- डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव
जब हम
भाषा के वैश्विक परिदृश्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें भाषा विशेष की
क्षमताओं के बारे में आश्वस्त होना पड़ता हैI वैश्विक धरातल पर कोई भी भाषा
यूँ ही अनायास उभर कर अपना वर्चस्व नहीं बना सकतीI इसके पीछे भाषा की सनातनता का
भी महत्वपूर्ण हाथ हैI स्वतंत्र
भारत में जब पह्ला लोक-सभा निर्वाचन हुआ था उस समय हिन्दी भाषा विश्व में पाँचवे पायदान
पर थीI आज
उसे प्रथम स्थान का दावेदार माना जा रहा हैI अन्य बातें जिनकी चर्चा अभी
आगे करेंगे उन्हें यदि छोड़ भी दें तो भाषा
की वैश्विकता के दो प्रमुख आधार हैंI प्रथम यह कि आलोच्य भाषा कितने बड़े भू-भाग में
बोली जा रही है और उस पर कितना साहित्य रचा जा रहा हैI दूसरी अहम् बात यह है कि वह
भाषा कितने लोगों द्वारा व्यवहृत हो रही हैI इस पर विचार करने से पूर्व
किसी भाषा का वैश्विक परिदृश्य क्या होना चाहिए और एतदर्थ किसी भाषा विशेष से
क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं, इस
पर चर्चा होना प्रासंगिक
एवं समीचीन हैI
विश्व स्तर पर किसी भाषा के प्रख्यापित होने
के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उसका एक विशाल और प्रबुद्ध काव्य-शास्त्र हो, उसमें लेखन की एक सुदीर्घ और
सुगठित परंपरा हो, साहित्य-भंडार
समृद्ध होI उसमें
अनेक वैविध्यपूर्ण विधाएँ हों और उन विधाओं पर सतत एवं अव्याहत प्रचुर लेखन
प्रवहमान होI
साथ ही, उस भाषा की कम से कम एक विधा ऐसी अवश्य हो जो विश्व स्तर पर स्वीकार्यता
पा चुकी होI वैश्विक
स्तर पर वही भाषा टिक पाएगी जिसका शब्द-भंडार या शब्द-कोश बड़ा होI उस भाषा में औदात्य भी
होना चाहिए ताकि वह अपने शब्द-भंडार को निरंतर बढ़ाता जाएI इस लिहाज से हिन्दी का यह
सौभाग्य रहा है कि भारत में अनेक विदेशियों ने आकर शासन किया जिनमें तुर्क, मंगोल, अफगान, मुग़ल, फ्रांसीसी, पुर्तगीज और विशेकर
अंग्रेज थेI इन
शासकों ने अपनी भाषा में दरबार चलाया और देश का शासन कियाI फलस्वरूप हिन्दी भाषा शासकीय
भाषाओँ से प्रभावित हुई और उसका शब्द भंडार जो संस्कृत के प्रभाव से पहले ही
अत्यधिक समृद्ध था, वह
और भी संपन्न होता गयाI आज
अरबी, फ़ारसी, उर्दू, फ्रांसीसी,
पुर्तगाली और अंग्रेजी आदि भाषाओँ के शब्दों को आत्मसात कर हिन्दी विश्व की
श्रेष्ठ भाषाओं की जमात में शामिल हैI
वैश्विक स्तर पर भाषा को ज़मने के लिए जो
सबसे महत्वपूर्ण एवं आवश्यक शर्त है वह है भाषा की निज अभिव्यक्ति क्षमता (SELF POWER OF EXPRESSION)I यदि भाषा विश्व के सभी
लोगों को अपनी बात समझाने में असमर्थ है या यूँ कहें की
उसमे संप्रेषणीयता का स्तर उच्च नहीं है और भाषा में विचार-विनिमय की आप्यायिनी
शक्ति नहीं है, हमारा
संलाप (INTERACTION) एक–दूसरे को सही तरीके से
प्रभावित नहीं कर पा रहा है तो वैश्विक धरातल पर भाषा के टिके रहने का न कोई आधार
है और न औचित्य I
विश्व में हजारों भाषाएँ हैं लेकिन कुछ
ही भाषाओँ के साहित्य का स्तर इतना समुन्नत है कि उस भाषा की रचनाओं का अनुवाद
विश्व की अनेक भाषाओँ में होI जिस
भाषा का जितना अधिक साहित्य विश्व की अन्यान्य भाषाओँ में अनूदित किए जाने की एक
निरंतर परंपरा रहेगी, निश्चित
रूप से उसकी प्रयोजनीयता प्रामाणिक मानी जाएगी और विश्व स्तर पर उसकी प्रतिष्ठा
अक्षुण्ण बनी रहेगीI
डा0 करुणाशंकर उपाध्याय के अनुसार विश्वस्तरीय भाषा ऐसी होनी चाहिए कि— ‘उसमें मानवीय और यांत्रिक अनुवाद की
आधारभूत तथा विकसित सुविधा हो जिससे वह बहुभाषिक कम्प्यूटर की दुनिया में अपने
समग्र सूचना स्रोत तथा प्रक्रिया सामग्री (सॉफ्टवेयर) के साथ उपलब्ध हो। साथ ही, वह इतनी समर्थ हो कि वर्तमान प्रौद्योगिकीय
उपलब्धियों मसलन ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट
तथा एस.एम.एस. एवं वेब जगत में प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी सक्रिय उपस्थिति का अहसास
करा सके।’
वैश्विक परिदृश्य के अंतर्गत भाषा में यह
गुण होना भी अपरिहार्य है कि वह आवश्यकता के अनुरूप अपने ही शब्द भंडार से नए शब्द
गठित कर सके जैसे हिन्दी ने ‘ट्रेजेडी’ को ‘त्रासदी’ और ‘रोमांटिक’ को ‘रूमानी’ बनायाI भाषा के इस लचीले गुण
से ही पारिभाषिक शब्दावलियाँ गठित होती हैंI शासन के कार्य में आने वाले
अनेक शब्दों की बड़ी व्यापक पारिभाषिक शब्दावली हिन्दी में उपलब्ध हैI यही नहीं विज्ञान और
प्रौद्द्योगिकी की नित्य संवर्धनशील शब्दावलियाँ हिन्दी भाषा में गठित हुई हैंI वैश्विक
भाषा के लिए यह भी आवश्यक है कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम
आविष्कृतियों को अभिव्यक्त करते हुए मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को
वाणी देने में भी समर्थ हो।
भाषा-लिपि का भी वैश्विक परिदृश्य में बड़ा
महत्त्व हैI लिपि
का संगठन वैज्ञानिक आधार पर होना चाहिएI लिपि का सरल एवं सुबोध होना भी आवश्यक हैI लिपि ऐसी न हो कि जिसके
विलेखन में आर्टिस्टिक प्रतिभा की आवश्यकता पड़ेI लिपि सरल एवं आयास रहित होनी चाहिए
और उसमें परिष्कार की संभावनाएं भी हों जो विलेखन की दुरुहता का परिहार कर सकेंI अक्षर ऐसे हों, जिनके
उच्चारण में विशेष आयास की आवश्यकता न हो और जिनका शुद्ध एवं परिष्कृत उच्चारण
संभव हो और उनमें संगीतात्मकता एवं लय हो जैसे हिन्दी में स रे ग म --- संगीतात्मक
हैंI
इस संचार युग में जो भाषा समय के साथ ताल
से ताल मिलाकर चल सके जिसमें नवीन प्रयोगों और अनुसंधानों को आत्मसात करने की
क्षमता हो केवल वही भाषा वैश्विक परिदृश्य पर टिक सकती हैI अतः भाषा को ज्ञान-विज्ञान
के तमाम अनुशासनों के अधीन वाङमय सृजित
एवं प्रकाशित करने तथा नए विषयों पर सामग्री तैयार करने हेतु सक्षम होना आवश्यक हैI वैश्विक
स्तर के धरातल पर टिकने वाली भाषा से यह भी अपेक्षित है कि वह नवीनतम वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों के साथ
अपने आपको पुरस्कृत एवं समायोजित करने की क्षमता से युक्त हो और वह अंतरराष्ट्रीय
राजनीतिक संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक चिंताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक
भी हो, साथ ही वह जनसंचार माध्यमों में
बडे पैमाने पर देश-विदेश में प्रयुक्त हो रही हो।
वैश्विक भाषा के लिए जो सर्वाधिक
अपेक्षित बात है, वह यह है कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम आविष्कृतियों
को अभिव्यक्त कर मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को वाणी देने में भी
समर्थ हो तथा उसमे ‘वसुधैव कुटुम्बक’ और ‘सर्वे
भवन्तु सुखिनः’ जैसी उदात्त भावनाओं का समावेश भी
होI
उपर्युक्त निकष पर जब हम हिन्दी भाषा की
परख करते हैं तो हमें अनेक सुखद पहलू दिखाई देते हैंI इसकी देवनागरी लिपि संभवतः विश्व की सर्वाधिक
वैज्ञानिक लिपि हैI यह जैसी
लिखी जाती है वैसी ही पढी जाती हैI इसमें
अंग्रेजी के GO और TO तथा PUT और BUT जैसा उच्चारण वैषम्य नहीं हैI इसी प्रकार CALM और BALM जैसे शब्दों में L के साइलेंट होने जैसी कोई व्यवस्था नहीं हैI हिंदी में कैपिटल और स्माल लैटर
का भी झंझट नहीं हैI उच्चारण और
एक्सेंट की समस्या नहीं हैI
बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी
का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ हैI वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार
के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढ़ी है वैसी किसी और भाषा में नहीं हुआ
हैI आज
हिन्दी विश्व के सभी महाद्वीपों एवं उनमें स्थित लगभग 140 देशों में बोली जाती हैI विश्व के
लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े क़ेंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर
से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई हैI
विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएँ लगभग नियमित
रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैंI यूएई क़े 'हम एफ एम' सहित अनेक
देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके
वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से
उल्लेखनीय हैI आज वह विश्व के आकाश में चन्द्रिका की तरह छिटक
रही हैI तेजी
से विकसित होती अर्थव्यवस्था, मीडिया
के वर्चस्व, वैश्वीकरण एवं उदारीकरण ने हिंदी के विकास में
अहम भूमिका निभायी है। उदारीकरण ने हिंदी को बाजार की भाषा बनाया, क्योंकि विश्व के
पूंजीवादी देशों की व्यावसायिक दृष्टि भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखती हैI प्रयोगकर्ताओं की संख्या
के आधार पर 1952 में हिंदी विश्व में पाँचवे स्थान पर थीI 1980 के आसपास वह चीनी और
अंग्रेजी क़े बाद तीसरे स्थान पर आईI 1991 की जनगणना में हिंदी को मातृभाषा घोषित करने
वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों की
संख्या से अधिक है। सन् 1998 में यूनेस्को प्रश्नावली को दिए गए जवाब में भारत
सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने
‘संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक
भाषाएँ एवं हिन्दी’ शीर्षक जो
विस्तृत आलेख भेजा उसके बाद विश्व स्तर पर यह स्वीकृत हो चुका है कि वाचकों की
संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद हिन्दी का विश्व में दूसरा स्थान है। सन
1999 में ‘मशीन ट्रांसलेशन समिट' अर्थात् ‘यांत्रिक अनुवाद’ नामक संगोष्ठी में टोकियो विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आँकड़े
पेश करके सिद्ध किया कि विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी
का द्वितीय है और अंग्रेजी तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है, किन्तु यहाँ
यह जान लेना भी आवश्यक है कि चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की
अपेक्षा काफी सीमित है।
डॉ0 जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपने भाषा शोध
अध्ययन 2005 में हिन्दी वाचकों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन
सौ बावन घोषित की है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या मात्र नब्बे करोड़ चार लाख छह
हजार छह सौ चौदह बताया है। किन्तु आँकड़ों के खेल यदि मान लिया जाए कि रहस्यमय होते
हैं तो भी उन्हें बिलकुल ही दरकिनार तो नहीं किया जा सकता। हम इस सच्चाई से तो मुख
नहीं मोड़ सकते कि हिंदी भाषियों की संख्या विश्व की दो सबसे अधिक बोली जाने वाली
भाषाओं में से एक है। उपर्युक्त विचारों और अनुसंधानों के निष्कर्ष यदि हमें
आत्माश्लाघा में न डालें तो भले ही अंग्रेजी का नंबर वाचकों की संख्या की दृष्टि
से तीसरा भासित होता है पर उसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि हिन्दी और चीनी भाषाओं को
उतना प्रसार बनाने में बड़ा भागीरथ यत्न करना होगा।
पता- ई एस-1 436, सीतापुर रोड योजना कालोनी अलीगंज सेक्टर-ए, लखनऊ