Tuesday 27 January 2015

लघुकथा- मिलन वार्ता

2015 और 2014 के उस एक क्षण के मिलन में 2015 ने 2014 से पूछा, "बड़े भाईआपका आशीर्वाद देंसाथ ही अपना अनुभव भी बताएँमुझे 365 दिनों का श्वास मिला हैये दिन कैसे काटूँ ताकि जीवन शांत और अर्थपूर्ण रहे|"

2015 ने कहा, "कोशिश करो कि प्रकृति और मानव के बीच एक सेतु बनो ताकि दोनों एक दूसरे से लाभान्वित होंउन सारे तत्वों को संभाल कर रखो जो कि मानव-जीवन के लिए उपयोगी हैंमानव की और अधिक चिंता मत करोउन्हें तुम्हारे 365 दिनों की उम्मीद देने वाले बहुत से हैंमानव एक दिन लड़ेगा और दूसरे दिन शांति की बात करेगाउसके लिए प्रकृति की सुरक्षा से अधिक आवश्यक है स्वयं का भोगउसके लिये ईश्वरीय शांति पाने से ज़रूरी है अपनी भड़ास निकालना और सत्कर्मों से अधिक आवश्यक है- मीठी-मीठी बातें करनाये सभी के सभी तुम्हारे दिनों का हवाला देकर होंगे|

लेकिनएक आवश्यक सच सदैव याद रखना कि तुम्हारे अंतिम दिवस पर कोई रोयेगा नहींकोई यह नहीं कहेगा कि तुमने  365 दिनों तक मानव का साथ दियाप्रत्येक व्यक्ति 2016 के स्वागत में ही खुशियाँ मनायेगायह तो मानव का कर्म हैपर तुम इस छोटी सी बात के लिए अपने धर्म से विमुख मत होना|"
                                               - चंद्रेश कुमार छतलानी 

Sunday 11 January 2015

संगीता शर्मा की कविता

             संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

पोषित पीठ 

क्यों सोचते हो तुम
तुम्हारी पीठ पर
कोई हो

क्या फ़र्क पड़ता है
इस बात से
कि कोई पोषित करे
तुम्हारी पीठ

क्या सिर्फ इसलिए
कि कोई न चढ़ बैठें
तुम्हारी छाती पर

पर क्यों नहीं सोचते तुम
बित्ती भर भी
कि किसी की छाती पर चढ़ना
इतना आसान नहीं

ग़र होता
तो
कर्म गौण
और
बल प्रधान
हो गया होता 

कल्पना रामानी के नवगीत

         कल्पना रामानी

धूप सखी 

धूप सखी, सुन विनती मेरी,
कुछ दिन जाकर शहर बिताना।
पुत्र गया धन वहाँ कमाने,
जाकर उसका तन सहलाना।

वहाँ शीत पड़ती है भारी।
कोहरा करता चौकीदारी।
तुम सूरज की परम प्रिया हो,
रख लेगा वो बात तुम्हारी।

दबे पाँव चुपचाप पहुँचकर,
उसे प्रेम से गले लगाना।

रात, नींद जब आती होगी
साँकल शीत बजाती होगी
छिपे हुए दर दीवारों पर,
बर्फ हर्फ लिख जाती होगी।

सुबह-सुबह तुम ज़रा झाँककर,
पुनः गाँव की याद दिलाना।

मैं दिन गिन-गिन जिया करूँगी।
इंतज़ार भी किया करूँगी।
अगर शीत ने मुझे सताया,
फटी रजाई सिया करूँगी।

लेकिन यदि हो कष्ट उसे तो,
सखी! साथ में लेती आना।  
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गुलमोहर की छाँव

गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।

ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।

जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।

फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।

भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की। 

बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।

खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।

फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती। 

कल्प-वृक्ष है यहीं उसे, पहचानें

और न कहना बाकी।

Saturday 10 January 2015

शोध पत्र

उपेन्द्रनाथ अश्क के नाट्य-साहित्य में चित्रित मध्यवर्गीय समाज की समस्याएँ
- तरूणा यादव
शोधार्थी (हिन्दी)
वनस्थली विद्यापीठ (राज.)

       साहित्य का विकास समाज सापेक्ष होता है। यह मानव की अत्यन्त रमणीय एवं सशक्त मानसी अनुभूति है। समाज की आधारभूत ईकाई परिवार है तथा परिवार की आधारभूत ईकाई व्यक्ति है। इस प्रकार व्यक्ति से परिवार तथा परिवारों के समूह से समाज बनता है। अतः समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए किया जाता है। परिवार से लेकर विश्वव्यापी मानव समूह तक को समाज की संज्ञा दी जाती है। विभिन्न शब्द कोशों में समाजशब्द के अर्थ को स्पष्ट किया है- संस्कृत कोश ग्रन्थ में- ‘‘समाज शब्द की उत्पत्ति समउपसर्ग पूर्वक अज् धातु से धज् प्रत्यय करने से होती है। (सम $ अज् $ धज्) जिसका अर्थ सभा, मण्डल, गोष्ठी, समिति या परिषद।’’
       नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार - ‘‘समाज का शाब्दिक अर्थ है समूह या गिरोह।’’ 
       साधारणतया उन सभी संगठनों के समूह को समाज कहा जाता है जिन्हें मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने जीवन को सुखी व पूर्ण बनाने के लिए निर्मित करता है।
       समाज में होने वाले परिवर्तन का साहित्य पर प्रभाव पड़ता है और साहित्य भी समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। आर्थिक आधार पर विभाजित समाज के वर्ग या श्रेणियाँ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से साहित्य के वस्तुतत्व को प्रभावित तथा निर्धारित करते हैं। मध्यवर्ग समाज का प्रमुख तथा व्यापक वर्ग होने के नाते साहित्य का भी केन्द्रीय वर्ग रहा है। साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में इस वर्ग के जीवन सम्बन्धी समस्याओं की अभिव्यक्ति हुई है। साहित्यकार ने मध्यवर्गीय जीवन तथा समस्याओं को ग्रहण कर समाज से सीधे जुड़ने का प्रयास किया है। अतः साहित्यकार स्वयं मध्यवर्ग से सम्बन्धित रहा है जिससे मध्यवर्गीय जीवन का समग्र रूप साहित्य क्षेत्र में उभर कर आया है।
       मंजुलता सिंह ने एक साहित्यकार की मनोवृतियों का वर्णन करते हुए कहा है- ‘‘मानव की परिस्थितियों एवं उसकी मनोवृतियों का संघर्ष मात्र दिखाकर ही आज के साहित्य का उत्तरदायित्व पूर्ण नहीं होता, परन्तु निरन्तर बदलते हुए बाहरी और भीतरी परिवेश से प्राप्त अनुभवों के फलस्वरूप जो परिवर्तन उत्पन्न होते हैं उन्हें भी साहित्यकार को चित्रित करना पड़ता है।’’  अतः साहित्य साहित्यकार के परिवेशगत जनजीवन की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं आदि का लेखा-जोखा है।
       मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्धित होने के कारण उपेन्द्रनाथ अश्क ने मध्यवर्गीय समाज से ही जुड़ी समस्याओं को अपनी रचना का विषय बनाया। उनके मध्यवर्गीय पात्र अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए परिवार और समाज से लड़ते हैं परन्तु असफल रहते हैं। बाह्य संघर्षों में असफल और क्षुब्ध होकर मध्यवर्ग का आक्रोश जीवन के हर पक्ष में दिखाई देता है। सामाजिक संगतियों-विसंगतियों, जीवनगत अभावों, जड़ताओं, जीवन मूल्यों एवम् विश्वास और उनके बनते-बिगड़ते सम्बन्धों से हमेशा ग्रस्त दिखाई देता है।
       उपेन्द्रनाथ अश्क का नाट्य-साहित्य पारिवारिक सम्बन्धों का अथाह सागर है। कहीं कोई सम्बन्ध मधुर है तो कहीं वही सम्बन्ध भी कटु हो उठा है। शिक्षा के प्रसार और पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन को गहरा आघात पहुँचाया है। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति की आत्मा कहे जाने वाले संयुक्त परिवार भी बिखर कर अलग हो गए। पारिवारिक बन्धनों एवं अनावश्यक औपचारिकताओं के कारण मध्यवर्गीय पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन में विश्वास की कमी हो जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि दाम्पत्य जीवन नीरस हो उठता है। एक पुरानी लोकोक्ति है कि जब तक दाँत मसूढ़ों से सटे होते हैं, तभी तक उपयोगी होते हैं, हिल जाने पर उखाड़ फेकना ही उचित होता है।
       मध्यवर्गीय समाज में दाम्पत्य जीवन की नीरसता एवम् कृत्रिमता का विद्रूप व्यंग्य अशोक के इस कथन में निहित है। मिस्टर अशोक - ‘‘चीख रहा हूँ। क्या कहूँ, बीस बार कहा कि भाई आराम करो। समय पर एक घड़ी का आराम बाद की एक वर्ष की मुसीबत से बचाता है। पर यह मानती ही नहीं, पर ज्यों ही मैंने बताया कि तुम्हारा खाना है। तो झट रसोई में जा बैठी मैं सब्जी लेने गया था- मेरे आते ही इन्होंने खीर बना डाली।’’  अशोक एक घुटन का शिकार है जिसकी तकलीफ बर्दाश्त से बाहर होने पर भी उसे सहकर मित्र के सामने अपने विवश दर्द को छिपाने के लिए जीवन की कृत्रिमता से संघर्ष कर रहा है। विसंगतिपूर्ण मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन की खुरदरी जिंदगी की इस त्रासदी को अशोक और राजेन्द्र ही भोग रहे हों, ऐसा नहीं है। कमोबेश समाज का हर तबका इन स्थितियों का शिकार है।
       उपेन्द्रनाथ अश्क ने विवाह और प्रेम की समस्या के सामाजिक पस-मंजर याने पृष्ठभूमि पर मध्यवर्गीय संस्कारों वाली स्त्री और पुरुष के चित्र खींचे हैं। मदन का विवाह यदि अनिच्छा से किया गया तो जातीय बन्धन का अभिशाप है तो दूसरी और एक अन्य नाटक कैदमें अप्पी का विवाह अवांछित है। विशेष परिस्थितियोंवश अप्पी का विवाह उसके प्रेमी से न होकर बहनोई से हो जाता है। अप्पी की घुटन आन्तरिक है। घुटन के इस जहर को पीकर भी अप्पी अन्दर-ही-अन्दर घुट कर न जी पाती है और न मर पाती है। मदन की भाँति पुनर्विवाह का साहस उसमें भी नहीं है, चूँकि भारतीय नारी के परम्परागत संस्कार उसकी चेतना को जकड़े हुए है। उसकी यह विवशता इन शब्दों में साकार हो उठी है- ‘‘हम गरीबों का क्या है, जहाँ बैठा दिया, जा बैठी।’’  वैवाहिक जीवन की इस असंगति ने अप्पी और प्राणनाथ के दाम्पत्य जीवन पर अवसाद और विषाद के घने कोहरे की एक चादर तान दी है।
       मध्यवर्गीय समाज में पुनर्विवाह के सम्बन्ध में स्त्री और पुरुष के दोहरे मानदण्ड देखने को मिलते है। पुरुषों को पुनर्विवाह की अनुमति हैै और स्त्री को नहीं। प्राणनाथ की पत्नी के मृत्यु के बाद उसका विवाह उसकी साली (अप्पी) सेे किया जाता है। जिसके कारण वह अभिशप्त जीवन व्यतीत करती है- ‘‘यदि मैं तुम्हारी बहन की मृत्यु के बाद दिल्ली न गया होता तो तुम्हारी हँसी-खुशी का सोता भी यो न सूख जाता और मेरे जीवन की पहाड़ी पर यांे गहरे धुंधलके न छा जाते।’’  अप्पी मध्यवर्गीय साहसहीन लड़कियों की तरह विवाह तो कर लेती है लेकिन अपने विसंगतिपूर्ण अनमेल दाम्पत्य जीवन की खुरदरी त्रासदी से समझौता नहीं कर पाती। अलग-अलग रास्तेके मदन की राह से गुजर कर यदि अप्पी परम्परागत सामाजिक मान-मर्यादाओं का दमन कर अपने प्रेमी दिलीप से पुनर्विवाह कर लेती तो निश्चय ही उसका मानस रोग स्वस्थता में बदल सकता था। सामाजिक लोकलाज एवं भय के कारण सुरेश और नीति का विवाह सम्पन्न नहीं होता और सुरेश गंगा में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। परम्परागत रूढ़ियों और संकीर्ण विचारों के कारण मध्यवर्गीय समाज में प्रेम और विवाह की समस्या एक ज्वलंत समस्या है। भारतीय मध्यवर्ग में अनेक कुरीतियाँ व्याप्त हैं उनमें वैवाहिक सम्बन्धी कुरीतियों में दहेज सबसे जटिल समस्या उभरकर सामने आया है- ‘‘दहेज की प्रथा प्रायः समाज के उच्च एवं मध्यवर्ग में पायी जाती हैं, लेकिन मध्यवर्ग में दहेज विवशता का प्रतीक हैं तो उच्च एवं अभिजात वर्ग में प्रदर्शन का।’’  ‘अश्कद्वारा रचित अलग-अलग रास्तेकी रानी का असंगतिपूर्ण दाम्पत्य जीवन दहेज-प्रथा की बलिवेदी का प्रसाद है। इच्छानुसार दहेज न मिलने के कारण ससुराल वाले रानी पर अमानुषिक अत्याचार करते है। ऐसे गर्हित पारिवारिक जीवन से ऊब कर रानी अपने पिता के घर से वापिस पति के घर जाने को किसी भी कीमत पर तैयार नहीं है। अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए जब पिता वर पक्ष की इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं तब रानी कहती है- ‘‘आप यह समझते हैं कि ये मकान मेरे नाम करके मुझ पर कोई उपकार कर रहे है? ये मेरे गले में सदा के लिए दासता की बेड़ी डाल रहे हैं। मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ रहने को विवश कर रहे हैं जिसके लिए मेरे मन में लेशमात्र भी सम्मान नहीं। मुझे फिर उस नरक में ढकेलना चाहते हैं, जहाँ मैं घुट-घुटकर अधमरी हो गयी हूँ।’’  त्रिलोक लोभवश रानी को ले जाने के लिए तैयार है परन्तु रानी धन-लोलुप पति के साथ नहीं जाना चाहती।
       वस्तुतः मध्यवर्गीय समाज में नारी की दयनीय स्थिति को उभारकर नाटककार ने दाम्पत्य जीवन की असंगतिपूर्ण विद्रूपताओं पर कसकता व्यंग्य किया है, जिसने अप्पी, राज और रानी जैसी न जाने कितनी नवयुवतियों के जीवन रस को छानकर जिदंगी को इतना खुरदरा बना दिया है कि वे उसकी खराद पर ठीक बैठना चाहकर भी नहीं बैठ पा रही और उसकी यही विवशता उसके दाम्पत्य जीवन की अभिशप्त त्रासदी बनकर उभर आती है।
       ‘उपेन्द्रनाथ अश्कके नाट्य साहित्य में धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता को उमाड़ने वाली पूँजीवादी मनोवृति और उसके पीछे नेता वर्ग की साजिशों का पर्दाफाश भी किया है। मुसलमानों की रक्षा करते हुए हिन्दू गुण्डे़ से मारा जाने वाला प्रधान पात्र घीसू मरते समय दांत पीस कर कहता है- ‘‘एक तूफान आ रहा है। जिसमें ये सब दादे, ये गुण्डे़, ये धर्म और जाति-पाति के दर्प, गरीबों का लोहू पीने वाले पूंजीपति, ये भोले-भाले लोगों को लड़वाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता-सब मिट जायेंगे।’’  ‘अश्कने मध्यवर्गीय जीवन में पूँजीवादी प्रभावों से उत्पन्न विशृंखलताओं और उच्छशृंखलताओं तथा उस जीवन के अन्तर्विरोधों के व्यंग्यात्मक चित्र उपस्थित करने के साथ-साथ जीवन के उदात्त मानवीय भावों का चित्र भी प्रस्तुत किया है। अश्कने मध्यवर्गीय जीवन की विभिनन समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उस वर्ग के तमाम अन्तविरोधों और उसके प्रतिगामी तत्वों का यथार्थ उद्घाटन किया है।


सन्दर्भ-सूची
वामन श्विराम आप्टे: (सं.) संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. सं. 1076
       नवल जी: (सं.) नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ. सं. 15
       मंजुलता सिंह: हिन्दी उपन्यासों में मध्यवर्ग, पृ. सं. 19
       उपेन्द्रनाथ अश्क: स्वर्ग की झलक नाटक, पृ. सं. 56-57
       वही, कैद और उड़ान नाटक, पृ. सं. 70
       वही, पृ. सं. 44
       डाॅ. स्वर्णलता तलवार: हिन्दी उपन्यास और नारी समस्याएँ, पृ. सं. 60
       उपेन्द्रनाथ अश्क: अलग-अलग रास्ते नाटक, पृ. सं. 112

       वही, तूफान से पहले एकांकी संग्रह, (तूफान से पहले एकांकी,              पृ. सं. 42)

अध्यात्म- आलेख


श्रीप्रकाश

प्रेम, ईश्वर और मनुष्य

मानवता की विकास यात्रा आदि से वर्तमान तक जिस रूप में प्रारंभ हुई थी उसका स्वरुप विभिन्न कालखण्डों में घटता-बढ़ता देखा जाता रहा है| अतीत का भाव प्रधान मनुष्य वर्तमान में बुद्धिप्रधान बन बैठा है| यही कारण है कि आज मनुष्य मानव कम, दानव अधिक है| महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है- “उनको कैसे समझा दूँ तेरे रहस्य की बातें, जो खुद को समझ चुकें हैं अपने विलास की घातें|”
अर्थात प्रेम का रहस्य साधारण मनुष्य से परे है, इसमें मुझे किंचित मात्र भी संदेह नहीं लगता| यदि प्रश्न करें कि क्या मानव प्रेम स्वरूप ईश्वर बन सकता है? तो हमें उत्तर मिलता है की मनुष्य प्रेम का स्वरुप अपनाता कहाँ है? प्रेम के भाव प्रधान होने के कारण उसमें न तो श्रद्धा की कमी होती है और न तो विश्वास का अभाव| प्रेम अँधा होता है| जिसे दिखाई नहीं देता उसे अपने पात्र में सब कुछ सकारात्मक ही दृष्टिगोचर होता है|
अब आप ही देखिए कि भगवान् राम को अतिशय प्रेमवश शबरी ने जूठे बेर ही खिला डाले और ईश्वरावतार प्रभु राम ने उसे सहर्ष खा भी लिया| प्रेम जोड़ता है अलगाव नहीं उत्पन्न करता, इसीलिए विवेकानंद ने प्रेम को ईश्वरीय संज्ञा देने में कोई संकोच नहीं किया|
प्रेम ही ईश्वर है| इस जगत में प्रेम को विद्वानों ने दो भागों में बांटा है- लौकिक और आध्यात्मिक| पारलौकिक प्रेम श्रद्धास्पद है जबकि लौकिक प्रेम के कई अर्थ हो जाते हैं जैसे अनुराग, राग, स्नेह आदि|
यहाँ पर हम प्रेम के विराट स्वरुप की चर्चा करना चाहेंगे जिसे कवि प्रसाद ने प्रेम पथिक में स्वीकार किया है “इस पथ का उद्देश्य नही है; श्रांत भवन में टिक रहना |” प्रेम में गति है, निरंतरता है, हलचल है, जीवन है, प्राण है तभी वह ईश्वर के निकट रह लेता है|
प्रकृति और पुरुष की संलग्नता जीवन को जन्म देती है| अकेली प्रकृति अस्तित्वहीन है| इसी प्रकार अकेला पुरुष शक्तिविहीन है| पुरुष जब तक प्रकृति के साथ प्रेम स्थापना नहीं करता, निष्प्राणता ही देखी जा सकती है|
अब प्रश्न उठता है कि प्रेम है क्या? उत्तर मिलता है- एक प्रकार का भाव जो मानव/जीव के अंतर्जगत में स्वाभाविक रूप से पनपता है| आध्यात्मिक प्रेम ईश्वरीय आभा से परिपूर्ण होता है तथा इसमें नष्ट होने की कोई गुंजाईश नहीं होती है|
सीय राम मय सब जग जानी कहकर संत कवि तुलसी ने विश्व प्रेम का परिचय दिया है वहीँ पर ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए कहकर कबीर ने प्रेम की विराटता का सन्देश विश्व में प्रसारित किया है| मानव ह्रदय का यही प्रेम भाव जब विराट फलक ले लेता है तब वह ईश्वर का स्वरुप बन जाता है जैसे भगवान बुद्ध, महावीर, कृष्ण आदि|
अब प्रश्न यह उठता है की क्या साधारण मनुष्य के ह्रदय में यह विश्व प्रेम उपज सकता है? उत्तर प्राप्त होता है- क्यों नहीं! आप उस स्थिति तक तो पहुँचिये| फिर प्रश्न उठता है कैसे पहुंचा जा सकता है? श्री मद्भगवदगीता में इसका योग साधना द्वारा स्पष्ट हल है|
दरअसल शरीर में स्थित स्व के दो पक्ष उद्घाटित हैं- एक मन, दूसरा आत्मा| जब तक आत्मा पर मन का शासन होगा तब तक हमारा दृष्टिकोण संकुचित रहेगा और जब मन पर आत्मा का शासन होगा तब दृष्टिकोण विराट होगा| यहीं से विश्व प्रेम की यात्रा प्रारंभ होती है| वेद कहता है कि यह शरीर एक रथ है, इसमें स्थित इन्द्रियाँ घोड़े हैं| मन-बुद्धि सारथी हैं और आत्मा सवार है|
मन को ड्राईवर न बनने दें| यदि मन ड्राईवर बनता है तो खंदक में गाड़ी जाना निश्चित है| जब आपके शरीर का ड्राईवर आत्मा होगी तो दिशा-निर्देश सही होगा, दृष्टिकोण बड़ा होगा| यहाँ इस जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है इन भौतिक आँखों से, वह सब नश्वर है, जो अंतर्जगत की आँखें देखती हैं वही ईश्वर है| आप अकेले हैं किन्तु आपका भाव जगत विराट है| जो स्थूल है उसी में सूक्ष्म तलाश कीजिए, निश्चित ही आप मानव से ईश्वर बनने की क्षमता उत्पन्न कर लेंगे|
जब आप स्वार्थी होंगे, तब प्रेम का संकुचित रूप आपके साथ होगा| जब आप परमार्थी होंगे तब प्रेम के विराट स्वरुप से आपका परिचय होगा जो जीवन और प्राणवत्ता की सम्पन्नता का सन्देश बिखेरेगा|
इस मामले में भारतीय दर्शन और वैदिक साहित्य हमें ज्यादा शिक्षा प्रदान करता है| अब एक प्रश्न पुनः उभरता है| आखिर मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? भोग-विलास करके मृत्यु को प्राप्त होना या फिर योग-विलास करके मुक्ति को प्राप्त करना|
आप हसेंगे मुक्ति! कैसी मुक्ति! जी हाँ मुक्ति, गीता कहती है- न मैं अतीत में हूँ, न भविष्य में| मैं सिर्फ वर्तमान में हूँ| मुझे वर्तमान में ही इस कार्यक्षेत्र में लड़ना है| वर्तमान, कैसा? वर्तमान अर्थात जो सदा विद्यमान रहे, वही सत्य है, जिसका स्वरुप हमें सदा देखने को मिले| वह क्या है? वह आत्मा के अंतर्जगत में स्थित परमात्मा है| उसके साथ प्रेम करना जीवन की सार्थकता है| आप कहेंगे कर्म में शून्यता आएगी| नहीं, कर्म करना तो शाश्वत सत्य है| परमात्मा भी निरंतर जीव से कर्म करवा रहा है इसलिए परमात्मसत्ता के साथ में लगाव (प्रेम करना) ही जीवन का सर्वोच्च प्रेम कहा जाएगा| यह प्रेम साकार में वात्सल्य, भक्ति के क्षेत्र में सेवक और मालिक- तुलसी का राम के प्रति, ज्ञान के क्षेत्र में निराकार के प्रति लगाव|
किसी योगी को प्रकृति की लीला जब साफ़ समझ में आने लगती है तो यह उसका आध्यात्म प्रेम ही कहा जाएगा| हिंदी साहित्य ने भी आदिकाल से आज तक प्रेम को अनुराग के रूप में विभिन्न रूपों में भोगा है|
ऊपर कहा जा चुका है कि प्रेम के मुख्यतः दो रूप होते हैं- लौकिक और आध्यात्मिक लेकिन लौकिक प्रेम के माध्यम से जब पारलौकिकता की अनुभूति हो जाती है तभी वह पूर्ण प्रेम माना जाएगा जैसे- लैला-मंजनू, शीरीं-फरहाद, भगवान् कृष्ण और राधा| सच्चे प्रेम में भोग नगण्य है, वह विराट होता है तभी मनुष्य ईश्वर बन जाता है और समाज को नयी दिशा प्रदान करने लगता है| कृष्ण और राधा का प्रेम प्रकृति और पुरुष का प्रेम है, शक्ति और शिव का प्रतीक है| पीछे कहा भी जा चुका है कि शक्ति के बिना शिव मात्र शव है|
पौराणिक मान्यता है कि आदि में ब्रह्म ही है, बाद में विष्णु जी के बाएँ अंग से लक्ष्मी जी का जन्म हुआ जो कि शक्तिस्वरूपा थीं| दर्शन के क्षेत्र में जीव-ब्रह्म और माया अथवा प्रकृति, जीव और परमसत्ता| त्रिदेव की मान्यतानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं| महेश (शंकर) के दो रूप हैं- एक कल्याणकारी और दूसरा संहराक प्रकृति; वह जब-जब विद्रोह करती है शिव उसे शांत करता है| काल की सीमा से परे उसका अस्तित्व है शायद!
कुछ लोगों की मान्यता है कि हम आदिम-हौवा की संतान हैं तो कुछ के अनुसार श्रद्धा और मनु की| ये सब अलग-अलग मत हैं| प्रेम का स्वरुप ईश्वरमय तभी बन सकता है जब हम सबमें ईश्वर के दर्शन करें| यह भारतीय मत है| अनेकता में एकता स्थापित करना भारतीय संस्कृति का मूल है, जिसका आधार प्रेम भावना ही तो है|

संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर-261203
ईमेल- sahitya_sadan@rediffmail.com


Wednesday 7 January 2015

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा का आलेख

आखिर कब तक
- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
थूकना एक आम प्रवृति है. प्रकृति के अनुसार प्रायः विजातीय द्रव्य को बाहर निकालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. प्रत्येक प्राणी के मुँह में लार बनती है जो पाचन क्रिया को दुरुस्त रखने का एक प्रमुख कारक है. खाना खाने में इसीलिए कम से कम ३२ बार चबाकर खाने को कहा जाता है कि एक तो जो पदार्थ हम खा रहे हैं वह अच्छी तरह चबाने से सूक्ष्म होगा, साथ ही मुँह की लार ग्रंथि से निकलने वाला द्रव (लार) अच्छी तरह से खाने वाले पदार्थ के साथ मिलकर भोज्य पदार्थ को आसानी से पचा देगा. प्रायः कुछ परिस्थतियों यथा व्रत/ रोजा जिनमें पानी का ग्रहण वर्जित होता है, को छोड़कर थूकना सामान्यतया विपरीत प्रक्रिया की श्रेणी में आता है. पशुओं को मैंने तो थूकते नहीं देखा, हाँ लार टपकाते अवश्य देखा है.
पहले आदमी आगे-पीछे देखकर थूकता था कि किसी के ऊपर पड़ न जाए. यदि अनजाने में किसी के ऊपर थूक पड़ जाए तो अति विनम्रता के साथ कई बार खेद प्रकट करते हुए क्षमा माँगता था, परन्तु आज की परिस्थतियाँ भिन्न हैं. पान खाए सैयाँ हमार, मलमल के कुरते पर छींट लाल लाल का मधुर गीत और कुव्याख्या आनंद देती है और अपने कुरते पर पड़ी छींटें कुरता पहनने वाले को गौरव का अहसास कराती थीं. सुखद आनंद, सुखद अनुभूति …? पान की पीक को मुँह में भरे गुलुल गुलुल बात करना, अंदाजे-बयां और ही है. पीक कितनी दूर जाएगी, यह भी कम्पटीशन होता था.
खैर, थूकिए, थूकने का मजा कुछ और ही है, विशेषकर जहाँ लिखा हो थूकना मना है उस स्थान पर. भवन की दीवार, जीने के कोने. वाह, वाह! चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने मिल जाएँगे. चित्रकारी के लिए वहाँ से नए-नए आइडिया मिल सकते हैं. चित्रकार भले ही आइडिया न ले पाए हों.
कुछ वर्षों पहले शायद आपने देखा और पढ़ा होगा की कुछ लोगों द्वारा थू थू अभियान चलाया गया था. प्रदर्शन का एक तरीका यह भी था. खैर, आजकल थूकना सामान्य प्रक्रिया के स्थान पर कौन कितना ज्यादा थूक सकता है एक सामयिक प्रतिस्पर्धा के रूप में चल रहा है. हालत तो यह हो गई है कि शरीर में ईश्वर कि व्यवस्था के अनुसार उपलब्ध कराई गई लार ग्रंथि अब प्राकृतिक कार्य के लिए कम पड़ रही है और लगता है कि आदमी अतिरिक्त लार ग्रंथि अपने शरीर में लगवा लिए हैं. यही नहीं, स्थिति यही रही तो ग्रंथियों का स्टाक कम पड़ेगा, तब आदमी को कारबोरेटर लगवाना पड़ेगा ताकि थूकने का माइलेज बढ़ सके और वह थूक प्रतियोगिता में हार न जाए. पद व गरिमा तो ताक पर रख दी गई. किसी का कोई लिहाज नहीं. स्वयं को आदमी अब नहीं देख रहा है कि वह क्या है, उसके स्वयं के कार्य कैसे हैं, वह क्या कर चुका है और आगे क्या करेगा. राष्ट्र का गौरव, समाज की संस्कृति, अपने पूर्वजों के संस्कारों कि इतनी अनदेखी. उसे भी अपने परिवार से ऐसा मिल रहा है या मिले, तो क्या होगा. अपने पर छींट भी पड़ जाए तो आत्मा तक व्यथित हो जाती है पर दूसरे पर पड़े तो क्या ? इतना थूका जा रहा है कि अब तो खिचड़ी ने भी पचना छोड़ दिया है. लार पेट में तो जा ही नहीं रही है. भूख इतनी बढ़ चुकी है कि जो भी मिले वो भी कम. बस निंदा ….निंदा …..परनिन्दा. कौन कितना किसी को अपमानित कर सकता है, नीचा दिखा सकता है, वही श्रेष्ठतम व्यक्ति कि श्रेणी में आता है, सम्मान पाता है, पद पाता है, अतिप्रिय और स्वामिभक्त माना जाता है. आदमी अपनी मेहनत, कौशल के बल पर नहीं बढ़ना चाहता. चाटुकारिता और निंदा के कुत्सित अस्त्रों से विजय प्राप्त करना चाहता है. यद्दपि अधिकांश लोग इसमें कदाचित सफलता प्राप्त कर रहे हैं पर क्या वह स्थाई रहेगी ?
तलवार बनी तो उसके लिए म्यान बनाई गई. जुबान के लिए ३२ दांत प्रहरी स्वरुप में प्रकृति ने निर्धारित किए. आशय यह कि धार का इस्तेमाल आवश्यकता पर ही किया जाए. कहीं यह धार अपने व समाज के लिए घातक न बने. वाणी पर नियंत्रण आवश्यक है. स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में इस्तेमाल करने में कोई आपत्ति किसी को नहीं, पर अभिव्यक्ति के अधिकार की प्राप्ति हेतु दायित्व निर्वहन प्रथम कर्तव्य है.

भवनों और सीढ़ियों के कोनों पर तो ईश्वर की टाइल्स लगाकर लोगों ने इन स्थानों पर तो थूकने से रोक लिया पर यह शरीर जिसमें ईश्वर का वास है, इस ईश्वर प्रदत्त मंदिर पर थूकने के प्रवाह पर रोकने हेतु कब विचार जाग्रत होंगे.

Tuesday 6 January 2015

हमारे रचनाकार- करीम पठान 'अनमोल'

करीम पठान अनमोल

जन्मतिथि- 19 सितंबर 1989
जन्मस्थान- सांचोर (जालोर)
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी)
लेखन विधाएँ- ग़ज़ल, गीत, कविता, दोहा, कहानी आदि विधाओं में लेखन
सम्प्रति- वेब पत्रिका 'साहित्य रागिनी' में प्रधान संपादक
प्रकाशन- ग़ज़ल संग्रह 'इक उम्र मुकम्मल' प्रकाशित (2013)
        विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित
पता- बहलिमों का वास, सांचोर
     (जालोर) राज. 343041
मो.- 09829813958
ई-मेल k.k.pathan.anmol@gmail.com

करीम पठान अनमोल की कविताएँ 

हाँ...मैं कवि हूँ

हाँ...मैं कवि हूँ
वेदना, विडंबना
और विरह की
धुंधली-सी
एक छवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ
जेठ दुपहरी में
नभ के माथे पर
अपने ही संताप में
तपता हुआ
संतप्त रवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ
जीवन-यज्ञ में
अभीष्ट की
कामना लिए
अंग-अंग
आहुत होता
स्वयं हवि हूँ
हाँ...मैं कवि हूँ

तीन क्षणिकाएँ तुम्हारे लिए

(1)
सुनो!
तुम्हारी कविता के शब्द
मेरी कलम का
हाथ थामकर
बहुत दूर
निकल जाना चाहते हैं
किसी ऐसी जगह
जहाँ वे अपने
दिल की बात
कह सकें मुझसे
बेझिझक
बिना रोक-टोक के

(2)
तुम्हें पता है?
तुम्हारी कविताओं के प्रतीक
बाक़ायदा
जीवित हो उठते हैं
कभी-कभी
जैसे 'चाँद' और मुझमें
कोई फ़र्क नहीं रहता
'जलता चिराग'
इंतज़ार की शक़्ल ले लेता है
'उदास शाम'
बेचैनी बन
मेरी रगों में दौड़ने लगती है

(3)
तुम
एक नदी
मेरे व्यक्तित्व के
समंदर में
ऐसे आ मिली
कि भर गया
मेरा सारा खालीपन
अब मैं मुकम्मल हूँ

तुम्हारा प्यार

तुम्हारा प्यार
एक सागर
जितना डूबता हूँ
उतना गहराता है

भरी रहती है
मेरी रूह
लबालब
इक मिठास से
वो मिठास
आती है
तुम्हारे अहसास से

कभी कभी सोचता हूँ
लिखूँ तुम पर
प्यार भरी कई कविताएँ
लेकिन
तुम्हारा प्यार
एक अहसास
जितना कहता हूँ
उतना ही अनकहा रह जाता है...


माँ..

माँ..
समस्त पृथ्वी पर
व्याप्त प्रेम
जिसकी गोद में आकर
प्रेम की
सभी परिभाषाएँ,
सभी सीमाएँ
समाप्त हो जातीं हैं

माँ..
दिल में बसा
एक कोमल अहसास
जिसके आगे
दुनिया की
सारी मिठास
फीकी पड़ जाती है

माँ..
हमेशा
पूरी होने वाली
एक दुआ
जो औलाद के साथ
क़दम-दर-क़दम
चलती रहती है

माँ..
पहली पाठशाला
जहाँ बच्चा
बोलना, हँसना,
रोना, खेलना के साथ
ऐसी बातें सीखता है
जो दुनिया की
किसी पाठशाला में
नहीं सिखाई जाती

माँ..
एक ऐसा शब्द
जिसे विश्व की
किसी भी भाषा में
परिभाषित
नहीं किया जा सकता

चाँद मिल गया है

ठण्ड रातभर
तापती रही
यादों का अलाव

फ़िक्र के धुएँ से
लाल हो गयी है
आँखें

सितारे
ठिठुरकर
बन गये हैं
ओस की बूँदें

पहर दर पहर
भेजा है
मैंने एक संदेश
तुम्हारे नाम

अभी तक
नींद
लौटी नहीं है
ख़्वाबों के पनघट से

अभी तक
मन
तुम्हारे सिरहाने
बैठा है
ताक रहा है
इसका भी मन
कब भरता है
तुम्हें देखने से

अभी अभी ही
अजां हुई है
अभी अभी ही
शंख बजा है
मंदिर में भी
सुनाई दी है
भोर की दस्तक

अभी अभी ही
इक पंछी ने
ख़बर सुनाई
तुम ठीक हो।

अभी अभी ही
खिल उठा है
उदास मौसम का
चेहरा

अब उठ जाओ!
दिन निकल आया है
अँधेरी सुरंग से बाहर

और
रात में खोया चाँद
मिल गया है

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...