Sunday 18 August 2013

साहित्यिक अंजुमन में मानोशी का उन्मेष


      कविता सिर्फ भावाभिव्यक्ति नहीं होती बल्कि वह कवि की दृष्टि और अनुभूतियों से भी पाठक का परिचय कराती है। रचना में कवि का अस्तित्व तमाम बंधनों को तोड़कर बाहर प्रस्फुटित होता है। उसके द्वारा चुने गए शब्द उसके भावों को जीते हैं और उस चित्र को साक्षात पाठक के समक्ष जीवंत करते हैं जो कहीं दूर उसके मन के भीतर रचा-बसा और दबा होता है।
      छत्तीसगढ़ के कोरबा शहर में जन्मी और वर्तमान में कनाडा में रह रही नवोदित रचनाकार मानोशी का अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित कविता संग्रह ‘उन्मेष’ मुझे प्राप्त हुआ। बंगाली साहित्य ने उन्हें साहित्य के प्रति प्रेरित किया। गायन में संगीत विशारद की उपाधि प्राप्त चुकी मानोशी के गीतों में उनका संगीत ज्ञान स्पष्ट परिलक्षित होता है। गीतों में उनकी पकड़ इतनी सशक्त है कि भाव स्वयं शब्द का रूप लेकर अभिव्यक्त हो जाते हैं। यह उदाहरण देखें-
‘इक सितारा माथ पर जो, उमग तुमने जड़ दिया था
और भॅंवरा रूप बनकर, अधर से रस पी लिया था
उस समय के मद भरे पल, ज्यों नशे में जी रही हूँ'

      उन्मेष में संग्रहीत 30 गीतों, 21 गज़लों, 10 मुक्तछंद, 8 हाइकू रचनायें, 6 क्षणिकाएं और दोहों में कवियित्री के सृजन की विविधता के रंग बिखरे हैं।सभीविधाओंमेंइनकीकलमबहुतहीमजबूतीसेचलीहै।उन्हें विषयों के लिये श्रम नहीं करना पड़ता। अपने आस-पास के अनुभवों की उनके पास ऐसी विरासत है जो सहज ही उनकी रचनाओं में व्यक्त हो जाती है। विद्रुपताओं को भी उन्होंने एक सुन्दर रूप दिया है। वे कोई घिसा-पिटा मुहावरा लेकर नहीं चलतीं। उन्होंने प्रकृति की निकटता में जीवन की सच्चाइयों को बहुत ही सहजता से स्वीकार किया है। उनकी अनुभूतियों का पटल बहुत ही विस्तृत है। प्राकृतिक अनुभूतियों से लेकर जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं और दर्शन का स्पर्श पाठक को इनकी रचनायें पढ़ते समय होता है।
      प्राकृतिक सौंदर्य को जिस खूबसूरती से उन्होंने उकेरा है, उतनी गहनता और संलग्नता बहुत कम देखने को मिलती है। जैसे कोई चित्रकार कैनवास पर दृश्यों को उकेरता है, वही कार्य मानोषी ने अपनी कलम से किया है-
'भोर भई जो आँखें मींचे
तकिये को सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप'

      उनकी रचनाओं में भाषा और शिल्प सहज है। उनमें भाषा को लेकर विशेष आग्रह नहीं दिखता। सहजता से आए शब्द रचना के अंग हैं जो पाठक को अनुभूतियों के संसार में विचरण करने में सहायक हैं। प्रवाह में कोई भी शब्द बाधक नहीं बनता। सहज भाषा, सार्थक प्रतीकों और बिम्ब प्रयोगों ने रचनाओं की सम्प्रेषणीयता में वृद्धि की है। ये पंक्तियाँ देखें-
'सन्नाटे की भाँग चढ़ाकर
पड़ी रही दोपहर नशे में'

एक चटखारेदार उदाहरण और देखें-
'खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक कूक चिल्लाये'

      रचना में किसी पंक्ति की शुरूआत यदि कारक से की जाए तो आभास यह मिलता है कि किसी वाक्य को तोड़कर दो पंक्तियाँ बना दी गयी हैं। खासकर, गीतों में इससे बचने का प्रयास जरूर करना चाहिए लेकिन लेखन की सतत प्रक्रिया में इस तरह की चीजें रह ही जाती हैं-
'नंगे बदन बर्फ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में'

      भाव संप्रेषण इनकी विशेषता है लेकिन कहीं-कहीं भाव उस तेजी से नहीं पहुँचते। पाठक को रूकना पड़ता है, ठहरना और सोचना होता है।
'छटपट उसमें फॅंसी दुपहरी
समय काटने ठूँठ उगाती'

      अनुभूतियों के विविध आयामों को जिस तरह उनकी रचनाओं में स्थान मिला है वह उनकी रचनाओं और इस संग्रह की उपलब्धि है। उनकी रचनायें तार्किकता के आधार पर बजबजाती भावुकता को अपने से दूर धकेलती हैं। मिथकों को नकारते हुए उन्होंने जीवन के सत्य को स्वीकारा है-
'छूटे हाथों से खुशी, जैसे फिसले धूल।
ढूँढा अपने हर तरफ, बस इतनी सी भूल।'

उनकी छंदमुक्त रचनायें सीधे बात करती हैं, बिना कोई ओट लिए-
'घुटनों से भर पेट
फटे आसमाँ से ढक बदन
पैबंद लगी जमीं पर
सोता हूँ मैं आराम से।'

      भीतर की पीड़ा को उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रतिष्ठित कर समाज को दिशा देने की सफल चेष्ठा की है। जीवन के अस्तित्व के सवाल को बहुत खूबी के साथ उनकी रचना में उकेरा गया है। यथार्थ से परिचित कराती उनकी ये पंक्तियाँ-
'वो आखिरी बिंदु
जहाँ ‘मैं’ समाप्त होता है
‘तुम’ समाप्त होता है
और बस रह जाता है
एक शून्य।
आओ उस शून्य को पा लें अब।'

      जीवन के विभिन्न पहलू उनकी रचनाओं में बहुत प्रमुखता से उभरे हैं-
'तेरा मेरा रिश्ता क्या है
दर्द का आखिर किस्सा क्या है'

      उनका दर्द जब बयां होता है तो अपना सा लगता है। यह उनके रचनाकर्म की सशक्तता है।
'कहीं बहुत कुछ भीग रहा था।
हर पंखुड़ी पर जमा थीं कई
पुराने उघड़े लम्हों की दास्ताँ,
एक छोटा सा लम्हा टपक पड़ा'

मानोषी संघर्षों के सत्य को स्वीकारते हुए भी जीवन के प्रति सकारात्मक हैं।
'कुछ मिले काँटे मगर उपवन मिला
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला?'

एक और उदाहरण देखें-
'दो क्षण के इस जीवन में क्या
द्वेष द्वंद को सींच रहे हो'

सबसे कठिन दिनों के एकाकीपन को कितनी सुन्दरता से शब्द मिले हैं-
'जब माँगा था संग सभी का
तब कोई भी साथ नहीं था
अब देखो एकांत मनाने जग उन्माथ नहीं देता है'

अपने को पहचानने की छटपटाहट उनकी रचनाओं में भी मुखरित हुई है-
'और अकेले जूझती हूँ,
पहनती हूँ दोष,
ओढ़ती हूँ गालियाँ,
और फिर भी सर ऊँचा कर
ख़ुद को पहचानने की कोशिश करती हूँ'

      प्रकृति के सानिध्य में पकी और जीवन को करीब से जीती मानोशी की रचनायें पाठक को एक सुखद अनुभव दे जाती हैं।
      अंजुमन प्रकाशन ने इस पुस्तक को बहुत सुन्दर रूप दिया है। प्रूफ की कोई त्रुटि नहीं है। प्रिन्टिंग की गुणवत्ता बहुत ही उच्च कोटि की है। इसके लिए अंजुमन प्रकाशन विशेष तौर पर बधाई के पात्र हैं।
!! पुस्तक विवरण !! 
कवियत्री - मानोशी 
प्रकाशन वर्ष - 2013 
ISBN - 13 - 9788192774602 
पृष्ठ संख्या - 112 
बाईंडिंग - हार्ड बाउंड 
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद


                         -        बृजेश नीरज

Sunday 11 August 2013

अनुभूति मनोरम..

आदरणीय सुधीवृन्द सादर वन्दे! 
मित्रों सावन चल रहे हैं, ग्रामीण अंचल में जहाँ देखो हरियाली ही हरियाली... कहीं झूले पर गीत गाती किशोरियां तो कहीं हरी हरी चूड़ियां खनकाती वधुएं... मेंहदी की खुशबू से तो परिवेश ही महक रहा है। बहनें भाइयों के लिए हर दिन पूजा अर्चन कर उनकी कुशलता के विनय में तल्लीन हैं तो भाईयों के हृदय भी बहनों के लिए अगाध प्रेम छलका रहे हैं। तीर्थ स्थल की सड़कें, शिव जी के स्थान कांवरियों के श्रद्धा-रंगों से सराबोर है। वास्तव में कितना मनोरम है ये सब! इस परिवेश से आनन्दित होने के बाद एक प्रश्न अन्त:करण को कचोटता है कि कहीं शहरों की तरह गाँव से भी तो नहीं रम्यता छिन जाएगी?? यहाँ की भी आन्तरिक प्रफुल्लता कहीं औपचारिका में तो नहीं बदल जाएगी?? खैर.. जो भी समय आएगा हमें उसका पहलू तो बनना ही पड़ेगा! हमें विज्ञान-जनित साधनों में ही प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति करनी ही पड़ेगी। 
अब चलते हैं आपके ही साहित्यिक सूत्रों पर जो साहित्य को मनोरम बना रहे हैं-

असल में हर त्योहार या उत्सव को मनाने के पीछे के पारंपरिक तथा सांस्कृतिक कारणों के अलावा एक और कारण होता है, मानवीय भावनाओं का। चूँकि प्रकृत... 


रामदरस मिश्र दिन डूबा अब घर जाएँगे कैसा आया समय कि साँझे होने लगे बंद दरवाजे देर हुई तो घर वाले भी हमें देखकर डर जाएँगे आँखें ... 


हक़ किसी का छीनकर , कैसे सुफल पाएँगे आप ? बीज जैसे बो रहे , वैसी फसल पाएँगे आप।   यूँ अगर जलते रहे , कालिख भरे मन के...

नदी है तो आती है बाढ़ कभी कुछ नहीं होता कभी डूब जाता है सब कुछ। सलामत रहे तुलसी खिलता रहे ऑफिस टाइम तो समझो चकाच... 



आज फिल्म 'दूसरा आदमी' का एक गाना 'क्या मौसम है' जिसे 'किशोर दा, लता दी और मोहम्मद रफ़ी साहब' ने गाया है सुन रहा ...



 Those slanted clouds grey and black images and lines are you back? They look so familiar floating by I try to decipher ...

इस पावन महीनें मे कई ऐसी दुखद घटनाओं से भी हमारा सरोकार हुआ, जिन्हें याद करना भी हृदयविदारक लगता है। शक्ति को भी चुनौती देने वाले लोग आज जब समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो समाज की उन्नति की क्या आशा की जाए! हम शुभेच्छा रखते हैं कि आने वाला सप्ताह सुखद हो और शहीदों के परिवार को ईश्वर सांत्वना दे। 
अगले सप्ताह फिर मिलेगें आपके सृजन के साथ, तब तक आज्ञा दीजिए। नागपंचमी की ढेरों शुभकामनाओं के साथ नमस्कार! 
सादर!

Sunday 4 August 2013

रचनाशीलता की पहुंच कहाँ तक???

वन्देऽमातरम्... सुहृद मित्रों! 
आज का समय अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है। पूंजीवीदी विकास की अवधारण और वैश्वीकरण नें समाज में गहरी खांइयां डाल दी हैं। सदियों से हमारे देश की पहचान रहे गाँव, किसान हमारी अद्वितीय संस्कृति पर संकट के घनघोर बादल मंडरा रहे हैं। संस्कृति जिसके बूते हमारे राष्ट्र की पताका विश्व में फहराया करती थी, आज... पाश्चात्य के अन्धेनुकरण की दौड़ में रौंदी जा रही है। जब सभी मनोरंजन के साधन उबाऊ सिद्ध हो रहे है।ईमानदार, नि:सहाय और आदमी की सुनने वाला कोई नहीं रहा। ऐसे अराजक और मूल्यहीन विकृत मंजर में दर-दर से ठुकराई दमन के हाशिए पर खड़ी आत्मा की अन्तिम शरणस्थली बचती है तो एकमात्र साहित्य! आज की साहित्य-धर्मिता में ऐसी क्षमता है जो इस स्थिति में मानव-हृदय को सहलाने वाला साहित्य प्रस्तुत कर सके? ये एक यक्ष प्रश्न है। आज के साहित्य में क्या ऐसे नि:सहाय पात्रों को स्थान मिलता है? क्या उन दमित आवाजों को उजागर कर सकता है जिनका सुनने वाला कोई नहीं? ऐसे कई प्रश्न साहित्य-धर्मिता/रचनाशीलता के पल्ले में हैं। मुंशी प्रेमचंद ने कहा है-''साहित्य की गोद में उन्दे आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय हैं,जो पतित हैं, जो अनादृत हैं।' साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पढ पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है, मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है, टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। क्या आज का साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है? पर क्या कारण है जो 100 वर्षों से अधिक हो गया है भारतीय साहित्य नोबेल पुरस्कार पर अधिकार नहीं कर सका। ऐसी बात नहीं आज उत्कृष्ट साहित्य-धर्मिता मृतप्राय हो गई है लेकिन कमी अवश्य आई है। आइये अनुमोदन करते हैं आज की रचनाशीलता का, इन सूत्रों के साथ- 


'समय के चित्रफलक पर ' श्री प्रकाश मिश्र जी का काव्य-संग्रह है । मेरा विश्वास है कि आप में से कई जानते भी हों कि...


{अगीत-- अतुकांत कविता की एक विधा है  जो ५ से १० पंक्तियों के अन्दर कही गयी लय व गति, यति से युक... 

A letter from heaven To my dearest family, some things I’d like to say, But first of all to let you know that I arrived okay. ...

एक अधूरे ख्वाब की,
 पूरी रात है.....मेरे पास... तुम हो ना हो, 
तुम्हे जीने का एहसास है.....मेरे पास........ 

अक्सर …. ज़िन्दगी की तन्हाईयो में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ; 
 तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये  नज़र आते है ..   
 एक तुम... 

पूर्वाभास: सरस्वती माथुर की तीन कविताएँ


खुशी है, गाँव अपने जा रहा हूँ 
 महक मिट्टी की सोंधी पा रहा हूँ 
 डगर पहचानती है, साथ हो ली... 

भारतीय नारी: मित्रता एक वरदान !-HAPPY FRIENDSHIP DAY
मित्रता एक वरदान !                                     
 मित्रता का भाव मानव के लिए वरदान है ; 
 जो नहीं ये जानता वो मूर्ख है; नादान है ....

 आज समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधन उपलब्ध हैं,परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तम साहित्य ही है। आज मैंने उभरते हुए साहित्यकारों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, इसलिए आपसे करबद्ध निवेदन है कि टिप्पणी के रूप में मात्र 'अच्छे लिंक्स' के बजाय इस विषय पर अपनी अमूल्य राय के रूप में दो शब्द भी लिखेंगे तो मैं स्वयं को धन्य मानूंगी। 
 सादर शुभेच्छा!

Sunday 28 July 2013

धर्म संगम

शुभम् सुहृद मित्रों...
दोस्तों रमज़ान चल रहे हैं, मुस्लिम भाइयों का पवित्र महीना, धर्म कोई भी हो सभी की मूल शिक्षाएं लगभग वही हैं। अब हम किसी धर्म या संस्कृति को प्रतिष्ठा का विषय मान बैठें तो हमारी अज्ञानता ही तो है। हम 'सत्य' को ही ले लें, तो सभी धर्म सभाषी हैं।
हमारा सनातन धर्म कहता है-
''स वै सत्यमेव वदेत् । एतद्धवै देवा''
शतपथ ब्राम्हण (अर्थात् सत्य का अनुशीलन करने वाले देवत्व को प्राप्त होते हैं। 
वहीं पवित्र इस्लाम कहता है- 
''वला तक़ूलूऽअलऽऽलू अल्लाहि-इल्लऽऽल्हक्क'' 
क़ुरान शरीफ ४/१७९ (अल्हाह की शान में कभी झूठ का प्रयोग मत करो, सदैव सच बोलो।  
सिख धर्म की बात करें तो गुरुनानक जी के वचन हैं- 
 ''रे मन डीगि न डोलियै सीधे मारग धाओ। 
पाछे बाधु डराउणा आगै अगिनि तलाओ।।'' 
बौद्धों का भी मत है- 
''एकं धम्मं अतीतस्स मुसावादिस्स जन्तुनो।'' 
Bible की सुनें तो- 
''Great is truth and might above all things'' 
अन्य धर्म ऐसी ही प्रतिध्वन करते हैं, मतलब सभी धर्म एक ही है, इसलिए सभी धर्मों के लिए समान निष्ठा के साथ चलते हैं, आज के चुनिंदा सूत्रों पर- 


हम जब मथुरा भ्रमण के लिए गए थे तो हमें वहां गाइड और अन्य लोगों से यह जानकारी मिली थी कि अभी भी प्रतिदिन रात को निधि वन में कृष्ण आते हैं... 

उस जगह पर ले चलो जिस जगह पर छांव हो प्रकृति रूनझुन खग की गुनगुन धरती हरित भाव हो खिल उठें पुष्प ... 

बच्चे ही देश के भविष्य हैं. उनके ‘चरित्र निर्माण’ की जिम्मेवारी पैरेंट्स की है. 
ऐसे में बच्चों के सामने पैरेंट्स को आदर्श बनना होगा. ...

मैं डरा-डरा सहमा सा  शाम के धुंधलके में.........  
जैसे ही अपने 'आज' को  पोटली में समेटकर  चार कोस आग...

इन शब्दों को क्या कहूँ....
कभी खुद के लिखे शब्द जख्म दे जाते है....... 
जो हम कहते नही खुद से, 

मेरा घर    
 कहते है  घर गृहणी का होता है  
 लेकिन यह सच नहीं 

मन के आकाश के विभिन्न रंग ------ 

तेरे लिए   

तलाश मेरे ‘मैं’ की ... 
हम के हुजूम में सब 'मैं' होते हैं 
हम कोई आविष्कार नहीं करता  
हाँ वह 'मैं' को अन्धकार दे सकता है
  
एक ही हल 'शून्य' 
'यहाँ' सब कुछ, 
जो पाया जा सकता है पलक झपकते ही खो जाता है, 
इतनी जल्दी कि तुम उसकी एक रेखा भी ढूढ़ पाने में रह जाते हो असमर्थ;... 

चंपा के फूल 

जिसे देख सारे दुख जाते थे भूल मुरझाये 
आज वही चम्पा के फूल आसमान से बरसा पानी या आग जो कभी न सोये वह पीर गयी जाग नाव बही हवा चली कितनी...

धुंध में डूबा ग्रीष्माकाश 

जुलाई अगस्त के महीने मध्यपूर्व में गर्मी के होते हैं। 
कभी ऐसी गर्मी देखी है जब आसमान कोहरे से ढक जाए?   

ईश्वर / मनुष्य / प्रकृति (तीन कवितायें ) 

ईश्वर उसकी आँखें खुली समझ   
उसके लिए एक नारियल फोड़ दो एक बकरा काट दो, 
उसकी आँखें बंद समझ डंडी मार लो, 
बलात्कार कर लो या गला र...

... अन्त भी क़ुरान शरीफ़ की पवित्र पंक्तियों से, उर्दू लिखना तो आता नहीं इसलिए उच्चारण के अनुसार हिन्दी में प्रयास करती हूं- 
व ज़रू ज़ाहिरडल् इस्मि व बातिनहू, 
इन्नडल्लज़ीन यक्सबूनचल्इस्म सपुज़्ज़ौन बिमा, 
कानू पक्तरिफ़ून। 
अर्थात पाप का प्रतिफल इन्सान को अवश्य भोगना पड़ता है, इसलिए अपने बाह्य और आन्तरिक दुष्कर्मों का परिष्कार करें। 
नमाज़ और उर्दू के जानकार भाई बताएंगें, सही है न? 

रमजान की शुभकामनाओं के साथ... 
ख़ुदा हाफ़िज!

Thursday 25 July 2013

अकाल-दर्शन

             - धूमिल


भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा
'
बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं'
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहाहँसता रहाहँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
'
जनता के हित में' स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझायायार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे भूख मिट रही है, मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन...
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं
'
भारतवर्ष नदियों का देश है।'

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है
कभी 'गाय' से
कभी 'हाथ' से

'
यह सब कैसे होता है' मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

ले चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति
यहाँ के असंग लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के
हाथों की जूजी है।

Friday 19 July 2013

निर्झर टाइम्स 19 - जुलाई


प्रस्तुतकर्ता : सरिता भाटिया


प्रस्तुतकर्ता : रविकर


प्रस्तुतकर्ता : Virendra Kumar Sharma


प्रस्तुतकर्ता : सुशील


प्रस्तुतकर्ता : Shashi Purwar 
 
प्रस्तुतकर्ता : Mukesh Kumar Sinha
प्रस्तुतकर्ता : Shikha Kaushik
प्रस्तुतकर्ता : Shashi Purwar
प्रस्तुतकर्ता : संगीता स्वरुप ( गीत )
प्रस्तुतकर्ता : Ranjana Verma

Monday 15 July 2013

झाड़खंड का दुर्भाग्य !

१५ नवम्बर २००० को बिहार के प्राकृतिक संसाधन से भरपूर वनांचल क्षेत्र को झारखण्ड नाम देकर अलग कर दिया गया. तर्क यह दिया गया कि छोटे राज्य होने से विकास की संभावनाएं बढ़ेगी. अधिकांश उद्योग धंधे और खनिज सम्पदा इसी क्षेत्र में है, बिहार का बाकी हिस्सा मैदानी इलाका है, जहाँ कृषि पैदावार अच्छी होती है.
वस्तुत: राजनैतिक स्तर पर 1949 में जयपाल सिंह के नेतृत्व में झारखंड पार्टी का गठन हुआ जो पहले आमचुनाव में सभी आदिवासी जिलों में पूरी तरह से दबंग पार्टी रही। जब राज्य पुनर्गठन आयोग बना तो झारखंड की भी माँग हुई जिसमें तत्कालीन बिहार के अलावा उड़ीसा और बंगाल का भी क्षेत्र शामिल था। आयोग ने उस क्षेत्र में कोई एक आम भाषा न होने के कारण झारखंड के दावे को खारिज कर दिया। 1950 के दशकों में झारखंड पार्टी बिहारमें सबसे बड़ी विपक्षी दल की भूमिका में रहा, लेकिन धीरे धीरे इसकी शक्ति में क्षय होना शुरु हुआ। आंदोलन को सबसे बड़ा आघात तब पहुँचा, जब 1963 में जयपाल सिंह ने झारखंड पार्टी को बिना अन्य सदस्यों से विचार विमर्श किये कांग्रेस में विलय कर दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप छोटानागपुर क्षेत्र में कई छोटे-छोटे झारखंड नामधारी दलों का उदय हुआ जो आमतौर पर विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करती थी और विभिन्न मात्राओं में चुनावी सफलताएँ भी हासिल करती थीं।
१५ नवम्बर २००० से १८ मार्च २००३ तक भाजपा के बाबूलाल मरांडी झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे. बाद में पार्टी में आतंरिक विरोध के चलते बाबूलाल मरांडी को कुर्सी छोड़नी पड़ी और अर्जुन मुंडा को मुख्य मंत्री बनाया गया. इसके बाद शिबू सोरेन मात्र दस दिन के लिए मुख्य मंत्री बने, और समर्थन नहीं जुटा पाने के कारण इस्तीफ़ा देना पड़ा. फिर अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन, राष्ट्रपति शासन, शिबू सोरेन, राष्ट्रपति शासन, अर्जुन मुंडा और फिर राष्ट्रपति शासन. अब उम्मीद है कि शिबू सोरेन के पुत्र हेमंत शोरेन कांग्रेस के समर्थन से झारखण्ड के मुख्य मंत्री बनने वाले हैं, मतलब कुल १३ साल के ही अन्दर इस राज्य को तीन बार राष्ट्रपति शासन और नौ मुख्य मंत्री को झेलना पड़ा.
शिबू सोरेन का दुर्भाग्य या अति महत्वाकांक्षा ही कहा जायेगा कि झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, झारखण्ड आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के बाद भी वे मुख्य मंत्री के रूप में ज्यादा दिन स्वीकार नहीं किये गए. इन्हें इस क्षेत्र का गुरूजीभी कहा जाता है. इन्हें दिशोम गुरुकी उपाधि से भी नवाजा गया है. शिबू सोरेन ने झारखण्ड आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. कई बार सांसद और मंत्री भी बने. पर हमेशा विवादों में रहे. नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए इन्होने अपने पांच सांसदों के साथ घूस भी लिया था. साथ ही कई हत्याकांडों में आरोपित रहे, सजा भी काटी, बीमार भी रहे, पर पुत्र-मोह में अभी वे धृतराष्ट्र को भी मात देने वाले हैं.
उनके सुपुत्र झारखण्ड के मुख्य मंत्री तो आगामी १३.०७.१३ को बन जायेंगे, पर इसके लिए उन्हें कितना समझौता करना पड़ा है, यह तो धीरे धीरे सामने आने ही वाला है. कांग्रेस इन्हें पूरी तरह से चंगुल में ले चुकी है और हेमंत सोनिया के काल्पनिक गोद में बैठ चुके हैं. झारखण्ड विकास पार्टी के सांसद डॉ. अजय कुमार विधायको के खरीद फरोख्त का आरोप लगाते हुए, प्रधान मंत्री और राष्ट्रपति तक को चिट्ठी लिख चुके हैं. उनके अनुसार करोड़ो में बिकने वाले विधायक जनता का क्या काम करेंगे, यह बात किसी के समझ से बाहर नहीं है.
अब तक जितनी पार्टियों की सरकारें यहाँ बनी है सभी ने झारखण्ड का भरपूर दोहन किया है. विकास के नाम पर प्रगति- जीरो. आदिवासियों की हालत और बदतर हुई है, नक्सल आतंक बढ़ा है, उद्योगपतियों, ब्यावासयियों, राजनेताओं की भी हत्या आम बात है. सड़कें, राष्ट्रियों मार्गों की हालत बदतर है. बिजली की हालत ऐसी है कि कल शिबू सोरेन के घर जब मीटिंग चल रही थी, तभी बिजली गुल हो गयी, अन्य समयों की बात क्या कही जाय! उद्योग विस्तार में, केवल टाटा स्टील का जमशेदपुर स्थित कारखाने की क्षमता का विकास हुआ है. इसमे राज्य सरकार का योगदान नगण्य है. १२ मिलयन टन टाटा स्टील का प्रस्तावित ग्रीन फील्ड प्रोजेक्ट अधर में लटका हुआ है. अन्य औद्योगिक घराना यहाँ उद्योग लगाना चाहते हैं, पर राजनीतिक उठापटक के दौर में कुछ खास होता हुआ नहीं दीखता.
झारखण्ड मुक्ति मोर्चा पहले भाजपा के साथ थी अब कांग्रेस के साथ है. इस तरह भाजपा का ह्रास हुआ और कांग्रेस की राजनीतिक ताकत में वृद्धि. ऐसे में बाबा रामदेव का शिबू शोरेन से आकर उनके घर में मुलाकात करना और पुराना सम्बन्ध बताना समझ से परे है. बाबा रामदेव की कूटनीति की, यहाँ क्या जरूरत थी; हो सकता है, बाद में समझ में आवे. पर जो कुछ राजनीतिक नाटक आजकल पूरे देश में चल रहा है, वह कहीं से भी भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.
उत्तराखंड की त्रासदी का विद्रूप चेहरा और उसपर राजनीति दलों की, लाश पर की जाने वाली राजनीति भयावह है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अभी भी अनगिनत लाशें यत्र तत्र सर्वत्र दीख रही हैं. पूरी तरह से बर्बाद लोग या तो घर बार छोड़ने को मजबूर हैं या अपनी किस्मत का रोना रो रहे हैं. सरकार के अनुसार राहत कार्य पूरा हो चूका है. पर जो दृश्य देखने को मिल रहा है वह भयावह है. पूरा देश दिल खोलकर मदद कर रहा है, प्रधान मंत्री और राज्य सरकार की घोषनाएं हुई है, पर धरातल पर कितना उतरता है, देखना बाकी है.
पहले नरेन्द्र मोदी की केदारनाथ मंदिर को आधुनिक बनाने का प्रस्ताव और अब अमित शाह का राम मंदिर राग. भाजपा पूरी तरह हिंदुत्व की और बढ़ रही है और अन्य विपक्षी पार्टियाँ इसको विरोध करते हुए सेक्युलर राग अलापते हुए पास आती जा रही हैं. हस्र क्या होगा भविष्य के गर्भ में है. इस साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता में पूरा देश दो हिस्सों में बँट जायेगा और भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी आदि का मुद्दा शांत हो जायेगा….
राजनीतिक पंडित अपना अपना आकलन करेंगे ..हमने अपना विचार प्रस्तुत किया है ..बस!
जय हिन्द!
             -  जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
 (यह लेख निर्झर टाइम्स के 15 जुलाई, 2013 के अंक में प्रकाशित है।)

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