1
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभू लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुस्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मुहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ित्ने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं
ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराये से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं
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2
ऐ जज़्ब-ए-निहाँ और कोई है के वही है
ख़िलवत-कदा-ए-दिल में आवाज़ हुई है
कह दे तो ज़रा सर तेरे दामन में छिपा लूँ
और यूँ तो मुक़द्दर में मेरे बे-वतनी है
वो रंग हो या बू हो के बाद-ए-सहरी हो
ऐ बाग़-ए-जहाँ जो भी यहाँ है सफ़री है
ये बारिश-ए-अनवर ये रंगीनि-ए-गुफ़्तार
गुल-बारी-ओ-गुल-सैरी-ओ-गुल-पैरहनी है
ऐ ज़िंदगी-ए-इश्क़ में समझा नहीं तुझ को
जन्नत भी जहन्नुम भी ये क्या बूलजबी है
है नुत्क़ जिसे चूमने के वास्ते बेताब
सौ बात की इक बात तेरी बे-सुखनी है
मौजें हैं मै-ए-सुर्ख़ की या खट्ट-ए-दहन हैं
लब है कि कोई शोला-ए-बर्क़-ए-अम्बी है
जागे हैं "फ़िराक़" आज ग़म-ए-हिजराँ में ता-सुबह
आहिस्ता से आ जाओ अभी आँख लगी है
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3
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मेरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान-ओ-इमाँ है
निगाहें मिलते ही जो जान और इमान लेते हैं
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरहा मानी जान लेते हैं
तुझे घाटा न होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तेरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
हमारी हर नज़र तुझसे नयी सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैग़ाम लेते हैं
“फ़िराक़” अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई क़ाफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं
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4
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तेरा जवाब नहीं
ज़मीन जाग रही है कि इन्क़लाब है कल
वो रात है कोई ज़र्रा भी मह्व-ए-ख़्वाब नहीं
ज़मीं उसकी फ़लक उस का क़ायनात उसकी
कुछ ऐसा इश्क़ तेरा ख़ानमा ख़राब नहीं
जो तेरे दर्द से महरूम है यहाँ उनको
ग़म-ए-जहाँ भी सुना है कि दस्तयाब नहीं
अभी कुछ और हो इन्सान का लहू पानी
अभी हयात के चेहरे पे आब-ओ-ताब नहीं
दिखा तो देती है बेहतर हयात के सपने
ख़राब हो के भी ये ज़िन्दगी ख़राब नहीं
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5
ग़ैर क्या जानिये क्यों मुझको बुरा कहते हैं
आप कहते हैं जो ऐसा तो बजा कहते हैं
वाक़ई तेरे इस अंदाज़ को क्या कहते हैं
न वफ़ा कहते हैं जिसको न जफ़ा कहते हैं
हो जिन्हें शक़ वो करें और ख़ुदाओं की तलाश
हम तो इंसान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं
तेरी सूरत नज़र आई तेरी सूरत से अलग
हुस्न को अहल-ए-नज़र हुस्न-नुमा कहते हैं
शिकवा-ए-हिज्र करें किस दिल से
हम ख़ुद अपने को भी अपने से जुदा कहते हैं
तेरी रुदाद-ए-सितम का है बयाँ ना-मुमकिन
फ़ायदा क्या है मगर यूँ ज़रा कहते हैं
लोग जो कुछ भी कहें तेरी सितम-कोशी को
हम तो इन बातों को अच्छा न बुरा कहते हैं
औरों का तजुर्बा जो कुछ हो मगर हम तो “फ़िराक़"
तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं
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