- डा0 हेमन्त कुमार
साहित्य हमेशा तमाम तरह के खतरों और
विरोधाभासों के बीच लिखा जाता रहा है, और लिखा जाता रहेगा। लेकिन साहित्य तो
अन्ततः साहित्य ही कहा जायेगा, उसे अभिव्यक्त करने का माध्यम भले ही
बदलता जाय। इधर काफ़ी समय से साहित्य जगत में इस बात
से खलबली भी मची है और लोग चिन्तित भी हैं कि अन्तर्जाल का फ़ैलाव साहित्य को नुकसान
पहुँचाएगा। लोगों का चिन्तित होना स्वाभाविक है। लेकिन क्या किसी नये माध्यम के
चैलेंज का साहित्य का यह पहला सामना है? इसके पहले भी तो जब टेलीविजन पर सीरियलों
का आगमन हुआ था, नये चैनलों की भरमार हुयी थी—क्या तब भी साहित्य के सामने यही प्रश्न
नहीं उठे थे? तो क्या चैनलों के आने से साहित्य के लेखन या पठनीयता में कमी आ गयी
थी? अगर आप पिछले दिनों को याद करें तो—‘चन्द्रकान्ता’ धारावाहिक के प्रसारण के बाद ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ उपन्यास तमाम ऐसे लोगों ने पढ़ा जिनसे कभी भी साहित्य का नाता नहीं रहा था। भीष्म
साहनी का उपन्यास “तमस”, मनोहर श्याम जोशी का “कुरु कुरु स्वाहा”, “तमस” और “कक्का जी कहिन” धारावाहिकों के प्रसारण के बाद तमाम पाठकों ने उत्सुकतावश पढ़ा। तो टेलीविजन
ने साहित्य के पाठक कम किये या बढ़ाये? ठीक यही बात मैं अन्तर्जाल या आभासी दुनिया
के लिये भी कहूँगा। अन्तर्जाल के प्रसार और ब्लाग जैसे अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम
की बढ़ती संख्या के साथ ही एक बार फ़िर साहित्य से जुड़े लोगों को तमाम तरह के खतरे
नजर आने लगे हैं। उनके मन में तरह तरह की शंकाएँ जन्म लेने लगी हैं। जबकि मुझे
नहीं लगता कि साहित्य को ब्लाग या अन्तर्जाल से किसी प्रकार का कोई खतरा हो सकता
है क्योंकि किसी भी नये माध्यम के नफ़े नुक्सान दोनों ही होते हैं। अब यह तो
साहित्यकारों के समूह पर है कि वह इस विशाल, वृहद आभासी दुनिया से क्या लेता है
क्या छोड़ता है।
साहित्य के ऊपर इस आभासी दुनिया का सकारात्मक और नकारात्मक
दोनों ही
तरह का प्रभाव पड़ रहा है। सकारात्मक इस तरह कि—
vइस आभासी
दुनिया की वजह से दिग्गजों और मठाधीशों (साहित्य के अखाड़े के) की मठाधीशी अब खतम
हो रही है। पहले जहाँ साहित्य कुछ गिने चुने नामों की धरोहर बन कर रह गया था वो अब सर्व सुलभ हो रहा
है। आप
देखिये कि जहाँ बहुत सारे नये लेखक, कवि—किसी पत्र पत्रिका में छपने को तरस जाते थे (मठाधीशी के कारण) वो
आज इसी आभासी दुनिया के कारण ही प्रकाशित भी हो रहे हैं, पढ़े भी जा रहे हैं और
अच्छा लिख भी रहे हैं।
vआभासी दुनिया में हर रचना का तुरन्त क्विक
रिस्पान्स मिलता है। अच्छा हो या बुरा तुरन्त आपको पता लगता है, आप उसमें परिवर्तन
परिमार्जन भी कर सकते हैं। जब कि प्रिण्ट में ऐसा नहीं है। आपको लिखने के कई-कई
महीने बाद अपनी रचना पर प्रतिक्रियायें मिलती हैं। आप आज लिखते हैं, हफ़्ते भर बाद
किसी पत्र-पत्रिका में भेजते हैं। वह स्वीकृत होकर महीनों बाद छपती है। तब कहीं
जाकर उस पर आपको पाठकीय प्रतिक्रिया मिलती है। जबकि आप ब्लाग पर या किसी सोशल
नेटवर्किंग साइट पर लिखते हैं तो वहाँ आपने रात में लिखा और और सुबह तक आपके पास
प्रतिक्रियायें हाजिर। कुछ तारीफ़ की—कुछ सुझावों या वैचारिक मतभेद के साथ।
vलेखक और प्रकाशक (प्रिण्ट माध्यम) दोनों
अब आमने सामने हैं। आभासी दुनिया में जहाँ लेखक को पाठक उपलब्ध हैं वहीं आज आप
देखिये कि प्रकाशक भी आसानी से अच्छे और नये लेखकों को अन्तर्जाल से लेकर छाप रहा
है। ये हमारे साहित्य, साहित्यकारों, पाठकों सभी के लिये एक शुभ संकेत है।
जहाँ तक नकारात्मक प्रभाव की बात है---उसके खतरों से भी आप
इन्कार नहीं कर सकते।
vबहुत से रचनाकारों की रचनायें अच्छी और
स्तरीय न रहने पर भी “वाह-वाह”, “सुन्दर”,“प्रभावशाली” जैसी टिप्पणियाँ रचनाकार को नष्ट करने का
काम कर रही हैं और इस बेवजह तारीफ़ का शिकार होकर कुछ रचनाकार अपने शुरुआती मेहनत
और लगन के दौर में ही शायद ख़त्म हो सकते हैं।
vऐसे भी रचनाकार यहाँ आपको मिलेंगे जो
सिर्फ़ यही तारीफ़ सुनने या अपना मनोरंजन करने के लिये कुछ भी लिख रहे हैं, जिसका
साहित्य, समाज, देश के लिये या पाठकों के लिये भी कोई उपयोग नहीं। ऐसे साहित्य की
भरमार होने पर इस आभासी दुनिया में से अच्छे रचनाकारों को खोजना अपेक्षाकृत कठिन
हो जायेगा।
इसके बावजूद मेरा मानना यही है कि अन्तर्जाल ने आज साहित्यकारों, पाठकों और
प्रकाशकों को आपस में इतना करीब ला दिया है कि अब प्रकाशित होना, पढ़ा जाना कोई समस्या
नहीं और मुझे लगता है कि यदि इसे थोड़ा सा नियन्त्रण में रखा जाये तो यह आभासी
दुनिया रचनाकारों, पाठकों, प्रकाशकों के बीच एक अच्छे और मजबूत सेतु का काम करेगी।
आज आप देख सकते हैं कि पूरे साहित्य जगत में
ब्लाग, फ़ेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस की चर्चा हो रही है। हर महीने अगर आप नेट पर या
अखबारों में देखें तो किसी न किसी शहर में आपको ब्लागर्स मीट सम्पन्न होने, किसी
ब्लागर के सम्मानित होने, ब्लाग माध्यम पर आधारित किसी पुस्तक का विमोचन होने, ब्लाग्स
पर किसी सेमिनार, संगोष्ठी की खबर जरूर पढ़ने को मिल जायेगी। मेरी जानकारी में कई
विश्वविद्यालयों में भी इस नये माध्यम पर सेमिनार, संगोष्ठियों का आयोजन हुआ है।
इसके अलावा भी विशुद्ध साहित्यिक संगोष्ठियों में भी अब इस माध्यम के बारे में
थोड़ी बहुत चर्चायें तो हो ही रही हैं।
मुझे खुद नेट से जुड़े हुये लगभग
तीन साल हुये हैं। मैं ब्लाग से तब परिचित हुआ जब अमिताभ बच्चन और शाहरुख का वाक
युद्ध ब्लाग पर आया था। मैंने मित्र लोगों से पूछ-पूछ कर ब्लाग के बारे में जानकारी
इकट्ठी की और इसकी मारक क्षमता को समझकर इससे जुड़ गया। आप आश्चर्य करेंगे जहाँ मेरे पाठक 2008 में सिर्फ़ भारत में थे
वहीं आज की तारीख में दुनिया के हर देश में मेरे दो चार पाठक मौजूद हैं। यह सब इसी
आभासी दुनिया का ही तो कमाल है और मुझे लगता है कि जिस रफ़्तार से हमारे देश में (पूरे
विश्व की बात नहीं करूँगा) अन्तर्जाल पर ब्लाग्स, सोशल नेट्वर्किंग साइट्स, समूह, फ़ोरम
बनते जा रहे हैं उससे यही प्रतीत होता है कि पूरे देश में एक तकनीकी क्रान्ति आ
चुकी है जिससे जुड़ कर लोग एक दूसरे के काफ़ी करीब हो रहे हैं, एक दूसरे को सुन रहे
हैं, समझ रहे हैं. इस आभासी दुनिया ने दूरियों को समाप्त कर दिया है और यह सही
वक्त है देश को, समाज को, राष्ट्र को एक सही दिशा देने में इस आभासी दुनिया के
सदुपयोग का। तभी हम सही मायनों में सूचना तकनीकी के सही लाभार्थी कहे जायेंगे।
ईमेल- drkumarhemant@yahoo.com
बहुत अच्छा आलेख .......... हर चीज के सकारात्मक व् नकारात्मक पहलू होते हैं , हमें अगर आगे बढ़ना है तो सकारात्मक पहलूओं पर ध्यान केन्द्रित करना होगा व् नकारात्मक पहलूओं को नजर अंदाज़ करना होगा वैसे भी यह संतुलन जीवन के हर क्षेत्र में बनाना पड़ता है ..........अंतरजाल की वजह से न केवल रचनाकारों को विश्व भर में पाठक मिल रहे है अपितु यह हमारी हिंदी भाषा के प्रचार -प्रसार में भी उपयोगी साबित हुआ है
ReplyDeleteआपका आलेख पढ़ा संक्षिप्त होते हुए भी अपने आप में पूर्ण और सकरात्मक है .. सही मायने में नकारात्मक वातावरण में अंतरजाल द्वारा साहित्य के योगदान को सकारात्मक दृष्टी प्रदान कर रहा है . बहुत -२ बधाई
ReplyDeleteबहुत सुंदर व सारगर्भित आलेख
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