Sunday 2 December 2012

क्षणिकाएँ


खुली खिड़कियॉ

             -अम्बरीश श्रीवास्तव


खुली खिड़कियॉ

हमेशा हैं पर्याय
ताज़गी का
चाहे हो भवन
या फिर कुछ भी।

सत्संग

                 -अम्बरीश श्रीवास्तव


ये चंचल-सी रेत

नहीं बंधती बंधन में
भरभराकर फिसल जाती है
आती है जब-जब वही
सीमेंट की संगत में
ईंट-पत्थर तक
बाँध देती है।


अशांति

            -विष्णु प्रभाकर


तुम हो केवल

अपने लिये नितांत
प्रश्न करता है मुझसे
मेरा वृत्तंत
कैसे हो गये तुम प्राण
यूँ अशांत
दौड़ता फिरता हूँ मैं
यहाँ-वहाँ
कहाँ-कहाँ
पर होता कहीं नहीं।


चेतना

              -विष्णु प्रभाकर


मेरे अंधेरे बंद मकान के

खुले आंगन में
कैक्टस नहीं उगते
मनीप्लांट ख़ूब फैलता है
लोग कहते हैं
पौधों में
चेतना नहीं होती।

अहसास

               -विष्णु प्रभाकर


सिसिफस

हनुमान
या
अश्वत्थामा
सभी मनुष्य थे
चढ़े और गिरे
लेकिन मैं नहीं गिरूंगा
मैंने अपने अहसास को
कील दिया है।


दो चित्र: तब और अब

               -विष्णु प्रभाकर


शिव का तांडव नर्तन

लेटी है माँ
जहाँ उनके चरणों में
और लील गया है वह स्पर्श
उनकी उग्रता को
भाषा के क्रूर हाथों में
मनुष्य का कंकाल
उगल रहा है, काला लहू।

बाज़ार

               -विष्णु प्रभाकर


फोन की घंटी बजी

मैंने रिसीवर उठाया
उधर से पूछा किसी ने
सुनंदा है क्या?
बाज़ार गई है।
कब तक लौटेगी?
बाज़ार से लौटने का
समय होता है क्या?

स्वर्ग-नरक

                 -विष्णु प्रभाकर

शक्ति नहीं है

कर सकूँ निर्माण स्वर्ग का
बाधा बनूँ क्यों तब
उनकी
जिनकी मंज़िल है नरक।
कौन जाने वह नरक ही है
स्वर्ग मेरा
क्योंकि अंतत:
दिए हैं अर्थ
मैंने ही
शब्द को।

इतिहास

               -विष्णु प्रभाकर

आदमी मर गया कभी का

पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!

डूबना

                -विष्णु प्रभाकर

मैंने उसकी कविता पढ़ी

शब्द थे केवल उन्नीस
पर मैं डूबा तो-
डूबता ही चला गया-
अवश, अबोल, आकंठ।

ये तो नहीं कि ग़म नहीं


                       -फ़िराक़ गोरखपुरी


ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं 

तुम भी तो तुम नहीं हो आज 
हम भी तो आज हम नहीं 

अब खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं 

मेरी नशिस्त है ज़मीं 
खुल्द नहीं इरम नहीं 

क़ीमत--हुस्न दो जहाँ 
कोई बड़ी रक़म नहीं 

लेते हैं मोल दो जहाँ 
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम--सलात से फ़िराक़ 
मेरे गुनाह कम नहीं 

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं


Harivansh Rai Bachchan






मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी
प्रिय तुम आते तब क्या होता?



मौन रात इस भांति कि जैसे
कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी
सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ
जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारे तान कहीं से यदि सुन पाते
तब क्या होता?
तुमने कब दी बात 
रात के सूने में तुम आने वाले,
पर ऐसे ही वक्त प्राण मन
मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम फिरफिर से
असमंजस के क्षण गिनती हैं,




मिलने की घड़ियाँ तुम निश्चित
यदि कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में
मैंने पलक पाँवड़े डाले,
अम्बर तो मशहूर कि सब दिन
रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महफिल ने अपनी 
आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते 
तुम दिख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हूँ
पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर
आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन
सागर में घुलमिल सा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर प्रिय
कण्ठ लगाते तब क्या होता?









Wednesday 28 November 2012

ऐ इन्सानो!


- गजानन माधव मुक्तिबोध

आँधी के झूले पर झूलो !
आग बबूला बन कर फूलो !
कुरबानी करने को झूमो !
लाल सवेरे का मूँह चूमो !
इन्सानो ओस चाटो !
अपने हाथों पर्वत काटो !
पथ की नदियाँ खींच निकालो !
जीवन पीकर प्यास बुझालो !
रोटी तुमको राम देगा !
वेद तुम्हारा काम देगा !
जो रोटी का युद्ध करेगा !
वह रोटी को आप वरेगा !



केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...