Saturday 10 January 2015

अध्यात्म- आलेख


श्रीप्रकाश

प्रेम, ईश्वर और मनुष्य

मानवता की विकास यात्रा आदि से वर्तमान तक जिस रूप में प्रारंभ हुई थी उसका स्वरुप विभिन्न कालखण्डों में घटता-बढ़ता देखा जाता रहा है| अतीत का भाव प्रधान मनुष्य वर्तमान में बुद्धिप्रधान बन बैठा है| यही कारण है कि आज मनुष्य मानव कम, दानव अधिक है| महाकवि प्रसाद ने ठीक ही कहा है- “उनको कैसे समझा दूँ तेरे रहस्य की बातें, जो खुद को समझ चुकें हैं अपने विलास की घातें|”
अर्थात प्रेम का रहस्य साधारण मनुष्य से परे है, इसमें मुझे किंचित मात्र भी संदेह नहीं लगता| यदि प्रश्न करें कि क्या मानव प्रेम स्वरूप ईश्वर बन सकता है? तो हमें उत्तर मिलता है की मनुष्य प्रेम का स्वरुप अपनाता कहाँ है? प्रेम के भाव प्रधान होने के कारण उसमें न तो श्रद्धा की कमी होती है और न तो विश्वास का अभाव| प्रेम अँधा होता है| जिसे दिखाई नहीं देता उसे अपने पात्र में सब कुछ सकारात्मक ही दृष्टिगोचर होता है|
अब आप ही देखिए कि भगवान् राम को अतिशय प्रेमवश शबरी ने जूठे बेर ही खिला डाले और ईश्वरावतार प्रभु राम ने उसे सहर्ष खा भी लिया| प्रेम जोड़ता है अलगाव नहीं उत्पन्न करता, इसीलिए विवेकानंद ने प्रेम को ईश्वरीय संज्ञा देने में कोई संकोच नहीं किया|
प्रेम ही ईश्वर है| इस जगत में प्रेम को विद्वानों ने दो भागों में बांटा है- लौकिक और आध्यात्मिक| पारलौकिक प्रेम श्रद्धास्पद है जबकि लौकिक प्रेम के कई अर्थ हो जाते हैं जैसे अनुराग, राग, स्नेह आदि|
यहाँ पर हम प्रेम के विराट स्वरुप की चर्चा करना चाहेंगे जिसे कवि प्रसाद ने प्रेम पथिक में स्वीकार किया है “इस पथ का उद्देश्य नही है; श्रांत भवन में टिक रहना |” प्रेम में गति है, निरंतरता है, हलचल है, जीवन है, प्राण है तभी वह ईश्वर के निकट रह लेता है|
प्रकृति और पुरुष की संलग्नता जीवन को जन्म देती है| अकेली प्रकृति अस्तित्वहीन है| इसी प्रकार अकेला पुरुष शक्तिविहीन है| पुरुष जब तक प्रकृति के साथ प्रेम स्थापना नहीं करता, निष्प्राणता ही देखी जा सकती है|
अब प्रश्न उठता है कि प्रेम है क्या? उत्तर मिलता है- एक प्रकार का भाव जो मानव/जीव के अंतर्जगत में स्वाभाविक रूप से पनपता है| आध्यात्मिक प्रेम ईश्वरीय आभा से परिपूर्ण होता है तथा इसमें नष्ट होने की कोई गुंजाईश नहीं होती है|
सीय राम मय सब जग जानी कहकर संत कवि तुलसी ने विश्व प्रेम का परिचय दिया है वहीँ पर ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए कहकर कबीर ने प्रेम की विराटता का सन्देश विश्व में प्रसारित किया है| मानव ह्रदय का यही प्रेम भाव जब विराट फलक ले लेता है तब वह ईश्वर का स्वरुप बन जाता है जैसे भगवान बुद्ध, महावीर, कृष्ण आदि|
अब प्रश्न यह उठता है की क्या साधारण मनुष्य के ह्रदय में यह विश्व प्रेम उपज सकता है? उत्तर प्राप्त होता है- क्यों नहीं! आप उस स्थिति तक तो पहुँचिये| फिर प्रश्न उठता है कैसे पहुंचा जा सकता है? श्री मद्भगवदगीता में इसका योग साधना द्वारा स्पष्ट हल है|
दरअसल शरीर में स्थित स्व के दो पक्ष उद्घाटित हैं- एक मन, दूसरा आत्मा| जब तक आत्मा पर मन का शासन होगा तब तक हमारा दृष्टिकोण संकुचित रहेगा और जब मन पर आत्मा का शासन होगा तब दृष्टिकोण विराट होगा| यहीं से विश्व प्रेम की यात्रा प्रारंभ होती है| वेद कहता है कि यह शरीर एक रथ है, इसमें स्थित इन्द्रियाँ घोड़े हैं| मन-बुद्धि सारथी हैं और आत्मा सवार है|
मन को ड्राईवर न बनने दें| यदि मन ड्राईवर बनता है तो खंदक में गाड़ी जाना निश्चित है| जब आपके शरीर का ड्राईवर आत्मा होगी तो दिशा-निर्देश सही होगा, दृष्टिकोण बड़ा होगा| यहाँ इस जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है इन भौतिक आँखों से, वह सब नश्वर है, जो अंतर्जगत की आँखें देखती हैं वही ईश्वर है| आप अकेले हैं किन्तु आपका भाव जगत विराट है| जो स्थूल है उसी में सूक्ष्म तलाश कीजिए, निश्चित ही आप मानव से ईश्वर बनने की क्षमता उत्पन्न कर लेंगे|
जब आप स्वार्थी होंगे, तब प्रेम का संकुचित रूप आपके साथ होगा| जब आप परमार्थी होंगे तब प्रेम के विराट स्वरुप से आपका परिचय होगा जो जीवन और प्राणवत्ता की सम्पन्नता का सन्देश बिखेरेगा|
इस मामले में भारतीय दर्शन और वैदिक साहित्य हमें ज्यादा शिक्षा प्रदान करता है| अब एक प्रश्न पुनः उभरता है| आखिर मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? भोग-विलास करके मृत्यु को प्राप्त होना या फिर योग-विलास करके मुक्ति को प्राप्त करना|
आप हसेंगे मुक्ति! कैसी मुक्ति! जी हाँ मुक्ति, गीता कहती है- न मैं अतीत में हूँ, न भविष्य में| मैं सिर्फ वर्तमान में हूँ| मुझे वर्तमान में ही इस कार्यक्षेत्र में लड़ना है| वर्तमान, कैसा? वर्तमान अर्थात जो सदा विद्यमान रहे, वही सत्य है, जिसका स्वरुप हमें सदा देखने को मिले| वह क्या है? वह आत्मा के अंतर्जगत में स्थित परमात्मा है| उसके साथ प्रेम करना जीवन की सार्थकता है| आप कहेंगे कर्म में शून्यता आएगी| नहीं, कर्म करना तो शाश्वत सत्य है| परमात्मा भी निरंतर जीव से कर्म करवा रहा है इसलिए परमात्मसत्ता के साथ में लगाव (प्रेम करना) ही जीवन का सर्वोच्च प्रेम कहा जाएगा| यह प्रेम साकार में वात्सल्य, भक्ति के क्षेत्र में सेवक और मालिक- तुलसी का राम के प्रति, ज्ञान के क्षेत्र में निराकार के प्रति लगाव|
किसी योगी को प्रकृति की लीला जब साफ़ समझ में आने लगती है तो यह उसका आध्यात्म प्रेम ही कहा जाएगा| हिंदी साहित्य ने भी आदिकाल से आज तक प्रेम को अनुराग के रूप में विभिन्न रूपों में भोगा है|
ऊपर कहा जा चुका है कि प्रेम के मुख्यतः दो रूप होते हैं- लौकिक और आध्यात्मिक लेकिन लौकिक प्रेम के माध्यम से जब पारलौकिकता की अनुभूति हो जाती है तभी वह पूर्ण प्रेम माना जाएगा जैसे- लैला-मंजनू, शीरीं-फरहाद, भगवान् कृष्ण और राधा| सच्चे प्रेम में भोग नगण्य है, वह विराट होता है तभी मनुष्य ईश्वर बन जाता है और समाज को नयी दिशा प्रदान करने लगता है| कृष्ण और राधा का प्रेम प्रकृति और पुरुष का प्रेम है, शक्ति और शिव का प्रतीक है| पीछे कहा भी जा चुका है कि शक्ति के बिना शिव मात्र शव है|
पौराणिक मान्यता है कि आदि में ब्रह्म ही है, बाद में विष्णु जी के बाएँ अंग से लक्ष्मी जी का जन्म हुआ जो कि शक्तिस्वरूपा थीं| दर्शन के क्षेत्र में जीव-ब्रह्म और माया अथवा प्रकृति, जीव और परमसत्ता| त्रिदेव की मान्यतानुसार ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं| महेश (शंकर) के दो रूप हैं- एक कल्याणकारी और दूसरा संहराक प्रकृति; वह जब-जब विद्रोह करती है शिव उसे शांत करता है| काल की सीमा से परे उसका अस्तित्व है शायद!
कुछ लोगों की मान्यता है कि हम आदिम-हौवा की संतान हैं तो कुछ के अनुसार श्रद्धा और मनु की| ये सब अलग-अलग मत हैं| प्रेम का स्वरुप ईश्वरमय तभी बन सकता है जब हम सबमें ईश्वर के दर्शन करें| यह भारतीय मत है| अनेकता में एकता स्थापित करना भारतीय संस्कृति का मूल है, जिसका आधार प्रेम भावना ही तो है|

संपर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर-261203
ईमेल- sahitya_sadan@rediffmail.com


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