Monday 10 November 2014

डमरू घनाक्षरी

(१)
सहजसफललखमतअचरजकरउसजनपरकरवरदसरसलख 
डगमगडगमगहरपगहरक्षणतबलखनभपररखउसपरनख 
तनमनधनतजबसभगवनभजसररजधररससरससरसचख 
हटचलभकधतमतकररतरहजलजजलसमबनवहमनरख 
कृतिकार
- डॉ.आशुतोष वाजपेयी 

(२)

जल बरसतडमरू घनाक्षरी

पवन बहन लग, सर सर सर सर,
जल बरसत जस झरत सरस रस
लहर लहर नद , जलद गरज नभ,
तन मन गद गद ,उर छलकत रस
जल थल चर सब जग हलचल कर,
जल थल नभ चर ,मन मनमथ वश।
सजन लसत,धन , करत पर,
मन मन तरसत ,नयनन मद बस

- डा. श्यामगुप्त 

हमारे रचनाकार- अरुन श्री


जन्म तिथि- २९.०९.१९८३
शिक्षा- बी. कॉम., डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
प्रकाशित कृतियाँ- मैं देव न हो सकूँगा (कविता संग्रह), परों को खोलते हुए (संयुक्त काव्य संग्रह), शुभमस्तु (संयुक्त काव्य संग्रह), सारांश समय का (संयुक्त काव्य संग्रह), गज़ल के फलक पर (संयुक्त गज़ल संग्रह)
पता- मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मोबाइल- 09369926999
ई-मेल- arunsri.adev@gmail.com

अरुन श्री की कविताएँ 

मैं कितना झूठा था !!

कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था!!!

तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी!
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से!
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी, न मैं!

एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग!
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी!

तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती!
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -
कि अभी बच्ची हो!
तुम तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती!

तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही, मैं कवि होने लगा!
तुम्हारी थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर!
मैं तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता!

एक करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -
सुबह उठते पूजाघर में छुपा आती तुम!
मैं उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर!

आरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग
दीवारें कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से!
मैं खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ!
दीवारों का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता!
हमने तब जाना कि एक रंग अँधेराभी होता है!

रात भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन!
तुम सुबह-सुबह काजल लगा लेती कि छुपा रहे रात का रंग!
मैं फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना!

मेरा दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गाँव के सत्ती चौरे पर!
तुम्हारी दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने!
उत्तरपुस्तिकाओं पर उसी कलम से पहला अक्षर टाँकता था मैं!
मैंने स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय!

तुमने काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम!
मैंने कहा कि मैं कभी नहीं लिखूँगा कविताएँ!

कितनी सच्ची थी तुम, और मैं कितना झूठा था!!!

अंतिम योद्धा

हाँ
मैं पिघला दूँगा अपने शस्त्र
तुम्हारी पायल के लिए
और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव
शोभा बनेंगे
किसी आक्रमणकारी राजा के दरबार की
फर्श पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा!

हाँ
मैं लिखूँगा प्रेम कविताएँ
किन्तु ठहरो तनिक
पहले लिख लूँ एक मातमी गीत
अपने अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी हिचकियों की लय पर
बहुत छोटी होती है सिसकारियों की उम्र

हाँ
मैं बुनूँगा सपने
तुम्हारे अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से
पर इससे पहले कि उस दीवार पर -
जहाँ धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल
जिनमें से झांक रहा है एक दागदार चाँद!
वहीं दूसरी तस्वीर में
किसी राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर!
- मैं टांग दूँ अपना कवच
कह आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने
मेरे छोटे भाइयों के लिए
मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा

हाँ
मुझे प्रेम है तुमसे 
और तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !

सुनो स्त्री!

सुनो स्त्री!
पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो!
और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते!

तेज हुई साँसों की लय पर थिरकती छातियाँ
प्रेम कहेंगी तुमसे -
संगीत और नृत्य के संतुलन को!
सामंजस्य जीवन कहलाता है!
(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)
सम्मोहन टूटते है अक्सर -
बर्तन फेकने की आवाजों से!

आँगन और छत के लिए आयातित धूप
पसार दी जाती है,
शयनकक्ष की मेज पर!
रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते हैं,
जब बुझ जाएगा तुम्हारी आँखों का सूरज!
(अगर डूबता तो फिर उग भी सकता था)

थोपी गई धार्मिक स्मृतियाँ विस्मृत कर देतीं हैं -
प्रतिरोध की आदिम कला!
इस घटना को आस्तिक होना कहा जाएगा!

तो सुनो स्त्री!
पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो!
बस, ह्रदय कर्ज़दार न हो
तुम्हारे कान गिरवी न रख दिए जाएँ!
(होंठ उम्र भर सूद चुकाते रहेंगे)
दूब ताकतवर मानी गई है,
कुचलने वाले भारी भरकम पैरों से!
बीच समुन्दर,
अकेला जहाज,
मस्तूल पर तुम!
तुम्हारे पंख सजावट का सामान नहीं हैं!
थोपी गई स्मृतियाँ नकार दी जानी चाहिए!

तय करना है

चाँद-सितारे, बादल, सूरज
आँख मिचौली खेल रहें हैं।
धरती खुश है,
झूम रही है।
झूम रहा है प्रहरी कवि-मन।
समय आ गया नए सृजन का।

खून सनी सड़कों पर-
काँटे उग आए हैं।
जीवन भाग रहा है नंगे पाँव
मगर बचना मुश्किल है।
सन्नाटों का गठबंधन-
अब चीखों से है।

हृदयों के श्रृंगारिक पल में
छत पर चाँद उतर आता है।
कवि के कन्धे पर सर रखकर
मुस्काता है।
नीम द्वार का गा उठता है
गीत प्यार के।

कविताएँ नाखून बढाकर
घूम रहीं हैं।
नुचे हुए भावों के चेहरे
नया मुखौटा ओढ़ चुके हैं।
अट्टहास करती है नफरत
प्यार भरी कुछ मुस्कानों पर।

अलग-अलग से दो मंजर हैं,
किसको देखूँ?

जुदा-जुदा सी दो राहें हैं,
क्या होगा-
मेयार सफर का?

तय करना है !

आवारा कवि

अपनी आवारा कविताओं में -
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन!
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध!
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ!
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम तो देह लिखता हूँ!
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना!

और जब -
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा!
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है!
रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र!
चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है!
चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आँगन में!
जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ!
बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ!

मैं तय नहीं कर पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी!
किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की!
आवारा लड़की को ढूँढते हुए मर जाता है प्रेम!
अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बाँधी गई पगड़ी में,
और लिखने लगता हूँ -
अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ!

लेकिन -
मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ!
प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से!
अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगाता कोई योद्धा!

दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं-
उस आवारा लड़की को भूल जाऊँगा एक दिन,
और वो दिन -
एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा!

Thursday 2 October 2014

रचनाकार

मधुकर अष्ठाना
जन्म- 27-10-1939
शिक्षा- एम.ए. (हिंदी साहित्य एवं समाजशास्त्र)
प्रकाशन- सिकहर से भिनसहरा (भोजपुरी गीत संग्रह), गुलशन से बयाबां तक (हिंदी ग़ज़ल संग्रह) पुरस्कृत, वक़्त आदमखोर (नवगीत संग्रह), न जाने क्या हुआ मन को (श्रृंगार गीत/नवगीत संग्रह), मुट्ठी भर अस्थियाँ (नवगीत संग्रह), बचे नहीं मानस के हंस (नवगीत संग्रह), दर्द जोगिया ठहर गया (नवगीत संग्रह), और कितनी देर (नवगीत संग्रह), कुछ तो कीजिये (नवगीत संग्रह) | इसके अतिरिक्त तमाम पत्र-पत्रिकाओं तथा दर्जनों स्तरीय सहयोगी संकलनों में गीत/नवगीत संग्रहीत |
सम्मान-पुरस्कार- अब तक 42 सम्मान व पुरस्कार
विशेष- ‘अपरिहार्य’ त्रैमासिक के अतिरिक्त संपादक, ‘उत्तरायण’ पत्रिका में सहयोगी तथा ‘अभिज्ञानम’ पत्रिका के उपसंपादक | कई विश्वविद्यालयों में व्यक्तित्व व कृतित्व पर लघुशोध व शोध |
वर्तमान में जिला स्वास्थ्य शिक्षा एवं सूचना अधिकारी, परिवार कल्याण विभाग, उ.प्र. से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन |
संपर्क सूत्र- ‘विद्यायन’ एस.एस. 108-109 सेक्टर-ई, एल.डी.ए. कालोनी लखनऊ |
उनके एक नवगीत की कुछ पंक्तियाँ-
जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |

सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे

थोपा गया
माथ पर पर्वत 
हमने कहाँ चुना |

Wednesday 1 October 2014

कविता क्या है- कुमार रवींद्र


     कुमार रवींद्र


कविता क्या है 
यह जो अनहद नाद बज रहा भीतर 

एक रेशमी नदी सुरों की 
अँधियारे में बहती 
एक अबूझी वंशीधुन यह 
जाने क्या-क्या कहती 

लगता 
कोई बच्ची हँसती हो कोने में छिपकर 

या कोई अप्सरा कहीं पर 
ग़ज़ल अनूठी गाती
पता नहीं कितने रंगों से 
यह हमको नहलाती 

चिड़िया कोई हो 
ज्यों उड़ती बाँसवनों के ऊपर 

काठ-हुई साँसों को भी यह 
छुवन फूल की करती 
बरखा की पहली फुहार-सी 
धीरे-धीरे झरती 

किसी आरती की 
सुगंध-सी कभी फैलती बाहर

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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