Thursday, 1 January 2015

नवगीत- चन्द्र प्रकाश पाण्डेय


फिर भटकती
चिट्ठियों से लौट आए दिन

आज यह उन्मुक्त
सा वातावण
छोड़ दो इस रात
झूठे आचरण
प्यार की इस 
घड़ी को
सिर झुकाए दिन

यह समय 
यह प्रणय यह निवेदन
कर अधर दृग
वय संधियों के क्षण
पंखुरी परसे
हवा से
महमहा दिन

तुम वलय सी
शिंञ्जिनी सी
बाहु लय में
एक संगति सुखद
सुंदर सुख
हृदय में
प्राण वंशी के
स्वरों में
गुनगुनाए दिन


Tuesday, 30 December 2014

स्मृति- यशस्वी साहित्यकार अनंतमूर्ति

          भारतीय साहित्‍य के महान कथाकार यू आर अनंतमूर्ति बेशक दैहिक रूप से हमारे बीच न रहे हों, लेकिन एक यशस्‍वी रचनाकार के रूप में उनकी उपस्थिति साहित्‍य जगत में सदैव अनुभव की जाती रहेगी। वे कन्‍नड़ भाषा के उन युगान्‍तरकारी रचनाकारों में थे, जिन्‍होंने भारतीय चिन्‍तन धारा को नया उन्‍मेष दिया। 21 दिसंबर, 1932 को कर्नाटक के तीर्थहल्‍ली तालुक के छोटे-से कस्‍बे मेलिगे में जन्‍मे अनंतमूर्ति ने अपनी आठ दशक की जीवन-यात्रा में भारतीय साहित्‍य को अमूल्‍य योगदान दिया। साहित्‍य की विभिन्‍न विधाओं में उनकी 20 से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हैं, जिनमें 'संस्‍कार', 'भारतीपुर', 'अवस्‍थे' और 'भव' जैसे प्रसिद्ध उपन्‍यासों के अलावा 5 कहानी संग्रह, 3 काव्‍य-संग्रह, एक नाटक और 5 समीक्षा ग्रंथ अपना विशिष्‍ट स्‍थान रखते हैं।

          प्रो अनंतमूर्ति के बारे यह सर्वविदित है कि उनकी पूरी सृजन-यात्रा सामाजिक रूढ़ियों और गैर-बराबरी के विरुद्ध एक विद्रोही मानवतावादी लेखक की रचनात्‍मक यात्रा रही है और अपने लोकतांत्रिक विचारों और मानवीय सिद्धान्‍तों पर कायम रहने वाले एक बेबाक व्‍यक्ति के रूप में मुखर छवि उन्‍हें भारतीय रचनाकारों में अलग पहचान देती है। अपने लेखन में वे लोहिया की समाजवादी विचारधारा से बेहद प्रभावित रहे, जिसमें जाति और लिंग के आधार पर होने वाले विभाजन की तीखी आलोचना मुखर है, लेकिन इसी के समानान्‍तर उनका लेखन सार्त्र और लॉरेंस के सौन्‍दर्यबोध सहित अन्‍य दर्शनों से भी बहुत से तत्‍व ग्रहण करता रहा है।

          सन् 1965 में प्रकाशित प्रो यू आर अनंतमूर्ति का सर्वाधिक चर्चित उपन्‍यास 'संस्‍कार' अनेकार्थी जटिल रूपकों से परिपूर्ण माना जाता है, जिसमें लेखक ब्राह्मणवादी मूल्‍यों और सामाजिक व्‍यवस्‍था की भर्त्‍सना करता है - उपन्‍यास की कथा एक ऐसे नेक व्‍यक्ति प्राणेशाचार्य के विद्रोह और जीवन-संघर्ष को सामने लाती है, जो उसी सामाजिक व्‍यवस्‍था की उपज है। इसी तरह उनका चौथा उपन्‍यास 'भव' (1994) विचार के स्‍तर पर उनके पिछले कथा-लेखन से तो अलग है ही, उनकी रचना-यात्रा में बदलाव का नया संकेत भी देता है। इस उपन्‍यास के माध्‍यम से लेखक ने सामाजिक रूढ़ियों से टकराव के साथ व्‍यक्ति के मनोलोक की बारीकियों को भी बहुत खूबसूरती से उजागर किया है।  

          प्रो अनंतमूर्ति को अपने रचनात्‍मक योगदान के लिए राष्‍ट्रीय और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय स्‍तर के अनेक पुरस्‍कार और सम्‍मान प्राप्‍त हुए, जिनमें भारतीय ज्ञानपीठ सम्‍मान, साहित्‍य अकादमी सम्‍मान और अनेक विश्‍व-स्‍तरीय सम्‍मान शामिल हैं। उनकी कृतियों के भारतीय भाषाओं में तो अनुवाद हुए ही, फ्रैंच, जर्मन, बुल्‍गेरियन, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में अनुवाद उपलब्‍ध हैं। अपने साहित्यिक अवदान के साथ वे साहित्‍य अकादमी और नेशनल बुक ट्रस्‍ट के अध्‍यक्ष रहे। साथ ही, वे भारतीय फिल्‍म और टीवी प्रशिक्षण संस्‍थान, पुणे के भी चेयरमैन रहे। उनकी कृतियों पर दूरदर्शन और अन्‍य माध्‍यमों पर फिल्‍म निर्माण हुआ, वे दूरदर्शन की कालजयी कथा-श्रृंखला में कोर कमेटी के माननीय सदस्‍य रहे। ऐसे महान् रचनाकार का अवसान निश्‍चय ही एक गहरा अवसाद और खालीपन छोड़ गया है। उनकी पावन स्‍मृति को प्रणाम।  

प्रस्तुति- राहुल देव
rahuldev.bly@gmail.com

Monday, 29 December 2014

यादों से- संजय मिश्र ‘हबीब’


स्व. संजय मिश्र 'हबीब'

कह मुकरी  
गोदी में सिर रख सो जाऊँ

कभी रात भर संग बतियाऊँ
रस्ता मेरा देखे दिन भर 
क्या सखि साजन? ना सखि बिस्तर
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ग़ज़ल

फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया


क्या पता अच्छा या बुरा लाया।
चैन दे, तिश्नगी उठा लाया।

जो कहो धोखा तो यही कह लो,
अश्क अजानिब के मैं चुरा लाया।

क्यूँ फिजायें धुआँ-धुआँ सी हैं,
याँ शरर कौन है छुपा लाया।

बाग में या के हों बियाबाँ में,
गुल हों महफूज ये दुआ लाया।

लूटा वादा उजालों का करके,
ये बता रोशनी कुजा लाया?

मेरा साया मुझी से कहता है,
अक्स ये कैसा बदनुमा लाया।  

लो सलाम आखिरी कजा लायी,
फिर मिलेंगे अगर खुदा लाया।

             हो मेहरबाँ 'हबीब' उसुर मुझपे,                       
इम्तहाँ रोज ही जुदा लाया।
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लघुकथाएँ
चाबी

राजकुमार तोते को दबोच लाया और सबके सामने उसकी गर्दन मरोड़ दी. तोते के साथ राक्षस भी मर गयाइस विश्वास के साथ प्रजा जय-जयकार करती हुई सहर्ष अपने-अपने कामों में लग गई।

उधर दरबार में ठहाकों का दौर तारीं था. हंसी के बीच एक कद्दावर, आत्मविश्वास भरी गंभीर आवाज़ गूँजी. युवराज! लोगों को पता ही नहीं चल पाया कि हमने अपनी जानतोते में से निकालकर अन्यत्र छुपा दी है.  प्रजा की प्रतिक्रिया से प्रतीत होता है कि आपकी युक्ति काम आ गई. राक्षस के मारे जाने के उत्साह और उत्सव के बीच प्रजा अब स्वयं अपने हाथों से सत्तारानीके कक्ष कि चाबी आपको सौंपकर जाएगी.

राजकुमार के होंठों के साथ ही पूरे दरबार में एक आशावादी मुस्कुराहट नृत्य करने लगी। 
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अध्यादेश 

शरीर पर बेदाग पोशाक, स्वच्छ जेकेट, सौम्य पगड़ी एवं चेहरे पर विवशता, झुंझलाहट, उदासी और आक्रोश के मिले जुले भाव लिए वे गाड़ी से उतरे. ससम्मान पुकारती अनेक आवाजों को अनसुना कर वे तेजी से समाधि स्थल की ओर बढ़ गए. फिर शायद कुछ सोच अचानक रुके, मुड़े और चेहरे पर स्थापित विभिन्न भावों की सत्ता के ऊपर मुस्कुराहट का आवरण डालने का लगभग सफल प्रयास करते हुए धीमे से बोले- मैं जानता हूँ, जो आप पूछना चाहते हैं. देखिए, आप सबको, देश को यह समझना चाहिए और समझना होगा कि गांधी जी के पदचिह्नों पर, उनके दिखाए, बताए, सुझाए रास्तों पर चलना ही हमारी प्रथम प्राथमिकता एवं प्रतिबद्धता है.कहकर वे मुड़े और तेजी से चलते हुये भीतर प्रवेश कर गए. शीघ्र ही वातावरण में गांधीजी के प्रिय भजन की स्वर लहरियाँ तैरने लगीं. वैष्णव जन तो....“ 

Sunday, 28 December 2014

संगीता शर्मा की दो कविताएँ

          संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

चाय की प्याली

चाय की प्याली का
होठों तक आते-आते रुक जाना
उड़ने देना भाप को
ऊँचा और ऊँचा
उस ऊँचाई के ठीक नीचे से
सबकी नज़रे बचा
प्याली का बट जाना
दो हिस्सों में
आज भी बहुत सताता है
आज भी बहुत याद आता है ।
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ग्लोबल वार्मिंग

बाहर-भीतर
भिन्न व्यवहार करना
गिरगिट की मानिंद
रंग बदलना
स्वयं का दंभ भरना
अपनी कुटिल हँसी में
सैकड़ों को निपटाना
तो कोई आपसे सीखे

यही विशेषण
आपको कुर्सी पर जमाए हुए है
किन्तु ‘सावधान‘
ग्लोबल वार्मिंग में
सब कुछ
पिघलने लगा है |

Saturday, 27 December 2014

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की दो लघुकथाएँ

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

बाल श्रम
कई प्रतिष्ठित समाजसेवी संगठनों में उच्च पदधारिका तथा सुविख्यात समाज सेविका निवेदिता आज भी बाल श्रम पर कई जगह ज़ोरदार भाषण देकर घर लौटीं. कई-कई कार्यक्रमों में भाग लेने के उपरान्त वह काफी थक चुकी थीं. पर्स और फाइल को मेज पर फेंकते हुए निढाल सोफे पर पसर गईं. झबरे बालों वाला प्यारा सा पप्पी तपाक से उनकी गोद में कूद गया.

"रमिया! पहले एक ग्लास पानी ला... फिर एक कप गर्म-गर्म चाय......" 

दस-बारह बरस की रमिया भागती हुई पानी लिए सामने चुपचाप खड़ी हो जाती है.

"ये बता री, आज पप्पी को टहलाया था?"


"माफ़ कर दो मेम साब, सारा दिन बर्तन माँजने, घर की सफाई और कपडे धोने में निकल गया इसलिए आज पप्पी को टहला नहीं पाई...."
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आइना 

नीलम, जब से तुम इस घर में ब्याह के आई तभी से घर-बाहर, टॉयलेट आदि की साफ-सफाई करती रही हो. अब ये सब कैसे होगा डॉक्टर ने तुम्हें शारीरिक श्रम हेतु मना किया है। क्यों न इस कार्य हेतु किसी को रख लिया जाए. 
नीलम ने सकुचाते हुए कहा, मुझे कोई आपत्ति नहीं पर आप तो महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी हैं। 

अनुपमा सरकार की कविता



                अनुपमा सरकार

हाथों की लकीरों में


जाने क्या ढूँढती हूँ
हाथों की इन लकीरों में
शायद उलझे सपने, झूठी ख्वाहिशें
बेतरतीब ख्वाब, अनसुलझे सवाल और...
और क्या!

अरे! ढूँढने से कभी कुछ मिला है क्या?
ये लकीरें, तकदीरें तो
पलटती ही रहती हैं हर पल
मौसम की तरह
बस, जब जो मिले
वह काफी नहीं होता

है जीवन एक अनंत सफर
और हम अनथक पथिक
राहें समझते-समझते
मंज़िलें बदल जाती हैं

Sunday, 21 December 2014

क्यों न तुझे ही

किरण सिंह

शब्द चुनकर छन्द में गढ़ 
उठे मन के भावना भर
सुन्दर सॄजन कर डालूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


कोरा कागज़ मन मेरा है
जहाँ तुम्हारा चित्र सजा है
तेरे प्रीत से चित्र रंगा लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


नित्य भोर उठ प्रीति भैरवी
हाथ जोडकर करूँ पैरवी
रागिनियाँ संग राग मिला लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


शाम सुनहरी सज रही है
ताल लय में बज रही है
तुझ संग गीतों को मैं गा लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


रात चाँद और तारे प्रहरी
नयन देखते स्वप्न सुनहरी
कुछ पल तेरे संग बिता लूँ
क्यों न तुझे ही विषय बना लूँ


केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...