Tuesday 12 August 2014

रक्षाबंधन

-डॉ. अनिल मिश्र

"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।"

     रक्षासूत्र एवम मंत्र द्वारा रक्षित कर धर्म में स्थिर करने के अति पवित्र एवम शुभ त्योहार का नाम रक्षा बंधन है, इसीलिए अनगिनत भारतीय त्योहारों में इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है।

     प्रतिवर्ष श्रावणमास की पूर्णिमा के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों के दाहिने हाथ पर एक सूत्र बाँधते थे, जिसे रक्षासूत्र कहा जाता था। इसे ही आगे चलकर राखी कहा जाने लगा। यह भी कहा जाता है कि यज्ञ में जो यज्ञसूत्र बाँधा जाता था उसे आगे चलकर रक्षासूत्र कहा जाने लगा।

     रक्षाबंधन की सामाजिक लोकप्रियता कब प्रारंभ हुई, यह कहना कठिन है। कुछ मान्यताएँ निम्नवत हैं-
कुछ पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र है कि भगवान विष्णु के वामनावतार ने राजा बलि के रक्षासूत्र बाँधा था और उसके बाद ही उन्हें पाताल जाने का आदेश दिया था। आज भी रक्षासूत्र बाँधते समय एक मंत्र बोला जाता है उसमें इसी घटना का जिक्र होता है।
परंपरागत मान्यता के अनुसार रक्षाबंधन का संबंध एक पौराणिक कथा से माना जाता है, जो कृष्ण व युधिष्ठिर के संवाद के रूप में भविष्योत्तर पुराण में वर्णित बताई जाती है। इसमें राक्षसों से इंद्रलोक को बचाने के लिए गुरु बृहस्पति ने इंद्राणी को एक उपाय बतलाया था जिसमें श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को इंद्राणी ने इंद्र के तिलक लगाकर उसके रक्षासूत्र बाँधा था जिससे इंद्र विजयी हुए।
वर्तमानकाल में परिवार में किसी या सभी पूज्य और आदरणीय लोगों को रक्षासूत्र बाँधने की परंपरा भी है।
वृक्षों की रक्षा के लिए वृक्षों को रक्षासूत्र तथा परिवार की रक्षा के लिए माँ को रक्षासूत्र बाँधने के दृष्टांत भी मिलते हैं।


येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
     इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बाँधे गए थे, उसी से तुम्हें बाँधता हूँ। हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो।

     धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बाँधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बाँधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गए थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बाँधता हूँ, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूँ। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे! तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।

     शास्त्रों में कहा गया है - इस दिन अपरान्ह में रक्षासूत्र का पूजन करें, उसके उपरांत रक्षाबंधन का विधान है। यह रक्षाबंधन राजा के पुरोहित द्वारा, यजमान के ब्राह्मण द्वारा, भाई के बहिन द्वारा और पति के पत्नी द्वारा दाहिनी कलाई पर किया जाता है। संस्कृत की उक्ति के अनुसार-

जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत।
स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।
     अर्थात् इस प्रकार विधिपूर्वक जिसके रक्षाबंधन किया जाता है वह संपूर्ण दोषों से दूर रहकर संपूर्ण वर्ष सुखी रहता है।


     रक्षाबंधन में मूलत: दो भावनाएँ काम करती हैं-
जिस व्यक्ति के रक्षाबंधन किया जाता है उसकी कल्याण कामना।
दूसरे रक्षाबंधन करने वाले के प्रति स्नेह भावना।

     इस प्रकार रक्षाबंधन वास्तव में स्नेह, शांति और रक्षा का बंधन है। इसमें सबके सुख और कल्याण की भावना निहित है।

     सूत्र का अर्थ धागा भी होता है और सिद्धांत या मंत्र भी। पुराणों में देवताओं या ऋषियों द्वारा जिस रक्षासूत्र बाँधने की बात की गई है वह धागे की बजाय कोई मंत्र या गुप्त सूत्र भी हो सकता है। धागा केवल उसका प्रतीक है।
रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-
ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यंशतानीकाय सुमनस्यमाना:।
तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

     जो भी हो मैं तो इस पावन पर्व पर आप सभी को अपनी अनंत मंगलकामनाएँ अर्पित कर रहा हूँ।

Friday 8 August 2014

हमारे रचनाकार- वीनस केसरी

वीनस केसरी 
जन्म तिथि - १ मार्च 1985
शिक्षा - स्नातक
संप्रति - पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
प्रकाशन - प्रगतिशील वसुधाकथाबिम्बअभिनव प्रयासगर्भनालअनंतिम,गुफ्तगूविश्व्गाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में से से पर ग़ज़ल,गीत व दोहे का प्रकाशन हरिगंधाग़ज़लकारवचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकाशित
विधा - ग़ज़लगीत छन्द कहानी आदि
प्रसारण - आकाशवाणी इलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों  से रचनाओं का प्रसारण
पुस्तक - अरूज़ पर पुस्तक “ग़ज़ल की बाबत” प्रकाशनाधीन
विशेष - उप संपादकत्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद
(अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक)
सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका
(जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३ तक)
पत्राचार - जनता पुस्तक भण्डार942आर्य कन्या चौराहा,  मुट्ठीगंजइलाहाबाद -211003

मो. -  (0)945 300 4398 (0)923 540 7119

वीनस की गज़लें


ग़ज़ल-१
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं
फैसले को खापकी कुछ पगड़ियाँ आने लगीं

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का
अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

आरियाँ खुश थीं कि बस दो चार दिन की बात है
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं

उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में
दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं

बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया
साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं

है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार
आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ
बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़
जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं

उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें
और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं

ग़ज़ल-२
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है पैकर आइना |

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |

गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |

आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |

मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |

अपना अपना हौसला है, अपने अपने फैसले,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |

ग़ज़ल-३
प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो
आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो

उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे
तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो

आपका दिल है तो जैसा चाहिए कीजै सुलूक
परा ज़रा यह देखिए इसमें कोई रहता न हो

पत्थरों की ज़ात पर मैं कर रहा हूँ एतबार
अब मेरे जैसा भी कोई अक्ल का अँधा न हो

ज़िंदगी से खेलने वालों जरा यह कीजिए
ढूढिए ऐसा कोई जो आखिरश हारा न हो

ग़ज़ल-४
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या

ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या

है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या

मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या

धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या

इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या

अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या

मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या

ग़ज़ल-५.
ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं
गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं

मैडम बोली थी घर का नक्शा खींचो
बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं

आईनों पर क्या गुजरी, क्यों ये सब,
पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं

धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है
हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं

जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत
हम कितना सामान बनाए बैठे हैं

वो चाहें तो और कठिन हो जाएँ पर
हम खुद को आसान बनाए बैठे हैं

आप को सोचें दिल को फिर गुलज़ार करें
क्यों खुद को वीरान बनाए बैठे हैं
http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1004&rid=7






Monday 28 July 2014

लघुकथा- थप्पड़

       अपने बच्चों को सिंकते हुए भुट्टे और बिकते हुए जामुनों  को ललचाई नज़रों से देखते हुए वह मन मसोस कर रह जाती थी। आज उसे तनख़्वाह मिली थी, उसके हाथों में पोटली देख कोने में खेलते हुए दोनों बच्चे खिलौने छोड़ दौड़ पड़े। तभी बीड़ी पीते हुए पति ने उससे कहा- ला  पैसे, बहुत दिनों से गला तर नहीं हुआ”... “लेकिन आज मैं बच्चों के लिए...” तड़ाक!..."तो तू मेरे खर्च में कटौती करेगी?”
       पोटली जमीन पर गिरीजामुन  और भुट्टे मैली ज़मीन सूँघने लगे और... माँ पर पड़े थप्पड़ से सहमे हुए बच्चे अपना गाल सहलाते हुए पुनः अपने टूटे-फूटे खिलौनों के साथ कोने में दुबक गए।
                             - कल्पना रामानी 

महिमा श्री की कविताएँ

महिमा श्री का परिचय:-
पिता:- डॉ शत्रुघ्न प्रसाद
माता:- श्रीमती उर्मिला प्रसाद
जन्मतिथि:- १८ अक्टूबर
ईमेल:- mahima.rani@gmail.com
साहित्यिक गतिविधियाँ:- साझा काव्यसंकलन “त्रिसुगंधी” एवं “परों को खोलते हुए-१“ में रचनाएँ,

त्रासदी ....

कुछ कर गुजरने की तमन्ना
कितनी सुखद होती है
कल्पनाशीलता
जिंदगी की सुखद डोर है
जिसे नापते-नापते
आदमी फ़ना हो जाता है
मगर उसका छोर नहीं मिलता 

कल्पना के पर लग जाना 
मनुष्य की सुखद स्मृतियों का
पहला अध्याय है
जिसके सहारे
लाँघता जाता है हर बाधा
कि शायद अब मंजिल नजदीक है
मगर वह नहीं जानता 
मृगमरीचिका की इस स्थिति में
उसे सिर्फ रेत ही मिलेगी  
शायद!
आदमी की यही त्रासदी है

नदी सी मैं ....

जिंदगी के चंद टुकड़े
यूँ ही बिखरने दिया
कभी यूँ ही उड़ने दिया
रखना चाहा जब कभी
संभालकर
समय ने न रहने दिया

नदी सी
मैं बहती रही
कभी मचलती रही
कभी उफनती रही
तोड़कर किनारे
जब भी चाहा बहना
बाँधों से जकड़ा पाया
गंदे नाले हों
या शीतल धारा
जो भी मिला
अपना बना डाला
जिंदगी
कभी नदी सी
कभी टुकड़ों-सी
जैसे भी पाया
बस जी डाला

इन्तजार की  अवधि

मृत्यु
जब तक तुम्हारा वरण नहीं कर लेती
तब तक करो इन्तजार

रखो अटल विश्वास
गले लगा लो सारी प्रवंचनाएँ
मत ठुकराओ दुनियावी बंधन
मान-अपमान की पीड़ाएँ
भीड़ व अकेलेपन की दुविधाएँ
सभी अपना लो
सदियों की धूल
लगा लो माथे पर
चूम लो सारे
अनुग्रह-आग्रह
बाँहे फैलाकर स्वीकारो
जिसे व्यर्थ समझ
ठुकराया था अब तक
क्योंकि तभी आसान हो पाएगी
मृत्यु के इन्तजार की अवधि


गुफ्तगू माँ से....

माँ 
ये कौन सी  सफलता है 
ये कैसा लक्ष्य है
जो ले आया है
तुमसे दूर 
बहुत दूर
ये कैसी तलाश है
कैसा सफ़र है
की मैं चल पड़ी हूँ 
अकेले ही
तुम्हे छोड़ कर
ये कैसी जिद है मेरी
ठुकरा कर छत्र छाया तेरी
निकल पड़ी हूँ
कड़ी धूप में झुलसने को
पर जानती हूँ
तेरी दुआएं है साथ मेरे
जो चलती है संग 
मेरा साया बनकर 
और तपिश को
शीतल कर देती है
ठंडी बयार बन कर
आती है याद मुझे तू
हर दिन
हर रात
फिर से तेरे आँचल में छुपने का
दिल करता है
फिर से तेरे हाथो की  
बनी रोटियां खाने को
जी करता है
पर तुमने ही कहा था न माँ
चिड़िया के बच्चे
जब उड़ना सीख जाते हैं
तो घोसलों को छोड़
लेते हैं ऊँची उड़ान   
और दूर निकल जाते है
मैं भी तो
निकल आई हूँ
बहुत दूर
लौटना अब मुमकिन नहीं
क्योंकि
राहें कभी मुडती नहीं
और प्रवाह नदी का
उलटी दिशा में
कभी बहता नहीं

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...