Thursday 5 December 2013

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


जन्म:- 15 सितंबर 1927
निधन:- 24 सितंबर 1983
जन्म स्थान:- बस्ती, उत्तर प्रदेश
प्रमुख  कृतियाँ:- काठ की घंटियाँ, बांस का पुल, गर्म हवाएँ, एक सूनी नाव, कुआनो नदी
कविता संग्रह खूँटियों पर टँगे लोग के लिये 1983 का साहित्य अकादमी पुरस्कार


एक छोटी सी मुलाकात
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


कुछ देर और बैठो
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।

शब्दों के जलते कोयलों की आँच
अभी तो तेज़ होनी शुरु हुई है
उसकी दमक
आत्मा तक तराश देनेवाली
अपनी मुस्कान पर
मुझे देख लेने दो

मैं जानता हूँ
आँच और रोशनी से
किसी को रोका नहीं जा सकता
दीवारें खड़ी करनी होती हैं
ऐसी दीवार जो किसी का घर हो जाए।

कुछ देर और बैठो  
देखो पेड़ों की परछाइयाँ तक
अभी उनमें लय नहीं हुई हैं
और एक-एक पत्ती
अलग-अलग दीख रही है।

कुछ देर और बैठो  
अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार
रगों को चीरती हुई
मेरी आत्मा तक पहुँच जाने दो
और उसकी एक ऐसी फाँक कर आने दो
जिसे मैं अपने एकांत में
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
लाख की तरह पिघला-पिघलाकर
नाना आकृतियाँ बनाता रहूँ
और अपने सूनेपन को 
तुमसे सजाता रहूँ।

कुछ देर और बैठो
और एकटक मेरी ओर देखो
कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है।
इस निचाट मैदान में
हवाएँ कितनी गुर्रा रही हैं
और हर परिचित कदमों की आहट
कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है।

कुछ देर और बैठो  
इतनी देर तो ज़रूर ही
कि जब तुम घर पहुँचकर
अपने कपड़े उतारो
तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको
और उसे पहचान भी सको।

कुछ देर और बैठो
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
उन्हें हट तो जाने दो - 
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
गिरने तो दो
समिधा की तरह
मेरी एकांत
समर्पित
खामोशी!

Wednesday 30 October 2013

देखता हूँ अंधेरे में अंधेरा


- नरेश सक्सेना 

लाल रोशनी न होने का अंधेरा

नीली रोशनी न होने के अंधेरे से
अलग होता है
इसी तरह अंधेरा
अंधेरे से अलग होता है।

अंधेरे को दोस्त बना लेना आसान है
उसे अपने पक्ष में भी किया जा सकता है
सिर्फ उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
भरोसा रोशनी पर तो हरगिज़ नहीं
हरी चीज़ें लाल रोशनी में
काली नज़र आती हैं
दरअसल चीज़ें
खुद कुछ कम शातिर नहीं होतीं
वे उन रंगों की नहीं दिखतीं
जिन्हें सोख लेती हैं
बल्कि उन रंगों की दिखाई देती हैं
जिन्हें लौटा रही होती हैं
वे हमेशा
अपनी अस्वीकृति के रंग ही दिखाती हैं

औरों की क्या कहूं
मेरी बायीं आंख ही देखती है कुछ और
दायीं कुछ और देखती है
बायां पांव जाता है कहीं और
दायां, कहीं और जाता है
पास आओ दोस्तों अलग करें
सन्नाटे को सन्नाटे से
अंधेरे को अंधेरे से और
नरेश को नरेश से।

Monday 14 October 2013

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की कविता

हिंदी दिवस 


जो अनुभूतियां 
कभी हम जीते थे 
अब उन्हीं के 
स्मृति कलश सजाकर
प्रतीक रूप में चुन चुनकर
नित दिवस मनाते हैं

परम्परा तो स्वस्थ है
भावनाओं के 
इस रेगिस्तान में
इसी बहाने
मंद बयार का एहसास
ये दिवस दे जाते हैं।


 
          प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

Tuesday 8 October 2013

शशि पुरवार की लघुकथा

 मानसिक पतन 
       भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और  आगे की सीट पर सामान रखा था कि  किसी के जोर-जोर से  रोने की आवाज आई, मैंने देखा  एक भद्र महिला छाती पीट -पीट  कर जोर-जोर से रो रही थी.
"
मेरा बच्चा मर गया...हाय क्या करूँ ........ कफ़न के लिए भी पैसे नहीं हैंमदद करो बाबूजी! कोई तो मेरी मदद करो! मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर......हाय मै  क्या करूँ!"
       उसका करूण  रूदन सभी के  दिल को बैचेन कर रहा था, सभी यात्रियों  ने पैसे  जमा करके उसे दिए,
"
बाई, जो हो गया उसे नहीं बदल सकते, धीरज रखो." 
"
हाँ बाबू जी, भगवान आप सबका भला करे. आपने एक दुखियारी की मदद की".....
       ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी. मुझसे रहा नहीं गया. मैंने सोचा पूरे  पैसे देकर मदद कर  देती हूँ, ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए. जल्दी से पर्स लिया और  उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी. पर जैसे ही बस के पीछे की दीवाल के पास  पहुँची तो कदम वहीं रूक गए.
       दृश्य ऐसा था कि  एक मैली चादर पर एक6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था. उस  महिला ने पहले अपने आंसू पोछेबच्चे की प्यारी सी मुस्कान के साथ बलैयां ली, फिर सारे पैसे गिने और  अपनी पोटली को  कमर में खोसा फिर  बच्चे से बोली- "अभी आती हूँ यहीं बैठना, कहीं नहीं जाना" और पुनः उसी  रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी.
       मैं अवाक् सी देखती रह गयी   थके क़दमों से पुनः अपनी सीट पर आकर  बैठ गयी. यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं. लोग  कैसे - कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए. बच्चे की इतनी बड़ी  झूठी कसम भी खा लेते है. आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन गया है .
         

                                           ------शशि पुरवार


                                         


जलगाँव (महाराष्ट्र)
पिन-- 425001 

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...