Sunday 25 August 2013

आओ गति दें...

नमस्कार सुहृद साहित्यप्रेमियों... 
भारतीय साहित्य में अनेक ललित विधाएं हैं,जिनमें साहित्य के पुरोधा तो अपनी लेखनी से लालित्य विखेरते ही रहे हैं, हमारे युवा साथी भी पीछे नहीं हैं। इतने मनोरंजक संसाधनों की भरमार और समय की कमी के चलते भी उनका अध्ययन और लेखन के प्रति उत्साह प्रशंसनीय है। आज हम एक सार्वभौम विधा पर नजर डालते हैं जो विश्व की अनेक भाषाओं में अपना परचम फहरा चुकी है,लेकिन दुखद है कि हिंदी में कोई विशेष उपलब्धि नहीं अर्जित कर सकी। उसका चिर परिचित नाम है- 'सानेट'। हिंदी में त्रिलोचन जी ने शुरुआत की,नामवर सिंह जी ने भी कुछ प्रयास किये,फिर बहुत आगे नहीं बढ सकी। इस समय सानेट का कुछ अस्तित्व फिर उभरता हुआ नजर आ रहा है, आपका सहयोग आशातीत है। हिंदी सानेट को समझें,लिखें और गति दें...इटैलियन,अंग्रेजी,फ्रेंच,आदि अनेक भाषाओं के बाद अब हमारी(हिंदी)बारी है। जहाँ तक मेरे संज्ञान में है आदरणीय बृजेश महोदय ओबीओ मंच के माध्यम से खासी पहल कर रहे हैं,हम सबका सहयोग भी आवश्यक है। इसी शुभेच्छा के साथ चलते हैं आपके सुरम्य सूत्रों पर-


  Voice of Silent Majority 
सॉनेट: एक परिचय 
प्रस्तावना- साहित्य भाषाओं की सीमाओं के परे होता है। तमाम विधायें एक भाषा में जन्म लेकर दूसरी भाषाओं के साहित्य में स्थापित हुईं।...


  उच्चारण 
"चले थामने लहरों को" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मय... 
चौकीदारी मिली खेत की, अन्धे-गूँगे-बहरों को। 
 चोटी पर बैठे मचान की, लगा रहे हैं पहरों को।। 
 घात लगाकर मित्र-पड़ोसी, धरा हमारी ...





जीवन संध्या(गीत, गज़ल) 
विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते//गज़ल// 
वे सुना है चाँद पर बस्ती बसाना चाहते। 
 विश्व में आका हमारे यश कमाना चाहते।   
 लात सीनों पर जनों के, रख चढ़े  हैं सीढ़िय..


वागर्थ 
जाने कब से दहक रहे हैं ...... 
जाने कब से दहक रहे हैं .... कविता वाचक्नवी वर्ष 1998 में नागार्जुन की 'हमारा पगलवा' पढ़ते हुए एक अंश पर मन अटक गया था - ...




    जाने कैसा होता होगा     

       वीतराग, वैरागी मन ! 
 भोर किरण क्या छू कर उसको   
आस कोई जगाती होगी ? ...
कुछ पल इन अंधेरो में, 
मुझे जीने दो..... न जाने क्यों अँधेरे... 
 अब मुझे अच्छे लगते है...  डरती तो मै...      


WORLD's WOMAN BLOGGERS ASSOCIATION 
मानव तुम ना हुए सभ्य 
आज भी कई होते चीरहरण कहाँ हो कृष्ण*** 
 रही चीखती क्यों नहीं कोई आया उसे बचाने***...


मेरी कलम मेरे जज़्बात 
विरहा ( सवैया- दुर्मिल) 
विरहा  अगनी  तन  ताप  चढ़े, झुलसे  जियरा  हर सांस जले| 
 जल से जल जाय जिया जब री, हिय की अगनी कुछ और बले| 
 कजरा  ठहरे  छिन  नैन  नही...


  बातें अपने दिल की  
यही है, जो है 
यही अक्षर समूह हैं 
 जिसमे अब मेरा सब है 
 मेरी प्रतिच्छाया, उन्माद, अवसाद    
 हर्ष, आर्तनाद, आह्लाद 
 सब यही है वरन मेरे इस नश्वर शरीर...


शब्दांकन Shabdankan  
हिंदी कहानी कविता लेख  
मामला मौलिकता का… प्रेम भारद्वाज 
हमारे लेखन में पूर्वजों का लेखन इस तरह शामिल होता है जैसे हमारे मांस में हमारे द्वारा खाए गए जानवरों के मांस- बोर्हेस आप किसी ट्रैफिक ...

 आज के लिए इतना ही...
अगले सप्ताह फिर मिलेंगे,
तब तक आज्ञा दीजिए।
नमस्कार! 
शुभ, शुभ!
 सादर!

Sunday 18 August 2013

साहित्यिक अंजुमन में मानोशी का उन्मेष


      कविता सिर्फ भावाभिव्यक्ति नहीं होती बल्कि वह कवि की दृष्टि और अनुभूतियों से भी पाठक का परिचय कराती है। रचना में कवि का अस्तित्व तमाम बंधनों को तोड़कर बाहर प्रस्फुटित होता है। उसके द्वारा चुने गए शब्द उसके भावों को जीते हैं और उस चित्र को साक्षात पाठक के समक्ष जीवंत करते हैं जो कहीं दूर उसके मन के भीतर रचा-बसा और दबा होता है।
      छत्तीसगढ़ के कोरबा शहर में जन्मी और वर्तमान में कनाडा में रह रही नवोदित रचनाकार मानोशी का अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित कविता संग्रह ‘उन्मेष’ मुझे प्राप्त हुआ। बंगाली साहित्य ने उन्हें साहित्य के प्रति प्रेरित किया। गायन में संगीत विशारद की उपाधि प्राप्त चुकी मानोशी के गीतों में उनका संगीत ज्ञान स्पष्ट परिलक्षित होता है। गीतों में उनकी पकड़ इतनी सशक्त है कि भाव स्वयं शब्द का रूप लेकर अभिव्यक्त हो जाते हैं। यह उदाहरण देखें-
‘इक सितारा माथ पर जो, उमग तुमने जड़ दिया था
और भॅंवरा रूप बनकर, अधर से रस पी लिया था
उस समय के मद भरे पल, ज्यों नशे में जी रही हूँ'

      उन्मेष में संग्रहीत 30 गीतों, 21 गज़लों, 10 मुक्तछंद, 8 हाइकू रचनायें, 6 क्षणिकाएं और दोहों में कवियित्री के सृजन की विविधता के रंग बिखरे हैं।सभीविधाओंमेंइनकीकलमबहुतहीमजबूतीसेचलीहै।उन्हें विषयों के लिये श्रम नहीं करना पड़ता। अपने आस-पास के अनुभवों की उनके पास ऐसी विरासत है जो सहज ही उनकी रचनाओं में व्यक्त हो जाती है। विद्रुपताओं को भी उन्होंने एक सुन्दर रूप दिया है। वे कोई घिसा-पिटा मुहावरा लेकर नहीं चलतीं। उन्होंने प्रकृति की निकटता में जीवन की सच्चाइयों को बहुत ही सहजता से स्वीकार किया है। उनकी अनुभूतियों का पटल बहुत ही विस्तृत है। प्राकृतिक अनुभूतियों से लेकर जीवन की सूक्ष्मतम संवेदनाओं और दर्शन का स्पर्श पाठक को इनकी रचनायें पढ़ते समय होता है।
      प्राकृतिक सौंदर्य को जिस खूबसूरती से उन्होंने उकेरा है, उतनी गहनता और संलग्नता बहुत कम देखने को मिलती है। जैसे कोई चित्रकार कैनवास पर दृश्यों को उकेरता है, वही कार्य मानोषी ने अपनी कलम से किया है-
'भोर भई जो आँखें मींचे
तकिये को सिरहाने खींचे
लोट गई इक बार पीठ पर
ले लम्बी जम्हाई धूप'

      उनकी रचनाओं में भाषा और शिल्प सहज है। उनमें भाषा को लेकर विशेष आग्रह नहीं दिखता। सहजता से आए शब्द रचना के अंग हैं जो पाठक को अनुभूतियों के संसार में विचरण करने में सहायक हैं। प्रवाह में कोई भी शब्द बाधक नहीं बनता। सहज भाषा, सार्थक प्रतीकों और बिम्ब प्रयोगों ने रचनाओं की सम्प्रेषणीयता में वृद्धि की है। ये पंक्तियाँ देखें-
'सन्नाटे की भाँग चढ़ाकर
पड़ी रही दोपहर नशे में'

एक चटखारेदार उदाहरण और देखें-
'खट्टे अंबुआ चख गलती से
पगली कूक कूक चिल्लाये'

      रचना में किसी पंक्ति की शुरूआत यदि कारक से की जाए तो आभास यह मिलता है कि किसी वाक्य को तोड़कर दो पंक्तियाँ बना दी गयी हैं। खासकर, गीतों में इससे बचने का प्रयास जरूर करना चाहिए लेकिन लेखन की सतत प्रक्रिया में इस तरह की चीजें रह ही जाती हैं-
'नंगे बदन बर्फ के गोलों
में सनते बच्चे, कच्छे में'

      भाव संप्रेषण इनकी विशेषता है लेकिन कहीं-कहीं भाव उस तेजी से नहीं पहुँचते। पाठक को रूकना पड़ता है, ठहरना और सोचना होता है।
'छटपट उसमें फॅंसी दुपहरी
समय काटने ठूँठ उगाती'

      अनुभूतियों के विविध आयामों को जिस तरह उनकी रचनाओं में स्थान मिला है वह उनकी रचनाओं और इस संग्रह की उपलब्धि है। उनकी रचनायें तार्किकता के आधार पर बजबजाती भावुकता को अपने से दूर धकेलती हैं। मिथकों को नकारते हुए उन्होंने जीवन के सत्य को स्वीकारा है-
'छूटे हाथों से खुशी, जैसे फिसले धूल।
ढूँढा अपने हर तरफ, बस इतनी सी भूल।'

उनकी छंदमुक्त रचनायें सीधे बात करती हैं, बिना कोई ओट लिए-
'घुटनों से भर पेट
फटे आसमाँ से ढक बदन
पैबंद लगी जमीं पर
सोता हूँ मैं आराम से।'

      भीतर की पीड़ा को उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रतिष्ठित कर समाज को दिशा देने की सफल चेष्ठा की है। जीवन के अस्तित्व के सवाल को बहुत खूबी के साथ उनकी रचना में उकेरा गया है। यथार्थ से परिचित कराती उनकी ये पंक्तियाँ-
'वो आखिरी बिंदु
जहाँ ‘मैं’ समाप्त होता है
‘तुम’ समाप्त होता है
और बस रह जाता है
एक शून्य।
आओ उस शून्य को पा लें अब।'

      जीवन के विभिन्न पहलू उनकी रचनाओं में बहुत प्रमुखता से उभरे हैं-
'तेरा मेरा रिश्ता क्या है
दर्द का आखिर किस्सा क्या है'

      उनका दर्द जब बयां होता है तो अपना सा लगता है। यह उनके रचनाकर्म की सशक्तता है।
'कहीं बहुत कुछ भीग रहा था।
हर पंखुड़ी पर जमा थीं कई
पुराने उघड़े लम्हों की दास्ताँ,
एक छोटा सा लम्हा टपक पड़ा'

मानोषी संघर्षों के सत्य को स्वीकारते हुए भी जीवन के प्रति सकारात्मक हैं।
'कुछ मिले काँटे मगर उपवन मिला
क्या यही कम है कि यह जीवन मिला?'

एक और उदाहरण देखें-
'दो क्षण के इस जीवन में क्या
द्वेष द्वंद को सींच रहे हो'

सबसे कठिन दिनों के एकाकीपन को कितनी सुन्दरता से शब्द मिले हैं-
'जब माँगा था संग सभी का
तब कोई भी साथ नहीं था
अब देखो एकांत मनाने जग उन्माथ नहीं देता है'

अपने को पहचानने की छटपटाहट उनकी रचनाओं में भी मुखरित हुई है-
'और अकेले जूझती हूँ,
पहनती हूँ दोष,
ओढ़ती हूँ गालियाँ,
और फिर भी सर ऊँचा कर
ख़ुद को पहचानने की कोशिश करती हूँ'

      प्रकृति के सानिध्य में पकी और जीवन को करीब से जीती मानोशी की रचनायें पाठक को एक सुखद अनुभव दे जाती हैं।
      अंजुमन प्रकाशन ने इस पुस्तक को बहुत सुन्दर रूप दिया है। प्रूफ की कोई त्रुटि नहीं है। प्रिन्टिंग की गुणवत्ता बहुत ही उच्च कोटि की है। इसके लिए अंजुमन प्रकाशन विशेष तौर पर बधाई के पात्र हैं।
!! पुस्तक विवरण !! 
कवियत्री - मानोशी 
प्रकाशन वर्ष - 2013 
ISBN - 13 - 9788192774602 
पृष्ठ संख्या - 112 
बाईंडिंग - हार्ड बाउंड 
प्रकाशक - अंजुमन प्रकाशन,  इलाहाबाद


                         -        बृजेश नीरज

Sunday 11 August 2013

अनुभूति मनोरम..

आदरणीय सुधीवृन्द सादर वन्दे! 
मित्रों सावन चल रहे हैं, ग्रामीण अंचल में जहाँ देखो हरियाली ही हरियाली... कहीं झूले पर गीत गाती किशोरियां तो कहीं हरी हरी चूड़ियां खनकाती वधुएं... मेंहदी की खुशबू से तो परिवेश ही महक रहा है। बहनें भाइयों के लिए हर दिन पूजा अर्चन कर उनकी कुशलता के विनय में तल्लीन हैं तो भाईयों के हृदय भी बहनों के लिए अगाध प्रेम छलका रहे हैं। तीर्थ स्थल की सड़कें, शिव जी के स्थान कांवरियों के श्रद्धा-रंगों से सराबोर है। वास्तव में कितना मनोरम है ये सब! इस परिवेश से आनन्दित होने के बाद एक प्रश्न अन्त:करण को कचोटता है कि कहीं शहरों की तरह गाँव से भी तो नहीं रम्यता छिन जाएगी?? यहाँ की भी आन्तरिक प्रफुल्लता कहीं औपचारिका में तो नहीं बदल जाएगी?? खैर.. जो भी समय आएगा हमें उसका पहलू तो बनना ही पड़ेगा! हमें विज्ञान-जनित साधनों में ही प्राकृतिक सौंदर्य की अनुभूति करनी ही पड़ेगी। 
अब चलते हैं आपके ही साहित्यिक सूत्रों पर जो साहित्य को मनोरम बना रहे हैं-

असल में हर त्योहार या उत्सव को मनाने के पीछे के पारंपरिक तथा सांस्कृतिक कारणों के अलावा एक और कारण होता है, मानवीय भावनाओं का। चूँकि प्रकृत... 


रामदरस मिश्र दिन डूबा अब घर जाएँगे कैसा आया समय कि साँझे होने लगे बंद दरवाजे देर हुई तो घर वाले भी हमें देखकर डर जाएँगे आँखें ... 


हक़ किसी का छीनकर , कैसे सुफल पाएँगे आप ? बीज जैसे बो रहे , वैसी फसल पाएँगे आप।   यूँ अगर जलते रहे , कालिख भरे मन के...

नदी है तो आती है बाढ़ कभी कुछ नहीं होता कभी डूब जाता है सब कुछ। सलामत रहे तुलसी खिलता रहे ऑफिस टाइम तो समझो चकाच... 



आज फिल्म 'दूसरा आदमी' का एक गाना 'क्या मौसम है' जिसे 'किशोर दा, लता दी और मोहम्मद रफ़ी साहब' ने गाया है सुन रहा ...



 Those slanted clouds grey and black images and lines are you back? They look so familiar floating by I try to decipher ...

इस पावन महीनें मे कई ऐसी दुखद घटनाओं से भी हमारा सरोकार हुआ, जिन्हें याद करना भी हृदयविदारक लगता है। शक्ति को भी चुनौती देने वाले लोग आज जब समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं तो समाज की उन्नति की क्या आशा की जाए! हम शुभेच्छा रखते हैं कि आने वाला सप्ताह सुखद हो और शहीदों के परिवार को ईश्वर सांत्वना दे। 
अगले सप्ताह फिर मिलेगें आपके सृजन के साथ, तब तक आज्ञा दीजिए। नागपंचमी की ढेरों शुभकामनाओं के साथ नमस्कार! 
सादर!

Sunday 4 August 2013

रचनाशीलता की पहुंच कहाँ तक???

वन्देऽमातरम्... सुहृद मित्रों! 
आज का समय अनेक विसंगतियों से जूझ रहा है। पूंजीवीदी विकास की अवधारण और वैश्वीकरण नें समाज में गहरी खांइयां डाल दी हैं। सदियों से हमारे देश की पहचान रहे गाँव, किसान हमारी अद्वितीय संस्कृति पर संकट के घनघोर बादल मंडरा रहे हैं। संस्कृति जिसके बूते हमारे राष्ट्र की पताका विश्व में फहराया करती थी, आज... पाश्चात्य के अन्धेनुकरण की दौड़ में रौंदी जा रही है। जब सभी मनोरंजन के साधन उबाऊ सिद्ध हो रहे है।ईमानदार, नि:सहाय और आदमी की सुनने वाला कोई नहीं रहा। ऐसे अराजक और मूल्यहीन विकृत मंजर में दर-दर से ठुकराई दमन के हाशिए पर खड़ी आत्मा की अन्तिम शरणस्थली बचती है तो एकमात्र साहित्य! आज की साहित्य-धर्मिता में ऐसी क्षमता है जो इस स्थिति में मानव-हृदय को सहलाने वाला साहित्य प्रस्तुत कर सके? ये एक यक्ष प्रश्न है। आज के साहित्य में क्या ऐसे नि:सहाय पात्रों को स्थान मिलता है? क्या उन दमित आवाजों को उजागर कर सकता है जिनका सुनने वाला कोई नहीं? ऐसे कई प्रश्न साहित्य-धर्मिता/रचनाशीलता के पल्ले में हैं। मुंशी प्रेमचंद ने कहा है-''साहित्य की गोद में उन्दे आश्रय मिलना चाहिए जो निराश्रय हैं,जो पतित हैं, जो अनादृत हैं।' साहित्य का मूल उद्देश्य हमारी संवेदना को विकसित करना है। पीछे नजर डाल के देखें तो शरतचंद्र चटर्जी का साहित्य पढ पद्दलित महिलाओं के बारे में सोचने को बाध्य करता है, मैक्सम गोर्की का मजदूरों के बारे में। प्रेमचन्द्र के पढें को किसानों की दशा से मन उद्वेलित होता है, टैगोर जी का साहित्य हमारा चित्त अध्यात्मिकता की ओर खींचता है। क्या आज का साहित्य की भूमिका कुछ ऐसी ही है? पर क्या कारण है जो 100 वर्षों से अधिक हो गया है भारतीय साहित्य नोबेल पुरस्कार पर अधिकार नहीं कर सका। ऐसी बात नहीं आज उत्कृष्ट साहित्य-धर्मिता मृतप्राय हो गई है लेकिन कमी अवश्य आई है। आइये अनुमोदन करते हैं आज की रचनाशीलता का, इन सूत्रों के साथ- 


'समय के चित्रफलक पर ' श्री प्रकाश मिश्र जी का काव्य-संग्रह है । मेरा विश्वास है कि आप में से कई जानते भी हों कि...


{अगीत-- अतुकांत कविता की एक विधा है  जो ५ से १० पंक्तियों के अन्दर कही गयी लय व गति, यति से युक... 

A letter from heaven To my dearest family, some things I’d like to say, But first of all to let you know that I arrived okay. ...

एक अधूरे ख्वाब की,
 पूरी रात है.....मेरे पास... तुम हो ना हो, 
तुम्हे जीने का एहसास है.....मेरे पास........ 

अक्सर …. ज़िन्दगी की तन्हाईयो में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ; 
 तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये  नज़र आते है ..   
 एक तुम... 

पूर्वाभास: सरस्वती माथुर की तीन कविताएँ


खुशी है, गाँव अपने जा रहा हूँ 
 महक मिट्टी की सोंधी पा रहा हूँ 
 डगर पहचानती है, साथ हो ली... 

भारतीय नारी: मित्रता एक वरदान !-HAPPY FRIENDSHIP DAY
मित्रता एक वरदान !                                     
 मित्रता का भाव मानव के लिए वरदान है ; 
 जो नहीं ये जानता वो मूर्ख है; नादान है ....

 आज समाज में युवाओं के मनोरंजन के बहुतायत साधन उपलब्ध हैं,परन्तु मनोमंथन के लिए प्रेरित करने वाला एकमात्र उत्तम साहित्य ही है। आज मैंने उभरते हुए साहित्यकारों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, इसलिए आपसे करबद्ध निवेदन है कि टिप्पणी के रूप में मात्र 'अच्छे लिंक्स' के बजाय इस विषय पर अपनी अमूल्य राय के रूप में दो शब्द भी लिखेंगे तो मैं स्वयं को धन्य मानूंगी। 
 सादर शुभेच्छा!

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...