Saturday 26 January 2013

गणतंत्र की क्रांति


गणतंत्र दिवस की आप सबको ढेरों बधाई!
 भाई अभय की दो रचनायें इस गणतंत्र के जनों को सप्रेम भेंट की जा रही हैं।

तस्वीर ये बदलनी है आवाज़ करो.
हुंकार है, देश अब आज़ाद करो.

मालिक हैं मुख़्तार हैं
फिर भी क्यों लाचार हैं?

Friday 25 January 2013

अभिव्यक्ति


     कुछ साहित्य के सुधी जन साहित्य की बिखरी कड़ियों को पिरोने का प्रयास कर रहे हैं। उनके प्रयासों के कुछ उदाहरण के रूप में ये तीन लिंक यहां दिए जा रहे हैं।
इन्हें देखें और अपने सुझाव दें।


1- अभिव्यक्ति : सुरुचि की - भारतीय साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन पर आधारित।


2- अगर कोई विचार मन में कौंध रहा है, तो कलम उठाइए


3- छुट्टी की अर्जी:
     केवल एक कागज या दस्तावेज ही नहीं....
     एक भावना है..
     एक आशा है उम्मीद है...
     और हक भी है एक धमकी है..
     बहाना है....


बसंत के बिखरे पत्ते: लिखने से बनेगी बात...

अगर कोई विचार मन में कौंध रहा है, तो कलम उठाइए

Thursday 24 January 2013

धरोहर: अर्जी छुट्टी की..........संतोष सुपेकर

छुट्टी की अर्जी:
केवल एक कागज या दस्तावेज ही नहीं....
एक भावना है..
एक आशा है उम्मीद है...
और हक भी है एक धमकी है..
बहाना है.... 

Monday 21 January 2013

गाँवों का खोखला उत्थान

विश्वपटल पर हमारे देश की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप मे है. गाँवों को भारत के पैर कहा जाता है. हम गाँवों के बहुआयामी उत्थान के लिए अग्रसर भी हैं चाहे वह सड़कों, नहरों, शिक्षा, स्वास्थ्य कोई भी क्षेत्र हो। प्रगति के आंकड़े वन्दनीय ऊंचाईयों को छू रहै हैं, लेकिन कई बार गाँव के दावे पर आंकड़े खोखले सिद्ध हो जाते हैं. वैश्विक फलक पर देश के पैरों का ढिंढोरा तो खूब पिटता है परन्तु पैरों का लकवा आर पोलियो किसी के संज्ञान मे नही है, परिणाम लड़खड़ाती गति हमारे समक्ष है. वस्तुत: विकास की बयार का रुख ही कुछ ऐसा है कि हम ग्रामीण भी अपनी उन्नति का मानक मोबाइल, वाह्य व्यक्तित्व/साज-सज्जा और विलासिता मानने लगे हैं. भूलते जा रहे हैं कि आर्थिकी रीढ़ तो कृषि है, उद्यम ही सर्वसाधन है. गाँवों का शहरीकरण ज्स गति से हो रहा है उससे कही तीव्र गति से मानसिकता बदल रही है वो भी पश्चिमी तर्ज पर. विकास की धुरी कहीं भी घूमती हो पर विश्व का मूल आधार प्राथमिक उत्पादों पर हा टिका है. जिनके लिए हमे कृषि/प्रकृति और उद्यम का सहारा लेना ही पड़ेगा. परन्तु कृषि के साथ उद्यम करना परम्पराओं का अनुसरण करना तो वर्तमान में पिछड़ेपन का कारण और विकास का अवरोधक माना जाने लगा है. गाँवों के अवलोकन के बाद देश के लिए 'लोकत्न्त्रिक' शब्द मिथ्या सा लगने लगता है. वहाँ बोट बहुत से लोग डालते हैं, तो इस लिए कि 'सब डालते हैँ' न कोई विकास की अपेक्षा न किसी सुविधा की आशा. विपन्नता, अपराध, खुराफात गाँवों के अभिन्न अंग हैं. आज भी, जब हम आंकड़ें देख गौरवान्वित होते हैं, गलियारे कीचड़ से डूबे हुए हैं. मनरेगा की अपूर्व सफलता के बाद भी कोनों मे जुएं के फड़ प्राय: लगे रहते हैं- खाली हैं क्योंकि उनके पास 'जाब कार्ड' नहीं है, खेती मे जितना पैदा होता है उससे ज्याद लग जाता है, डी.ए.पी. दुगने दाम की मिलने लगी है, उन्नत बीज भी तो उतना महंगा है. निम्न मूल्यों पर राशन उपलब्ध होने पर भी कई परिवारों मे एक बार ही भोजन बनता है,क्योंकि राशन के लेने के लिए राशनकार्ड ही नही है. कितनी कन्याएं कन्या विद्याधन, साइकिल आदि सुविधाओं से वंचित हैं. अब कोई कहे कि ये BPL सूचियां आदि सब मिथ्या है क्या! तो बिलकुल नहीं, इन सुविधाओं और कार्डों का लाभ तो वो धनाड्य जन ले रहे हैं जो जीवन तो विलासिता का जी रहे हैं परन्तु अभिलेखों मे निर्धनतम् बने हुए हैं. ये तथ्य गौढ़ हैं और हम खुश हो रहे हैं देख के कि हर चरवाहे, मजदूर, जुआंरी, किशोर, प्रौढ़ की जेब मोबाइल से झन्कृत हो रही है. इस खोखले उत्थान के बारे मे क्या कहा जाए, मेरी समझ से परे है. मैं कोई कपोल कल्पत बात नहीं कर रही बल्कि देखा हुआ आर जिया हुआ वर्णित कर रही हूं. मेरा अपना गाँव-साखिन, वि.क्षे.-टड़ियावां, पड़ोस के गाँव बरबटापुर, ढपरापुर, पहाड़पुर, गोपालपुर मुझे यही अनुभव प्रदान करते हैं. सुने और पढ़े आंकड़ों पर विश्वास कैसे कर लूं?                                        
वन्दना तिवारी,
साखिन

Saturday 22 December 2012

बुकर का सफर


बुकर का सफर

2012 के मैन बुकर फार फिक्शन के पुरस्कार की घोषणा हाल मे ही मे की गयी है,जिसमे ब्रितानी लेखिका हिलेरी मांटेल विजयी रहीं.
मैन बुकर फार फिक्शन पु. कामनवेल्थ या आयरलैण्ड के नागरिक द्वारा लिखे गये मौलिक अंग्रेजी उपन्यास के लिए हर वर्ष दिया जाता है. बुकर पु. की शुरुआत 1969 मे बुकर मैक्कोनल कम्पनी के द्वारा की गयी थी. तब इसे 'बुकर मैक्कोनल अवार्ड' के नाम से जाना जाता था और पुरस्कार राशि £21,000 थी. 2002 मे 'मैन ग्रुप' के साथ मिलकर यह राशि बढाकर £50,000 कर दी गयी और नाम भी 'मैन बुकर फार फिक्शन' हौ गया,जिसे अब लघु रूप से मैनबुकर पुरस्कार या बुकर पुरस्कार के रूप मे जाना जाता है.मैन बुकर पुरस्कार 2012-
ब्रिटेन की लेखिका हिलेरी मांटेल को फिक्शन वर्ग मे उनके उपन्यास 'ब्रिंग अप बाडीज' के लिए वर्ष 2012 के लिए बुकर पु. दिया गया. इसी के साथ वह दो बार बुकर पु. जीतने वाली पहली महिला बन गयीं हैं. वह इससे पहले 2009 मे एसी श्रंखला (Thomas Cromwell Trilogy) के पहले 'वुल्फ हाल' के लिए जीता था. 57 वर्षीया हिलेरी के अलावा पाँच और लेखक इस पु. के दावेदार थे जिसमे जे.एम. कोएट्जी,वाटसन और भारतीय मूल के जीत थाइल शामिल थे. इस पु. के अलावा हिलेरी कई पुरस्कारों को अपने नाम कर चुकीं हैं जैसे-सी.बी..सम्मान,संडे एक्सप्रेस बुक आफ इयर सम्मान,आँरेंज प्राइज,कामनवेल्थ राइटर्स प्राइज आदि. उनकी अन्य उपन्यास हैं-'एवरी डे इज मदर्स डे', चेन्ज आफ क्लाइमेट',' प्लेस आफ ग्रेटर सेफ्टी' आदि. 
बुकर पुरस्कार और भारत-
2012
के पुरस्कार मे नामित 6 साहित्यकारों मे भारतीय मूल के लेखक जीत थाइल भी शामिल थे,जिनका मुम्बई मे ओपियम के धन्धे पर आधारित उपन्यास 'नार्कोपोलिस' बुकर की दौड़ मे था. अभी तक भारतीय मूल के पाँच लेखक यह पुरस्कार जीत चुके हैं-
1-
वी.एस.नायपाल(1971)-In A Free State
2-
सलमान रुश्दी(1981)-Midnight's Children
3-
अरुन्धति राय(1997)-A God of Small Things
4-
किरण देसाई(20006)-The Inheritence of Laws
5-
अरविन्द अडिगा(2008)-The White Tiger
मैन बुकर इंटरनेशल अवार्ड-
अमूमन हम मैन बुकर फार फिक्शन और मैन बुकर इन्टरनेशनल अवार्ड एक ही समझ बैठते हैं जबकि दोनो पुरस्कार अलग अलग हैं. यह पुरस्कार विश्व के साहित्य को आमंत्रित करता है. यह विश्व के किसी भी जीवित साहित्यकार को उसके किसी भी विधा के मूलत: अंग्रेजी लेखन या अंग्रेजी मे अनुवादित लेखन के लिए प्रदान किया जाता है. 2005 से प्रारम्ण यह पुरस्कार Man Group के द्वारा प्रदान किया जाता है. उसमे पुरस्कार राशि £60,000 है.यह पुरस्कार अभी तक 4 साहित्यकारों को दिया जा चुका है-
1-
इसमेल काडरा -2005-अल्बानिया
2-
चिनुआ एक़बी-2007-नाइजीरिया
3-
एलिस मुनरो-2009-कनाडा
4-
फिलिप रोथ-2011अमेरिका
इस तरह दोनो पुरस्कार पूर्णत: भिन्न हैं.

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...