Saturday 24 December 2016

सामाजिक दायित्व निर्वहन में समकालीन कविता की भूमिका


                - डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव 

        समाजिक दायित्व के निर्वहन में समकालीन कविता की भूमिका पर विचार करने के पूर्व यह समझना आवश्यक प्रतीत होता है कि समकालीन कविता क्या है और सामाजिक दायत्वि क्या है। समकालीन कविता की कोई सार्वभौम परिभाषा नहीं है। अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से उसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। किसी के अनुसार समकालीन कविता वह है जो पाठकों को यह बोध कराने में समर्थ हो कि वे किस माहौल में जी रहे हैं। डॉ यतीन्द्र तिवारी के शब्दों में समकालीन कविता समसामयिक समाज से उपजी आशाओं का बिम्ब है। वह एक अतिरिक्त यथार्थ और जीवन है जिसमें शाश्वत जीवन मूल्यों की मिठास और यथार्थ की कड़वाहट अर्थात दोनों की समरसता विद्यमान है इसीलिए इसमें काव्य का रसानन्द और जीवन सत्य की विभीषिकाओं से संघर्ष प्रेरणा दोनों मिलती हैं। कुछ के विचार से समकालीन कविता आदमी को आदमी बनाए रखने का संवेदनात्मक संवाद है और यह परम्परागत काव्यशास्त्रीय दायरों में बॅधकर लिखी जाने वाली कविता नहीं है। कुछ विचारक इसे काल-खण्ड से जोड़ते है अर्थात विगत 30-40 वर्षों से जिस प्रकार की कविताएँ रची गई हैं और रची जा रही हैं वह समकालीन कविता है। हमारे स्कूल-कॉलेजों में भी समकालीन कविता के नाम पर यही साहित्य पढ़ाया जा रहा है। भविष्य में यह छात्र जब बूढे होंगे तब संभवतः कविता का स्वरूप काफी बदल चुका होगा और तब आज की समकालीन कविता शायद उस समय समकालीन न रह जाए। आज का वरिष्ठ कवि जो 50 या 60 की उम्र पार कर चुका है वह जब पलट कर अपने साहित्यिक जीवन को देखता है तो अपनी जवानी के तीस-चालीस वर्षों में जिन साहित्यकारों के साथ कदम-ताल मिलाकर एवं सामाजिक दायित्वों को समझकर कविता रचना की है, समग्र रुप में वही समकालीन कविता है और उस कविता का जो विचारात्मक एवं रचनात्मक वैशिष्ट्य है, वही उसे परिभाषित भी करता है।

          समकालीन कविता का कुछ स्वरूप समझ लेने के बाद अब प्रश्न यह है कि सामजिक दायित्व किसे कहते हैं। समाज हमें बहुत कुछ देता है पर हम समाज को क्या देते हैं इस प्रश्न पर संभवतः हम विचार नहीं करते। आम व्यक्ति इस संबंघ मे प्रायः निर्विकार है क्योंकि उसका सारा समय अपने अस्तित्व की रक्षा के उपायों में ही खर्च हो जाता है और उसके पास ऐसी कोई विधा भी नहीं है जिससे वह समाज की कुछ सेवा करे सके। परन्तु कवियों के पास कलम का जो अस्त्र है, इतिहास गवाह है कि उसने बड़े-बड़े तलवारों के रंग भी फीके किए हैं। इस संबंध मे विद्वान प्रायः पाब्लो नेरूदा की कविता ‘‘कवि का दायित्व’’ का उल्लेख करते हैं इसमें सन्देह नहीं कि नेरूदा ने कवि दायित्वों का बड़ा सांकेतिक और संवेनशील वर्णन किया है किन्तु वह इत्यलम् नहीं है। काव्यात्मक और कलात्मक होने के कारण  वह प्रायः सामान्य पाठक की पहुँच से दूर है। परन्तु उसे यहाँ उल्लिखित करना समीचीन प्रतीत होता है।

जो शख्स नहीं सुन रहा है समन्दर की आवाज़
आज शुक्रवार की सुबह जो शख्स कैद है
घर या दफ्तर कारखाना या औरत के आगोश में
या सडक या खदान या बेरहम जेल के तहखाने में
आता हूँ मैं उसके करीब और बिना बोले बिना देखे
जाकर खोल देता हूँ काल कोठरी का दरवाजा
और शुरू होता है एक स्पंदन धुंधली और हठीली
बादलों की गड़गड़ाहट धीरे-धीरे पकड़ती है रफ़्तार
मिलती है धरती की धड़कन और समुद्री-झाग से
समुद्री झंझावात से उफनती नदियाँ
जगमग तारे अपने प्रभामंडल में
और टकराती टूटती सागर की लहरें लगातार

इसलिए जब मुकद्दर यहाँ खींच लायी है मुझे
तो सुनना होगा मुसलसल सागर का बिलखना
और सहेजना होगा पूरी तरह जागरूक हो कर
महसूसना होगा खारे पानी का टकराना और टूटना
और हिफाजत से जमा करना होगा एक मुस्तकिल प्याले में
ताकि जहाँ कहीं भी कैद में पड़े हों लोग
जहाँ कहीं भी भुगत रहे हों पतझड़ की प्रताड़ना
वहाँ एक आवारा लहर की तरह
पहुँच सकूँ खिड़कियों से होकर
और उम्मीद भरी निगाहें मेरी आवाज़ की ओर निहारें 
यह कहते हुए कि हम सागर तक कैसे पहुँचेंगे
और बिना कुछ कहे मैं फैला दूँ उन तक
लहरों की सितारों जैसी अनुगूँज
हर हिलोर के साथ फेन और रेत का बिखरना
पीछे लौटते नामक की सरसराहट
तट पर समुद्र-पांखियों की सुरमई कूक
इस तरह पहुँचेंगे मेरे जरिए  
टूटे हुए दिल तक आजादी और सागर

          नेरूदा की कविता में सामाजिक दायित्व का वही संदेश है जिसके अन्तर्गत हमारी भावनाएँ हर अत्याचार का विद्रोह करने के लिये उद्दत होती हैं। हमारे ये प्रयास पीड़ितों के लिए मरहम का काम करते हैं। दुनिया का दुख-दर्द कोई नया नहीं है। युग के अनुसार उसके स्वरूप बदलते रहते हैं। भगवान बुद्ध मानव की भौतिक पीड़ा के कारण ही विरक्त हुए। वृहदारण्यक के तापस कुमार रैक्व भी मानव की भौतिक पीड़ा से अभिभूत हुए परन्तु उन्हें वैराग्य नहीं हुआ अपितु उनहोंने अपना सारा जीवन लोगों के दुख निवारण एवं सेवा मे अर्पित कर दिया। सृष्टि के आदि से लेकर संभवतः आज तक यदि हम पुराख्यानों को प्रमाण मानें तो मनुष्य कभी रावण, कभी कंस तो कभी दुर्योधन के अत्याचारों से त्रस्त एवं दमित रहा है और प्रायः हर काल में देवों और मनुष्य के उद्धार की समस्या रही है। यह अवश्य है कि हर युग की अपनी अलग परिस्थिति और समस्याएँ होती हैं। आज से लगभग सात दशक पूर्व हमारी प्रमुख समस्या अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति और देश को आजाद कराने की रही है। परन्तु अब समस्याओं का स्वरूप बदला है और समकालीन कविता का दायित्व वर्तमान समस्याओं के अनुक्रम में विचारणीय है।

काव्य विधा का संवाहक होने के कारण समकालीन कविता का दायित्व अन्य विधाओं की तुलना में सर्वोपरि है क्योंकि शब्दों के अग्निबाण हृदय भेदने में सदैव समर्थ रहे हैं। इस नज़रिए से समकालीन कवि और कविता का प्रमुख सामाजिक दायित्व पाठकों को अपने समय की व्यवस्थाओं एवं अव्यवस्थाओं का सच्चा आईना दिखाना है। एक ऐसा आईना जो आपकी अनुभूतियों को झकझोर दे। कात्यायिनी की एक कविता इस संबंध मे प्रस्तुत है।

घनी घटाएँ उस दिन मुख पर
छाईं थीं भोले मुख पर
आँखों में आँसू तैर रहे थे
बस्ता बिना उतारे
आकर खड़ा हो गया।
रोज की तरह झूला नहीं पकड़कर आँचल  
सजा मिली स्कूल में मुझे आज’’ और यह
क्हते-कहते लुढ़क पड़े
आँखों से दो मोती गालों पर
‘‘सजा मिली? की होगी तूने कोई गलती।’’
नहीं शोर मैं नहीं
दूसरे मचा रहे थे।
मैं तो चुप था
और सभी के साथ मुझे भी खड़ा कर दिया।’’
बिना किसी गलती के
जीवन में कितना कुछ सहना पड़ता है कितनों को
अभी कहाँ यह उसने जाना
जानेगा भी धीरे-धीरे

सहज न्याय का बोध
अभी तक बना हुआ है
इसीलिए आहत है
दुख से भरा हुआ है।

       समकालीन कविता का एक सामाजिक दायित्व यह भी है कि वह आर्थिक विषमता के दंश, असमानता, विसंगति और विद्रूपता के सच्चे दर्द को शिद्दत से बयाँ करे। कविता में जितना ही अधिक नैतिक बोध होगा उसमें उतनी ही अधिक संप्रेषण शक्ति होगी। जो कवि समाज के नंगे विद्रूप रूप का चित्रण करने के हामी हैं, उनका चित्रण यदि भदेस भी हो तो भी वे अनैतिक मूल्यों का समर्थन नहीं करते। आज के समाज का वास्तविक दर्द है- भूख। दो वक्त की रोटी की समस्या। इस समस्या को गोविन्द द्विवेदी ने अपनी कविता में बखूबी उतारा है। कविता इस प्रकार है-

    मुझे कल्प वृक्ष नहीं चाहिए  
          नहीं चाहिए कामधेनु
          इस पृथ्वी पर
जिन्दा रहने के लिए उतना ही अन्न चाहिए
जितना चींटी अपनी चोंच में  
लेकर चलती है
उतनी ही जमीन
कि पसर सके लौकी की लहर
उतनी ही कपास की ढक जाए लान
स्मृतियों से कल्पना-लोक के
दरवाजे पर दस्तक देती एक सड़क
और नैतिक होने तक देती
शिक्षा
किसी कुबेर का खजाना मुझे नहीं चाहिए
मुझे नहीं चाहिए मगरमच्छों से भरी
घी और दूध की शातिर नदी।

व्यष्टिगत या समष्टिगत दोनों ही धरातलों पर मनुष्य उन तमान स्थितियों से गुजरता है जहाँ वह समाज की परम्परा, विकृति, विसंगति  और अंधविश्वास के अँधेरे में किसी रोशनी की तलाश करता है। इस तलाश में वह आस्था, प्रेम, निष्ठा, सह-अस्तित्व ओर मानवीय मूल्यों को ढूँढता है। किन्तु इसमें एक टकराहट भी है। युग-सत्य, यथार्थ और परम्परागत संस्कृति मे बड़ा वैषम्य है। इस सामाजिक दायित्व को समझकर भी समकालीन कविताएँ रची जा रही हैं। इस सम्बन्ध में ओम प्रकाश वाल्मीकि की एक कविता प्रस्तुत है-

यज्ञों में पशुओं की बलि चढ़ाना
किस संस्कृति का प्रतीक है?
मैं नहीं जानता 
शायद आप जानते हों।

चूहड़े या डोम की आत्मा
ब्रह्म का अंश क्यों नहीं है
मैं नहीं जानता 
शायद आप जानते हों।

मनुष्य की आदिम किन्तु सबसे सुकुमार, सुकोमल वृत्ति है प्रेम। प्रेम का स्वरूप बदला है। आज प्रेम-पत्र का जमाना नहीं है। मोबाइल पर सब कुछ सुलभ है और मोबाइल सबको सुलभ है। पिता ने शादी की बात कहीं चलाई, बात बनी या नहीं, परन्तु संभावित वर-वधू में फोनिक कनेक्शन प्रारम्भ हो गया। पहले जैसा वर्जनाओं से जकड़ा, हृदय को मथ डालने वाला ‘‘परकाजहि देहि को धारि फिरो, परजन्य जथारथ ह्वै बरसो’’ वाला घनानन्दी प्रेम अब कहाँ है। समय का क्रूर बदलाव एक प्रलय की तरह है जहाँ उस घनानन्दी प्रेम को बचाना एक समस्या है। इस सामाजिक दायित्व को बद्री नारायन ने अपनी कविता में बखूबी उतारा है। बानगी प्रस्तुत है-

प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेम-पत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा
चोर आएगा तो प्रेम पत्र चुराएगा
जुआरी प्रेम पत्र पर दाँव लगाएगा
ऋषि आएँगे तो दान मे मांगेंगे प्रेम-पत्र
बारिश आएगी तो
प्रेम-पत्र को ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेम-पत्र
बंदिशें प्रेम-पत्र पर ही लगाई जायेंगीं  
साँप आएगा तो डसेगा प्रेम-पत्र
झींगुर आएँगे तो चाटेंगे प्रेम-पत्र
कीड़े प्रेम-पत्र ही काटेंगे
प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचायेंगे
कोई नही बचाएगा प्रेम-पत्र
कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चाँदी बचाएगा कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊँगा तुम्हारा पत्र

       सामाजिक दायित्व अनगिन हैं और उनके सम्यक निर्वाह में सरस्वती के शत-शत वरद पुत्र लगे हुए हैं। यह कहना आसान नहीं हैं कि समकालीन कविता सामाजिक दायित्व को पूर्णतः निभा पा रही है। सामाजिक जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है और यह भ्रष्टाचार मानव जीवन को अन्दर ही अन्दर खोखला कर रहा है परन्तु इस दिशा में समकालीन कविता का योगदान आशा के अनुरुप प्रतीत नहीं होता। अधिकांश समकालीन कविता अतीत में जो कुछ हुआ उसके पोस्टर्माटम में लगी हुई है और इसे क्रान्तिकारी चिन्तन माना जाता है मानो अतीत में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं। इतिहास इसीलिए नहीं है कि हम उसकी खामियों का अरण्यरोदन करें। इसके विपरीत हमें इतिहास के उन पहलुओं पर विचार करना चाहिए जो आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं। दूसरी ओर समकालीन कविता नितान्त व्यैक्तिक है। कवि अपनी स्वानुभूत पीड़ा को अपनी कविताओं में व्यक्त करता है। यह कविता कुछ-कुछ कवियों एवं साहित्यकारों की समझ में तो आती है परन्तु आम जनता का इस कविता से क्या सरोकार है। अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔधघर से किसी मित्र के साथ निकले। पड़ोस में कुँए पर एक अनपढ़ स्नान कर रहा था और जोर से पाठ कर रहा था- सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। हरिऔध जी ने मित्र से कहा यह होती है कविता। हम लोग क्या खाक कविता करते हैं। केवल अहम-तुष्टि करते हैं। समकालीन कविता का भी यही दर्द है। इसी कारण कविता की पठनीयता कम हुई है। प्रकाशक प्रायः शिकायत करते हैं कि कविता की कोई मार्केट ही नहीं है। अधिकांश कवि स्वयं प्रकाशक बनकर अपनी रचनाएँ छापने हेतु विवश हैं। सर्जनाओं और वर्जनाओं के बीच एक विकट द्वन्द जारी है। यह कुछ-कुछ बालि-सुग्रीव के द्वन्द युद्ध जैसा है इसमें कवि को राम की भूमिका निभानी है। परन्तु इसमें कवि कमजोर पड़ रहा है। संसार में अभी न सत्य मरा है और न मनुष्य के भीतर का सात्विक प्यार। कविता की कमनीयता पर अवश्य आघात हुआ है। आज की कविता प्रायः बेतुकी और रिदमिक प्रोज की तरह हो गई है इसीलिए यदि महज कुंठा,  हताषा, विसंगति, विद्रूप और संस्कृति की निर्मम आलोचना को ही विषय बनाकर अतुकान्त कविताएँ रची जाएँगी और हम नैतिक मूल्यों और शाश्वत सत्यों से सतत निरपेक्ष रहेंगे तो संभवतः कविता सम्पूर्ण नहीं होगी और न वह अपने सामाजिक दायित्वों का भरपूर निर्वाह करने मे समर्थ होगी तब शायद फिर किसी आचार्य को यह दुहराना पड़ेगा कि-

सुरम्य रूपे रस राषि रंजिते विचित्र वर्णाभरणे कहाँ गई?
अलौकिकानन्द विधायनी महा कवीन्द्रकान्ते कविते अहो कहाँ?

पता - ई एस-1/436, सीतापुर रोड योजना,
      अलीगंज, सेक्टर-ए, लखनऊ।



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