बिके हुएलोग
-विष्णु प्रभाकर
चुके हुए लोगों से
ख़तरनाक़ हैं
बिके हुए लोग
वे
करते हैं व्यभिचार
अपनी ही प्रतिभा से
अकविता
-विष्णु प्रभाकर
मुँह-से-मुँह मिलाकर
बोले वह
बुर्र बुर्र बुर्र
कानाबाती कुर्र कुर्र कुर्र
टीली-लीली झर्र-झर्र-झर्र
अरे रे रे
दुर्र दुर्र दुर्र
निकटता
-विष्णु प्रभाकर
त्रास देता है जो
वह हँसता है
त्रसित है जो
वह रोता है
कितनी निकटता है
हँसने और रोने में
स्वप्न
-गोग
आज मैं
एक अमीर और इज़्ज़तदार आदमी
बन रहा था
कि अचानक
किसी ने कहा-
“चल उठ!
सुबह हो गई।”
मैं ही मैं
-विष्णु प्रभाकर
जीवन के अन्तिम छोर पर खड़ा
मैं
सोचता हूँ -
जिन्होंने मुझसे घृणा की,
जिन्होंने मेरी उपेक्षा की,
वही सत्य थे।
क्योंकि-
करता नहीं कोई घृणा किसी से।
करता नहीं कोई उपेक्षा किसी की।
करता है ‘मैं’ ही ‘मैं’ का मूल्यांकन।
न्याय
-विष्णु प्रभाकर
न्याय मिलता नहीं है
विवेक से
सत्य और असत्य के।
मिलता नहीं है वह दुरन्त
मानवीय भावना में
साक्षी-
केवल साक्षी है आधार
उसके आस्तित्व का
और बाज़ार पटे पड़े हैं
असंख्य अनाहूत साक्षियों से।
कितना सुलभ है न्याय
महंगाई के इस युग में।
सत्य
-विष्णु प्रभाकर
सत्य है स्थापना वह
प्रमाणित होती
जो मात्रा तर्क से -
और तर्क आश्रित है
बुद्धि-चातुर्य पर
जितना चतुर है जो
उतना ही निरपेक्ष है
असत्य उसका।
कहाँ है वो
-प्रभाकिरण जैन
एक ऊँची मचान पर
जहाँ से
ज़िन्दगी की
हर भागदौड़
चहलक़दमी लगे
मैं भी
खड़े होकर
देखना चाहती हूँ
ज़िन्दगी की चादर
-अलका सिन्हा
ज़िन्दगी को जिया मैंने
इतना चौकस होकर
जैसे कि नींद में भी रहती है सजग
चढ़ती उम्र की लड़की
कि कहीं उसके पैरों से
चादर न उघड़ जाए।