Thursday 7 March 2013

कुछ दोहे नीरज के


गोपालदास"नीरज"

 (1)
मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार
(2)
भारत माँ के नयन दो हिन्दू-मुस्लिम जान
नहीं एक के बिना हो दूजे की पहचान
(3)
बिना दबाये रस दें ज्यों नींबू और आम
दबे बिना पूरे हों त्यों सरकारी काम
(4)
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश
(5)
जब तक कुर्सी जमे खालू और दुखराम
तब तक भ्रष्टाचार को कैसे मिले विराम
(6)
पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष
(7)
कवियों की और चोर की गति है एक समान
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
(8)
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार
(9)
जब हो चारों ही तरफ घोर घना अँधियार
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्कार
(10)
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल
(11)
भूखा पेट जानता क्या है धर्म-अधर्म
बेच देय संतान तक, भूख जाने शर्म
(12)
दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन
(13)
गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्न
अगर ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न
(14)
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए
(15)
टी.वी.ने हम पर किया यूँ छुप-छुप कर वार
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार
(16)
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचार
तब से घर आते नहीं चिट्ठी पत्री तार
(17)
आँखों का पानी मरा हम सबका यूँ आज
सूख गये जल स्रोत सब इतनी आयी लाज
(18)
करें मिलावट फिर क्यों व्यापारी व्यापार
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार
(19)
रुके नहीं कोई यहाँ नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह् को कोई जाये शाम
(20)
ज्ञानी हो फिर भी कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास
(21)
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र
(22)
राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फोन
(23)
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय
(24)
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम
(25)
चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आकाश
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवास
(26)
सेक्युलर होने का उन्हें जब से चढ़ा जुनून
पानी लगता है उन्हें हर हिन्दू का खून
(27)
हिन्दी, हिन्दू, हिन्द ही है इसकी पहचान
इसीलिए इस देश को कहते हिन्दुस्तान
(28)
रहा चिकित्साशास्त्र जो जनसेवा का कर्म
आज डॉक्टरों ने उसे बना दिया बेशर्म
(29)
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप
(30)
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल
(31)
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय
(32)
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व
(33)
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार
(34)
सेज है सूनी सजन बिन, फूलों के बिन बाग़
घर सूना बच्चों बिना, सेंदुर बिना सुहाग
(35)
यदि यूँ ही हावी रहा इक समुदाय विशेष
निश्चित होगा एक दिन खण्ड-खण्ड ये देश
(36)
बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसान
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समान
(37)
चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आयु
इससे ज्यादा तेज़ तो चले कोई वायु
(38)
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश
(39)
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद
(40)
जब कम हो घर में जगह हो कम ही सामान
उचित नहीं है जोड़ना तब ज्यादा मेहमान
(41)
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी उतरे यार
(42)
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य
(43)
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट
(44)
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास
(45)
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल जान
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान
(46)
किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमार
सच कहकर जो झूठ को देता गले उतार
(47)
जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँव
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँव
(48)
अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ
(49)
दीपक तो जलता यहाँ सिर्फ एक ही बार
दिल लेकिन वो चीज़ है जले हज़ारों बार
(50)
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार

Sunday 3 March 2013

हिंदी की खातिर

                                                        --गिरिराज किशोर

न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त इटावा के रहने वाले थे। सातवें दशक में मेरा और उनका हिंदी सेवा के लिए कानपुर बार एसोसिएशन की तरफ से सम्मान हुआ था। तभी पहली बार उनसे भेंट हुई थी। लंबा कद, हृष्टपुष्ट शरीर और भव्य व्यक्तित्व। उनके परिचय में जब बताया गया कि उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की परंपरा को तोड़ते हुए चार सौ से अधिक फैसले हिंदी में लिखे हैं, तो मुझे डॉ लोहिया का ध्यान आया कि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में खुद अपने मुकदमे में बहस हिंदी में की थी। अदालत की तरफ से बार-बार टोका गया, पर वे अपने तर्क हिंदी में देते रहे। दरअसल, ज्यादातर क्रांतिकारी शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुर्इं। जब प्रेमशंकर गुप्त इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायाधीश हुए तो उन्होंने अपने फैसले हिंदी में लिखने शुरू किए। न्यायपालिका में हिंदी के प्रति इतना जागरूक और प्रतिबद्ध न्यायाधीश दूसरा कोई मेरे संज्ञान में नहीं आया। अब बहुत से नए वकील गलत अंग्रेजी बोल कर अदालत पर दबदबा बनाने की कोशिश करते हैं। मैंने सुना है कि कुछ जज भी सही हिंदी में फैसले लिखने के बजाय अपनी अंग्रेजी में फैसले लिखना पसंद करते हैं। डॉ लोहिया जिस तरह हिंदी के दीवाने थे, वैसे ही प्रेमशंकर गुप्त भी थे। यों राजनीतिकों में मुलायम सिंह हिंदी-भक्त हैं। एक बार जब वे मुख्यमंत्री थे तो किसी सिलसिले में मैं उनसे मिला था। उन्हें एक पत्र दिखाया। देखते ही उन्होंने पूछा कि अंग्रेजी में यह पत्र क्या हमारे किसी अधिकारी ने लिखा है! मैंने कहा कि नहीं, मैंने लिखा है। उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों कि आपको तो ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने गर्दन झुका ली। मन ही मन तय किया कि अब सिवाय उनके जो हिंदी नहीं जानते, सबको हिंदी में पत्र लिखूंगा। जब ‘पहला गिरमिटिया’ लिखने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना था, तब उन्होंने ही मुझे पचहत्तर हजार रुपए का अनुदान दिया था। अगर वह न मिला होता तो यह उपन्यास कभी न लिखा गया होता। प्रेमशंकर गुप्त ने एक न्यास भी बनाया है जो हर साल हिंदी सेवकों को सम्मान प्रदान करता है। दो वर्ष पहले मुझे भी वह सम्मान मिला था। हाल ही में 2012 का सम्मान दिया गया। गुप्त जी अस्वस्थ होते हुए भी उसमें सम्मिलित होने इलाहाबाद से इटावा गए थे। जब जनवरी में उनसे फोन पर बात की थी तो उन्हें मुझे पहचानने में एक-दो मिनट लगे थे। उन्हें शायद ब्रेन हैमरेज हो चुका था। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि लगता है, अब शायद ही जा पाएं। मुझे अच्छा नहीं लगा। हिंदी के प्रति समर्पित लोग अब रह नहीं गए। यों भी हिंदी की नाव हिंदी वालों के कारण ही डावांडोल है। अनेक लेखक ऐसे हुए जिन्होंने हिंदी का नेतृत्व किया है। मैथिलीशरण गुप्त, निराला, अज्ञेय ये सब हिंदी के प्रति समर्पित थे। लेकिन प्रेमशंकर गुप्त ने अपने बल पर हिंदी के अभिवर्धन और संवर्धन के लिए न्यास बनाया और सम्मान पर्व को वे पूरी आस्था के साथ भव्य तरीके से हर वर्ष इटावा में आयोजित करते रहे। उनका जाना हिंदी के अंतिम योद्धा का चले जाना है। गुप्त जी पूंजीपति नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने एक छोटे-से नगर में हिंदी की मशाल जलाए रखी, जिसका आलोक हर दिशा में फैला था। हिंदी आजादी की लड़ाई का सबसे प्रभावी हथियार था। आज भी राष्ट्रीय पर्वों पर दक्षिण के कुछ नगरों में प्रभात-फेरियां निकलती हैं और लोग हिंदी के वे जागरण गीत गाते हैं जो आजादी की लड़ाई के दौरान गाए जाते थे। उत्तर भारत के लोग वह सब भूल गए। वे सुबह गाते हुए सड़कों पर निकलने में शर्म महसूस करते हैं। आज सब भारतीय भाषाएं संकट में हैं। मैकाले द्वारा रोपे अंग्रेजी के बिरवे को नेहरू जी ने हिंदी और भारतीय भाषाओं की अस्मिता की खाद देकर छतनार वृक्ष बना दिया! उसके साए में सब भारतीय भाषाएं अपने पत्ते झारने के लिए मजबूर हैं। आज दूसरी भाषाएं भी अंग्रेजी के आतंक से पीड़ित हैं। बाहर भले ही अंग्रेजी बोल कर खुश हो लेते हों, पर दिलों में यह आतंक व्याप्त है कि हमारी भाषा का क्या होगा। उनके बच्चे भी अंग्रेजी में बोलना सम्मान की बात समझते हैं। अगर हमें अपनी पहचान को जिंदा रखना है तो हमें टंडन जी, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त जैसे समर्पित लोगों का अनुकरण करना होगा। जो लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में लाने के लिए प्रयत्नशील हैं वे भी शायद ही अंग्रेजी के इस आक्रमण से बच पाएं, क्योंकि अंग्रेजी के निजी स्कूल गांवों में भी पहुंच रहे हैं। वे भी इस महामारी के शिकार होते जा रहे हैं! 
सौज. जनसत्ता


Thursday 28 February 2013

भूली-बिसरी यादें

दूरियाँ | भूली-बिसरी यादें

स्वप्न मेरे...........: माँ ... एक रूप

मेरी धरोहर: लौटकर कब आते हैं???????.........प्रीति सुराना: सपने हैं घरौंदे, जो उजड़ जाते हैं,.... मौसम हैं परिन्दे, जो उड़ जाते हैं,.... क्यूं बुलाते हो, खड़े होकर बहते हुए पानी में उसे...

hum sab kabeer hain: टूटा मन


भूली-बिसरी यादें : तकदीर के मारे:                          तूफां से डरकर लहरों के बीच  सकारे   कहाँ जाएँ,              इस जहाँ में भटककर तकदीर के मारे कहाँ जाएँ ।...

डॉ. हीरालाल प्रजापति: 43. ग़ज़ल : पूनम का चाँद...................

परिकल्पना: उत्थिष्ठ भारत

स्वप्न मेरे...........: वो एक लम्हा ...

फूल | भूली-बिसरी यादें

दोहे


               -फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन रात
होनहार बिरवान के चिकने चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग
होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर दर ठोकर खाय

जगत धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़

दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन मन्दिर की यात्रा, मूरख चारों धाम

वेद, पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई, इक बच्चे की निगाह

Thursday 21 February 2013

रात


        - उदय प्रकाश
इतने घुप्प अंधेरे में 
एक पीली पतंग
धीरे-धीरे
आकाश में चढ़ रही है.

किसी बच्चे की नींद में है
उसकी गड़ेरी

किसी माँ की लोरियों से
निकलती है डोर !

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...