Wednesday 12 July 2017

गोरख पाण्डेय की कविताएँ

तमाम विद्रूपताओं और अंधे संघर्षों के बावजूद जीवन में उम्मीद और प्यार के पल बिखरे मिलते हैं. इन्हीं पलों को बुनने वाले कवि का नाम है गोरख पाण्डेय. इनकी कविताओं में जीवन और समाज की सच्चाईयाँ अपनी पूरी कुरूपता के साथ मौजूद हैं लेकिन इनके बीच जीवन का सौन्दर्य आशा की किरण बनकर निखर आता है.  


प्रस्तुत हैं सौन्दर्य और संघर्ष के कवि गोरख पाण्डेय की कुछ कविताएँ-

सात सुरों में पुकारता है प्यार 
(रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर)

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

जोगी शिरीष तले
मुझे मिला

सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव

गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूँढ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बाँसुरी पर टेरता

जोगी देखते ही भा गया मुझे
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं ज़ात-पाँत
दर्द का एक राग
गाँवों और जंगलों को
गुंजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे माँ
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

ससुराल वाले आएँगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशक़ीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना, माँ
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पाकर

तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन

मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे ?


हे भले आदमियो!
  
डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने।
हे भले आदमियो!
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे?
हे भले आदमियों!
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं।



तटस्थ के प्रति  

चैन की बाँसुरी बजाइए आप
शहर जलता है और गाइए आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइए आप



फूल और उम्मीद

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।



समझदारों का गीत  
 
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया-धसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।



फूल  

फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई

ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुशबू हैं
जिसको कोई बाँध पाए नहीं

ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें।



रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
  
रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है

ऊँचे से ऊँचे उससे भी ऊँचे और ऊँचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है

गालिब-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है

ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाए तख़्ता पलटता जाए है।




समाजवाद  

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई



गुहार  

सुरु बा किसान के लड़इया चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
कब तक सुतब, मूँदि के नयनवा
कब तक ढोवब सुख के सपनवा
फूटलि ललकि किरनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे पसीवना से अन धन सोनवा
तोहरा के चूसि-चूसि बढ़े उनके तोनवा
तोह के बा मुठ्ठी भर मकइया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे लरिकवन से फउजि बनावे
उनके बनूकि देके तोरे पर चलावे
जेल के बतावे कचहरिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरी अंगुरिया पर दुनिया टिकलि बा
बखरा में तोहरे नरके परल बा
उठ, भहरावे के ई दुनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।


जनमलि तोहरे खून से फउजिया
खेत करखनवा के ललकी फउजिया
तेहके बोलावे दिन रतिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

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