- अशोक पाण्डेय ‘अशोक’
मादकता की सुगंध सनी यदि बौरी रसाल की डाली न होती
मोहकता, मृदुता, मकरन्द से पूरित पंकज-प्याली न होती
प्रेम का पाठ पढ़ाती हुई मधुपों की कतार निराली न होती
तो फिर शायद पाकर घोर वियोग भी कोकिला काली न होती
छवि में उषा की रंग के, खुद को है सरोवर नीर ने हाला किया
रस लेने चले अलि भोर में तो जलजात ने है तन प्याला किया
अनुराग बसा सबमें, सभी ने मिल संयम का है दिवाला किया
चढ़ व्योम में होलिका-धूम ने प्रात, प्रभात का है मुख काला किया
दूर हुआ पतझार है, रूप अनूप से भावुकों का मन मोलो
डाल सुगन्ध समीरण में जन मानस में रस ही रस घोलो
है अलियों ने कहा कलियों सुनों, आयी बहार है चाव से डोलो
बोलो भले न, हँसों खुलके बंधी प्रेम-पराग की पोटली खोलो
धूल ही धूल को झोंकना भूल, असंख्य पलास-अँगार से भागा
दम्भ का दुर्ग ढहा पल में धरा छोड़ प्रसून-सँभार से भागा
जो पतझार डिगा न बबूल प्रहार से, मार की मार से भागा
कोकिल की ललकार से और प्रमत्त मिलिन्द-धमार से भागा
पहने तरुओं ने नए पट हैं, सजे साज दिशाओं की गोरियाँ हैं
किरणें न वसन्त-प्रभा सँग ले, उतरीं सुरलोक-किशोरियाँ हैं
मन बाँधने साधकों का शिखि ने लहरा दीं लताओं की डोरियाँ हैं
मकरन्द कटोरियाँ पुष्प लिए, कलिकायें सुगंध-तिजोरियाँ हैं
प्रति वृक्ष की झूमती डाली रहे, सजी वल्लरी माल निराली रहे
रस पूरित पाटल प्याली रहे, अलि पंक्ति बनी मतवाली रहे
कलिकाओं के आनन लाली रहे, विहगावली कूँजती आली रहे
मन-मोद ले हर्षित माली रहे, हर वाटिका में हरियाली रहे