महिमा श्री का परिचय:-
पिता:- डॉ शत्रुघ्न प्रसाद
माता:- श्रीमती उर्मिला प्रसाद
जन्मतिथि:- १८ अक्टूबर
ईमेल:- mahima.rani@gmail.com
साहित्यिक गतिविधियाँ:- साझा काव्यसंकलन “त्रिसुगंधी” एवं “परों को खोलते हुए-१“ में रचनाएँ,
त्रासदी ....कुछ कर गुजरने की तमन्ना
कितनी सुखद होती है
कल्पनाशीलता
जिंदगी की सुखद डोर है
जिसे नापते-नापते
आदमी फ़ना हो जाता है
मगर उसका छोर नहीं मिलता
कल्पना के पर लग जाना
मनुष्य की सुखद स्मृतियों का
पहला अध्याय है
जिसके सहारे
लाँघता जाता है हर बाधा
कि शायद अब मंजिल नजदीक है
मगर वह नहीं जानता
मृगमरीचिका की इस स्थिति में
उसे सिर्फ रेत ही मिलेगी
शायद!
आदमी की यही त्रासदी है
नदी सी मैं ....
जिंदगी के चंद टुकड़े
यूँ ही बिखरने दिया
कभी यूँ ही उड़ने दिया
रखना चाहा जब कभी
यूँ ही बिखरने दिया
कभी यूँ ही उड़ने दिया
रखना चाहा जब कभी
संभालकर
समय ने न रहने दिया
समय ने न रहने दिया
नदी सी
मैं बहती रही
कभी मचलती रही
कभी उफनती रही
तोड़कर किनारे
कभी मचलती रही
कभी उफनती रही
तोड़कर किनारे
जब भी चाहा बहना
बाँधों से जकड़ा पाया
गंदे नाले हों
या शीतल धारा
जो भी मिला
अपना बना डाला
जिंदगी
कभी नदी सी
कभी टुकड़ों-सी
जैसे भी पाया
बस जी डाला
गंदे नाले हों
या शीतल धारा
जो भी मिला
अपना बना डाला
जिंदगी
कभी नदी सी
कभी टुकड़ों-सी
जैसे भी पाया
बस जी डाला
इन्तजार की अवधि
मृत्यु
जब तक तुम्हारा वरण नहीं कर लेती
तब तक करो इन्तजार
तब तक करो इन्तजार
रखो अटल विश्वास
गले लगा लो सारी प्रवंचनाएँ
मत ठुकराओ दुनियावी बंधन
मान-अपमान की पीड़ाएँ
भीड़ व अकेलेपन की दुविधाएँ
सभी अपना लो
सदियों की धूल
मान-अपमान की पीड़ाएँ
भीड़ व अकेलेपन की दुविधाएँ
सभी अपना लो
सदियों की धूल
लगा लो माथे पर
चूम लो सारे
अनुग्रह-आग्रह
बाँहे फैलाकर स्वीकारो
जिसे व्यर्थ समझ
ठुकराया था अब तक
क्योंकि तभी आसान हो पाएगी
मृत्यु के इन्तजार की अवधि
चूम लो सारे
अनुग्रह-आग्रह
बाँहे फैलाकर स्वीकारो
जिसे व्यर्थ समझ
ठुकराया था अब तक
क्योंकि तभी आसान हो पाएगी
मृत्यु के इन्तजार की अवधि
गुफ्तगू माँ से....
माँ
ये कौन सी सफलता है
ये कैसा लक्ष्य है
जो ले आया है
तुमसे दूर
बहुत दूर
ये कैसी तलाश है
कैसा सफ़र है
की मैं चल पड़ी हूँ
अकेले ही
तुम्हे छोड़ कर
ये कैसी जिद है मेरी
ठुकरा कर छत्र छाया तेरी
निकल पड़ी हूँ
कड़ी धूप में झुलसने को
पर जानती हूँ
तेरी दुआएं है साथ मेरे
जो चलती है संग
मेरा साया बनकर
और तपिश को
शीतल कर देती है
ठंडी बयार बन कर
आती है याद मुझे तू
हर दिन
हर रात
फिर से तेरे आँचल में छुपने का
दिल करता है
फिर से तेरे हाथो की
बनी रोटियां खाने को
जी करता है
पर तुमने ही कहा था न माँ
चिड़िया के बच्चे
जब उड़ना सीख जाते हैं
तो घोसलों को छोड़
लेते हैं ऊँची उड़ान
और दूर निकल जाते है
मैं भी तो
निकल आई हूँ
बहुत दूर
लौटना अब मुमकिन नहीं
क्योंकि
राहें कभी मुडती नहीं
और प्रवाह नदी का
उलटी दिशा में
कभी बहता नहीं