Saturday 24 December 2016

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलियाँ

(१)
रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूँगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता।
ठकुरेलाकविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।

(२)
धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव।
मंजिल पर जा पहुँचती, डगमग होती नाव।।
डगमग होती नाव, अन्ततः मिले किनारा।
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
ठकुरेलाकविराय, खुशी के बजें मजीरे।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे-धीरे।।

(३)
बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में।
ठकुरेलाकविराय, न सब कुछ यूँ ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।।

(४)
तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।।
ताकत बनती भीड़, नए इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
ठकुरेलाकविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।।

(५)
ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात।
हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।।
चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते।
कभी-कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
ठकुरेलाकविराय, हुआ इतना ही अवगत।
समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत।।

(६)
थोथी बातों से कभी, जीते गए न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।।
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
ठकुरेलाकविराय, सिखातीं सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।

 (७)
सारा जग अपना बने, यदि हो मृदु व्यवहार।
एकाकीपन झेलता, जिस पर दम्भ सवार।।
जिस पर दम्भ सवार, कठिन जीवन हो जाता।
रहता नहीं सुदीर्घ, कभी अपनों से नाता।
ठकुरेलाकविराय, अन्ततः दम्भी हारा।
करो मधुर व्यवहार, बने अपना जग सारा।।

 (८)
जुड़ जाते हैं जिस घड़ी, दिल के दिल से तार।
मन में खुशियाँ फूटतीं, भाता यह संसार।।
भाता यह संसार, उषा, खगकुल का कलरव।
नदिया, पेड़, पहाड़, चाँद, तारे सब के सब।
ठकुरेलाकविराय, जगत के सब रस भाते।
लगता जगत कुटुम्ब, जब कभी मन जुड़ जाते।।

 (९)
जलता दीपक जिस समय, तम हो जाता दूर।
प्रबल चाह, भरपूर श्रम, मिलती जीत जरूर।।
मिलती जीत जरूर, मंजिलें चलकर आतीं।
मिट जाते सब विध्न, सुगम राहें हो जातीं।
ठकुरेलाकविराय, सहज ही सिक्का चलता।
कर्मवीर के द्वार, दीप खुशियों का जलता।।

 (१०)
जीवन से गायब हुआ, अब निच्छल अनुराग।
झाड़ी उगीं विषाद की, सूखे सुख के बाग।।
सूखे सुख के बाग, सरसता सारी खोई।
कंटक उगे तमाम, फसल यह कैसी बोई।
ठकुरेलाकविराय, तोलते सब कुछ धन से।
यह कैसा खिलवाड़, कर रहे हम जीवन से।।

 (११)
भूले अपनापन सभी, कैसी चली बयार।
दीवारें सहमी खड़ीं, बिखर रहे परिवार।।
बिखर रहे परिवार, स्वार्थ ने रंग जमाया।
रिश्ते हुए तबाह, सभी को धन ही भाया।
ठकुरेलाकविराय, लोग निज मद में फूले।
भाया भौतिकवाद, संस्कृति अपनी भूले।।

 (१२)
रीता घट भरता नहीं, यदि उसमें हो छेद।
जड़मति रहता जड़ सदा, नित्य पढ़ाओ वेद।।
नित्य पढ़ाओ वेद, बुद्धि रहती है कोरी।
उबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी।
ठकुरेलाकविराय, व्यर्थ ही जीवन बीता।
जिसमें नहीं विवके, रहा वह हर क्षण रीता।।

 (१३)
हिन्दी भाषा अति सरल, फिर भी अधिक समर्थ।
मन मोहे शब्दावली, भाव-भंगिमा, अर्थ।।
भाव-भंगिमा अर्थ, सरल है लिखना-पढ़ना।
अलंकार, रस, छंद और शब्दों का गढ़ना।
ठकुरेलाकविराय, सुशोभित जैसी बिन्दी।
हर प्रकार सम्पन्न, हमारी भाषा हिन्दी।।

 (१४)
अभिलाषा मन में यही, हिन्दी हो सिरमौर।
पहले सब हिन्दी पढ़ें, फिर भाषाएँ और।।
फिर भाषाएँ और, बजे हिन्दी का डंका।
रूस, चीन, जापान, कनाडा हो या लंका।
ठकुरेलाकविराय, लिखें नित नव परिभाषा।
हिन्दी हो सिरमौर, यही अपनी अभिलाषा।।

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