Wednesday 7 January 2015

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा का आलेख

आखिर कब तक
- प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
थूकना एक आम प्रवृति है. प्रकृति के अनुसार प्रायः विजातीय द्रव्य को बाहर निकालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. प्रत्येक प्राणी के मुँह में लार बनती है जो पाचन क्रिया को दुरुस्त रखने का एक प्रमुख कारक है. खाना खाने में इसीलिए कम से कम ३२ बार चबाकर खाने को कहा जाता है कि एक तो जो पदार्थ हम खा रहे हैं वह अच्छी तरह चबाने से सूक्ष्म होगा, साथ ही मुँह की लार ग्रंथि से निकलने वाला द्रव (लार) अच्छी तरह से खाने वाले पदार्थ के साथ मिलकर भोज्य पदार्थ को आसानी से पचा देगा. प्रायः कुछ परिस्थतियों यथा व्रत/ रोजा जिनमें पानी का ग्रहण वर्जित होता है, को छोड़कर थूकना सामान्यतया विपरीत प्रक्रिया की श्रेणी में आता है. पशुओं को मैंने तो थूकते नहीं देखा, हाँ लार टपकाते अवश्य देखा है.
पहले आदमी आगे-पीछे देखकर थूकता था कि किसी के ऊपर पड़ न जाए. यदि अनजाने में किसी के ऊपर थूक पड़ जाए तो अति विनम्रता के साथ कई बार खेद प्रकट करते हुए क्षमा माँगता था, परन्तु आज की परिस्थतियाँ भिन्न हैं. पान खाए सैयाँ हमार, मलमल के कुरते पर छींट लाल लाल का मधुर गीत और कुव्याख्या आनंद देती है और अपने कुरते पर पड़ी छींटें कुरता पहनने वाले को गौरव का अहसास कराती थीं. सुखद आनंद, सुखद अनुभूति …? पान की पीक को मुँह में भरे गुलुल गुलुल बात करना, अंदाजे-बयां और ही है. पीक कितनी दूर जाएगी, यह भी कम्पटीशन होता था.
खैर, थूकिए, थूकने का मजा कुछ और ही है, विशेषकर जहाँ लिखा हो थूकना मना है उस स्थान पर. भवन की दीवार, जीने के कोने. वाह, वाह! चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने मिल जाएँगे. चित्रकारी के लिए वहाँ से नए-नए आइडिया मिल सकते हैं. चित्रकार भले ही आइडिया न ले पाए हों.
कुछ वर्षों पहले शायद आपने देखा और पढ़ा होगा की कुछ लोगों द्वारा थू थू अभियान चलाया गया था. प्रदर्शन का एक तरीका यह भी था. खैर, आजकल थूकना सामान्य प्रक्रिया के स्थान पर कौन कितना ज्यादा थूक सकता है एक सामयिक प्रतिस्पर्धा के रूप में चल रहा है. हालत तो यह हो गई है कि शरीर में ईश्वर कि व्यवस्था के अनुसार उपलब्ध कराई गई लार ग्रंथि अब प्राकृतिक कार्य के लिए कम पड़ रही है और लगता है कि आदमी अतिरिक्त लार ग्रंथि अपने शरीर में लगवा लिए हैं. यही नहीं, स्थिति यही रही तो ग्रंथियों का स्टाक कम पड़ेगा, तब आदमी को कारबोरेटर लगवाना पड़ेगा ताकि थूकने का माइलेज बढ़ सके और वह थूक प्रतियोगिता में हार न जाए. पद व गरिमा तो ताक पर रख दी गई. किसी का कोई लिहाज नहीं. स्वयं को आदमी अब नहीं देख रहा है कि वह क्या है, उसके स्वयं के कार्य कैसे हैं, वह क्या कर चुका है और आगे क्या करेगा. राष्ट्र का गौरव, समाज की संस्कृति, अपने पूर्वजों के संस्कारों कि इतनी अनदेखी. उसे भी अपने परिवार से ऐसा मिल रहा है या मिले, तो क्या होगा. अपने पर छींट भी पड़ जाए तो आत्मा तक व्यथित हो जाती है पर दूसरे पर पड़े तो क्या ? इतना थूका जा रहा है कि अब तो खिचड़ी ने भी पचना छोड़ दिया है. लार पेट में तो जा ही नहीं रही है. भूख इतनी बढ़ चुकी है कि जो भी मिले वो भी कम. बस निंदा ….निंदा …..परनिन्दा. कौन कितना किसी को अपमानित कर सकता है, नीचा दिखा सकता है, वही श्रेष्ठतम व्यक्ति कि श्रेणी में आता है, सम्मान पाता है, पद पाता है, अतिप्रिय और स्वामिभक्त माना जाता है. आदमी अपनी मेहनत, कौशल के बल पर नहीं बढ़ना चाहता. चाटुकारिता और निंदा के कुत्सित अस्त्रों से विजय प्राप्त करना चाहता है. यद्दपि अधिकांश लोग इसमें कदाचित सफलता प्राप्त कर रहे हैं पर क्या वह स्थाई रहेगी ?
तलवार बनी तो उसके लिए म्यान बनाई गई. जुबान के लिए ३२ दांत प्रहरी स्वरुप में प्रकृति ने निर्धारित किए. आशय यह कि धार का इस्तेमाल आवश्यकता पर ही किया जाए. कहीं यह धार अपने व समाज के लिए घातक न बने. वाणी पर नियंत्रण आवश्यक है. स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के अधिकार के रूप में इस्तेमाल करने में कोई आपत्ति किसी को नहीं, पर अभिव्यक्ति के अधिकार की प्राप्ति हेतु दायित्व निर्वहन प्रथम कर्तव्य है.

भवनों और सीढ़ियों के कोनों पर तो ईश्वर की टाइल्स लगाकर लोगों ने इन स्थानों पर तो थूकने से रोक लिया पर यह शरीर जिसमें ईश्वर का वास है, इस ईश्वर प्रदत्त मंदिर पर थूकने के प्रवाह पर रोकने हेतु कब विचार जाग्रत होंगे.

2 comments:

  1. स्थान देने हेतु सादर आभार , आदरणीय

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  2. बहुत ही उपयुक्त आलेख ..प्रधान मंत्री के सफाई अभियान में एक कदम ... मैं भी व्यथित होता हूँ ऐसे लोगों को देखकर जो जहाँ तहां थूकते हैं साथ ही पान गुटखा आदि का निर्बाध उपयोग करते हैं...
    सादर!

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