ को देता गले उतार
(47)
जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँव
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँव
(48)
अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ
(49)
दीपक तो जलता यहाँ सिर्फ एक ही बार
दिल लेकिन वो चीज़ है जले हज़ारों बार
(50)
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...