त्रिलोक सिंह ठकुरेला
परिचय
जन्म-तिथि -- 01 -10 -1966
जन्म-स्थान -- नगला मिश्रिया (हाथरस)
पिता -- श्री खमानी सिंह
माता - श्रीमती देवी
प्रकाशित कृतियाँ -- नया सवेरा (बाल-साहित्य)
काव्यगंधा (कुण्डलिया संग्रह)
सम्पादन -- आधुनिक हिंदी लघुकथाएं
कुण्डलिया छंद के सात हस्ताक्षर
कुण्डलिया कानन
सम्मान/पुरस्कार -- राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा 'शंभू दयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार'
पंजाब कला, साहित्य अकादमी, जालंधर (पंजाब) द्वारा 'विशेष अकादमी सम्मान'
विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ गांधीनगर (बिहार) द्वारा 'विद्या-वाचस्पति'
हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा 'वाग्विदाम्वर सम्मान'
राष्ट्रभाषा स्वाभिमान ट्रस्ट (भारत) गाज़ियाबाद (उ प्र) द्वारा 'बाल साहित्य भूषण '
निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान, बस्ती (उ प्र) द्वारा 'राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान '
हिन्दी भाषा साहित्य परिषद्, खगड़िया (बिहार) द्वारा 'स्वर्ण सम्मान'
विशिष्टता -- कुण्डलिया छंद के उन्नयन, विकास और पुनर्स्थापना हेतु कृतसंकल्प एवं समर्पित
सम्प्रति -- उत्तर - पश्चिम रेलवे में इंजीनियर
संपर्क -- बँगला संख्या - 99, रेलवे चिकित्सालय के सामने, आबू रोड- 307026 ( राजस्थान)
चल-वार्ता -- 09460714267 / 07891857409
ई-मेल -- trilokthakurela@gmail.com
त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलिया
अपनी भाषा हो सखे, भारत की पहचान।
अपनी भाषा से सदा, बढ़ता अपना मान।।
बढ़ता अपना मान, सहज संवाद कराती।
मिटते कई विभेद, एकता का गुण लाती।
‘ठकुरेला‘ कविराय, यही जन-जन की आशा।
फूले-फले सदैव, हमारी हिन्दी भाषा।।
जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिए निकाल।।
कुछ हल लिए निकाल, असर कुछ कम हो जाता।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता।
‘ठकुरेला‘ कविराय, ताप कम होते मन के।
खुल जाते हैं द्वार, जगत में नव जीवन के।।
ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ।
एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।।
अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती।
बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती।
‘ठकुरेला‘ कविराय, सुखी हो जाता माली।
खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली।।
जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।।
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूँढे मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता।
‘ठकुरेला‘ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन।।
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसितम्बर के मास में ही हमें हिन्दी याद आती है।
सुन्दर कुण्डलियाँ श्री ठकुरेला जी!
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