Thursday, 12 December 2019

आलोचना का विपक्ष

साहित्य में ऐसे बहुत से लेखक कवि हैं, जिनका जन संघर्ष से दूर-दूर तक वास्ता नहीं। सरप्लस पूँजी से सैर- सपाटे और मौज-मस्ती करते हैं और अपने कमरे में बैठकर मार्क्स की खूब सारी किताबें पढ़कर जनचेतना का मुलम्मा अपने ऊपर चढ़ाते हैं। गोष्ठियों और मंचों पर  खूब भाषण देते हैं। भारतवर्ष में ऐसे नवबुजुर्वा लोकवादियों की कमी नहीं। ये मार्क्सवाद और लोक चेतना का चोला पहनकर अपनी गलत कमाई को सफेद  करना चाहते हैं। अपने पक्ष में एक माहौल बनाना चाहते हैं। ये पूँजीपतियों और सामंतों से कम खतरनाक नहीं है। इनका एक प्रमुख अभिलक्षण यह भी है कि ये केवल सत्ता का विरोध करते हैं, शोषक समाज का नहीं, क्योंकि यह उनके ही अंग होते हैं। लोक चेतना और वर्ग संघर्ष उनका मुखौटा है। उनका डीक्लासीफिकेसन एक छलावा है इसलिए हमारी लड़ाई केवल सत्ता और पूँजी  से नहीं, इन तथाकथित सफेदपोशों से भी है जो अपने  को वर्गविहीन कहकर हमें ठगते हैं।'' यह कथन इसी  आलोचना पुस्तक से है। इसी लोकधर्मी आलोचना की खराद में समकालीन हिंदी कविता के कवियों की कविताओं को रखा गया है। जो समकालीन हिंदी कविता के एक नये विमर्श को कविता  के  पाठकों  के  सामने  रखती  है |आज के  इस  चर्चित  आलोचक  का  पूरी  तरह  से  यह  मानना  है  की  ये  कवि  कविताओं  में या  तो  कलावाद  को मोमेंटम  प्रदान  करते  हैं या फिर  गद्य  लेखन  मार्क्सवाद , स्त्री  विमर्श  आदि  का  कोइ  न  कोइ  विचार  वितंडा  खड़ा  कर  अपने  को  सामने  लानें  का उपक्रम  करते  है  यह  तो  साहित्य  में  स्वयम  को  चर्चा  में  लाने  का सायास प्रयत्न  भर  है | निश्चय  ही सुशील कुमार  की  यह  आलोचना  पुस्तक  साहित्य  के  पाठकों  के  सामने  काव्य  आलोचना  के  महत्वपूर्ण   सवालों  को  लेकर  खड़ी  होती  है | यह  किताब  हाल  ही  में  लोकोदय प्रकाशन  लखनऊ  से  प्रकाशित  हुई  है |

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