Sunday 12 April 2015

भाषाओं का वैश्विक परिदृश्य और हिन्दी

              - डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

जब हम भाषा के वैश्विक परिदृश्य की बात करते हैं तो सबसे पहले हमें भाषा विशेष की क्षमताओं के बारे में आश्वस्त होना पड़ता हैI वैश्विक धरातल पर कोई भी भाषा यूँ ही अनायास उभर कर अपना वर्चस्व नहीं बना सकतीI इसके पीछे भाषा की सनातनता का भी महत्वपूर्ण हाथ हैI स्वतंत्र भारत में जब पह्ला लोक-सभा निर्वाचन हुआ था उस समय हिन्दी भाषा विश्व में पाँचवे पायदान पर थीI आज उसे प्रथम स्थान का दावेदार माना जा रहा हैI अन्य बातें जिनकी चर्चा अभी आगे करेंगे उन्हें यदि छोड़  भी दें तो भाषा की वैश्विकता के दो प्रमुख आधार हैंI प्रथम यह कि आलोच्य भाषा कितने बड़े भू-भाग में बोली जा रही है और उस पर कितना साहित्य रचा जा रहा हैI दूसरी अहम् बात यह है कि वह भाषा कितने लोगों द्वारा व्यवहृत हो रही हैI इस पर विचार करने से पूर्व किसी भाषा का वैश्विक परिदृश्य क्या होना चाहिए और एतदर्थ किसी भाषा विशेष से क्या-क्या अपेक्षाएँ हैं, इस पर चर्चा होना प्रासंगिक एवं समीचीन हैI

      विश्व स्तर पर किसी भाषा के प्रख्यापित होने के लिए यह नितांत आवश्यक है कि उसका एक विशाल और प्रबुद्ध काव्य-शास्त्र हो, उसमें लेखन की एक सुदीर्घ और सुगठित परंपरा हो, साहित्य-भंडार समृद्ध होI उसमें अनेक वैविध्यपूर्ण विधाएँ हों और उन विधाओं पर सतत एवं अव्याहत प्रचुर लेखन प्रवहमान होI साथ ही, उस भाषा की कम से कम एक विधा ऐसी अवश्य हो जो विश्व स्तर पर स्वीकार्यता पा चुकी होI वैश्विक स्तर पर वही भाषा टिक पाएगी जिसका शब्द-भंडार या शब्द-कोश बड़ा होI उस भाषा में औदात्य भी होना चाहिए ताकि वह अपने शब्द-भंडार को निरंतर बढ़ाता जाएI इस लिहाज से हिन्दी का यह सौभाग्य रहा है कि भारत में अनेक विदेशियों ने आकर शासन किया जिनमें तुर्क, मंगोल, अफगान, मुग़ल, फ्रांसीसी, पुर्तगीज और विशेकर अंग्रेज थेI इन शासकों ने अपनी भाषा में दरबार चलाया और देश का शासन कियाI फलस्वरूप हिन्दी भाषा शासकीय भाषाओँ से प्रभावित हुई और उसका शब्द भंडार जो संस्कृत के प्रभाव से पहले ही अत्यधिक समृद्ध था, वह और भी संपन्न होता गयाI आज अरबी, फ़ारसी, उर्दू, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और अंग्रेजी आदि भाषाओँ के शब्दों को आत्मसात कर हिन्दी विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं की जमात में शामिल हैI
                                               
        वैश्विक स्तर पर भाषा को ज़मने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण एवं आवश्यक शर्त है वह है भाषा की निज अभिव्यक्ति क्षमता (SELF POWER OF EXPRESSION)I यदि भाषा विश्व के सभी लोगों को अपनी बात समझाने में असमर्थ है या यूँ कहें  की उसमे संप्रेषणीयता का स्तर उच्च नहीं है और भाषा में विचार-विनिमय की आप्यायिनी शक्ति नहीं है, हमारा संलाप (INTERACTION) एकदूसरे को सही तरीके से प्रभावित नहीं कर पा रहा है तो वैश्विक धरातल पर भाषा के टिके रहने का न कोई आधार है और न औचित्य I

        विश्व में हजारों भाषाएँ हैं लेकिन कुछ ही भाषाओँ के साहित्य का स्तर इतना समुन्नत है कि उस भाषा की रचनाओं का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाओँ में होI जिस भाषा का जितना अधिक साहित्य विश्व की अन्यान्य भाषाओँ में अनूदित किए जाने की एक निरंतर परंपरा रहेगी, निश्चित रूप से उसकी प्रयोजनीयता प्रामाणिक मानी जाएगी और विश्व स्तर पर उसकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण बनी रहेगीI डा0 करुणाशंकर उपाध्याय के अनुसार विश्वस्तरीय भाषा ऐसी होनी चाहिए कि  उसमें मानवीय और यांत्रिक अनुवाद की आधारभूत तथा विकसित सुविधा हो जिससे वह बहुभाषिक कम्प्यूटर की दुनिया में अपने समग्र सूचना स्रोत तथा प्रक्रिया सामग्री (सॉफ्टवेयर) के साथ उपलब्ध हो। साथ ही,  वह इतनी समर्थ हो कि वर्तमान प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों मसलन ई-मेल, ई-कॉमर्स, ई-बुक, इंटरनेट तथा एस.एम.एस. एवं वेब जगत में प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी सक्रिय उपस्थिति का अहसास करा सके।

         वैश्विक परिदृश्य के अंतर्गत भाषा में यह गुण होना भी अपरिहार्य है कि वह आवश्यकता के अनुरूप अपने ही शब्द भंडार से नए शब्द गठित कर सके जैसे हिन्दी ने ट्रेजेडी को त्रासदी और रोमांटिक को रूमानी बनायाI भाषा के इस लचीले गुण से ही पारिभाषिक शब्दावलियाँ गठित होती हैंI शासन के कार्य में आने वाले अनेक शब्दों की बड़ी व्यापक पारिभाषिक शब्दावली हिन्दी में उपलब्ध हैI यही नहीं विज्ञान और प्रौद्द्योगिकी की नित्य संवर्धनशील शब्दावलियाँ हिन्दी भाषा में गठित हुई हैंI वैश्विक भाषा के लिए यह भी आवश्यक है कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम आविष्कृतियों को अभिव्यक्त करते हुए मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को वाणी देने में भी समर्थ हो।

    भाषा-लिपि का भी वैश्विक परिदृश्य में बड़ा महत्त्व हैI लिपि का संगठन वैज्ञानिक आधार पर होना चाहिएI लिपि का सरल एवं सुबोध होना भी आवश्यक हैI लिपि ऐसी न हो कि जिसके विलेखन में आर्टिस्टिक प्रतिभा की आवश्यकता पड़ेI लिपि सरल एवं आयास रहित होनी चाहिए और उसमें परिष्कार की संभावनाएं भी हों जो विलेखन की दुरुहता का परिहार कर सकेंI अक्षर ऐसे हों, जिनके उच्चारण में विशेष आयास की आवश्यकता न हो और जिनका शुद्ध एवं परिष्कृत उच्चारण संभव हो और उनमें संगीतात्मकता एवं लय हो जैसे हिन्दी में स रे ग म --- संगीतात्मक हैंI

         इस संचार युग में जो भाषा समय के साथ ताल से ताल मिलाकर चल सके जिसमें नवीन प्रयोगों और अनुसंधानों को आत्मसात करने की क्षमता हो केवल वही भाषा वैश्विक परिदृश्य पर टिक सकती हैI अतः भाषा को ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के अधीन  वाङमय सृजित एवं प्रकाशित करने तथा नए विषयों पर सामग्री तैयार करने हेतु सक्षम होना आवश्यक हैI वैश्विक स्तर के धरातल पर टिकने वाली भाषा से यह भी अपेक्षित है कि वह  नवीनतम वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियों के साथ अपने आपको पुरस्कृत एवं समायोजित करने की क्षमता से युक्त हो और वह अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं,  सांस्कृतिक चिंताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक भी हो, साथ ही वह जनसंचार माध्यमों में बडे पैमाने पर देश-विदेश में प्रयुक्त हो रही हो।

        वैश्विक भाषा के लिए जो सर्वाधिक अपेक्षित बात है, वह यह है कि वह विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की नवीनतम आविष्कृतियों को अभिव्यक्त कर मनुष्य की बदलती जरूरतों एवं आकांक्षाओं को वाणी देने में भी समर्थ हो तथा उसमे वसुधैव  कुटुम्बकऔर सर्वे भवन्तु सुखिनःजैसी उदात्त भावनाओं का समावेश भी होI

        उपर्युक्त निकष पर जब हम हिन्दी भाषा की परख करते हैं तो हमें अनेक सुखद पहलू दिखाई देते हैंI इसकी देवनागरी लिपि संभवतः विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि हैI यह जैसी लिखी जाती है वैसी ही पढी जाती हैI इसमें अंग्रेजी के GO  और TO  तथा PUT और  BUT जैसा उच्चारण वैषम्य नहीं हैI इसी प्रकार  CALM  और  BALM  जैसे शब्दों में L के साइलेंट होने जैसी कोई व्यवस्था नहीं हैI हिंदी में कैपिटल और स्माल लैटर का भी झंझट नहीं हैI उच्चारण और एक्सेंट की समस्या नहीं हैI 

        बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ हैI वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढ़ी है वैसी किसी और भाषा में नहीं हुआ हैI आज हिन्दी विश्व के सभी महाद्वीपों एवं उनमें स्थित लगभग 140 देशों में बोली जाती हैI विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे-बड़े क़ेंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई हैI  विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएँ लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैंI  यूएई क़े 'हम एफ एम' सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं,  जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैI आज वह विश्व के आकाश में चन्द्रिका की तरह छिटक रही हैI तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था, मीडिया के वर्चस्व,  वैश्वीकरण एवं उदारीकरण ने हिंदी के विकास में अहम भूमिका निभायी है। उदारीकरण ने हिंदी को बाजार की भाषा बनाया, क्योंकि विश्व के पूंजीवादी देशों की व्यावसायिक दृष्टि भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखती हैI प्रयोगकर्ताओं की संख्या के आधार पर 1952 में हिंदी विश्व में पाँचवे स्थान पर थीI 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी क़े बाद तीसरे स्थान पर आईI 1991 की जनगणना में हिंदी को मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। सन् 1998 में यूनेस्को प्रश्नावली को दिए गए जवाब में भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी शीर्षक जो विस्तृत आलेख भेजा उसके बाद विश्व स्तर पर यह स्वीकृत हो चुका है कि वाचकों की संख्या के आधार पर चीनी भाषा के बाद हिन्दी का विश्व में दूसरा स्थान है। सन 1999  में मशीन ट्रांसलेशन समिट'  अर्थात् यांत्रिक अनुवादनामक संगोष्ठी में टोकियो  विश्वविद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने भाषाई आँकड़े पेश करके सिद्ध किया कि विश्व में चीनी भाषा बोलने वालों का स्थान प्रथम और हिंदी का द्वितीय है और अंग्रेजी तीसरे क्रमांक पर पहुँच गई है, किन्तु यहाँ  यह जान लेना भी आवश्यक है कि चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा काफी सीमित है।

  डॉ0 जयन्ती प्रसाद नौटियाल ने अपने भाषा शोध अध्ययन 2005 में हिन्दी वाचकों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख दस हजार तीन सौ बावन घोषित की है जबकि चीनी बोलने वालों की संख्या मात्र नब्बे करोड़ चार लाख छह हजार छह सौ चौदह बताया है। किन्तु आँकड़ों के खेल यदि मान लिया जाए कि रहस्यमय होते हैं तो भी उन्हें बिलकुल ही दरकिनार तो नहीं किया जा सकता। हम इस सच्चाई से तो मुख नहीं मोड़ सकते कि हिंदी भाषियों की संख्या विश्व की दो सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। उपर्युक्त विचारों और अनुसंधानों के निष्कर्ष यदि हमें आत्माश्लाघा में न डालें तो भले ही अंग्रेजी का नंबर वाचकों की संख्या की दृष्टि से तीसरा भासित होता है पर उसका क्षेत्र इतना व्यापक है कि हिन्दी और चीनी भाषाओं को उतना प्रसार बनाने में बड़ा भागीरथ यत्न करना होगा। 
                              पता- ई एस-1 436, सीतापुर रोड योजना कालोनी                                                अलीगंज सेक्टर-ए, लखनऊ 

Thursday 9 April 2015

कहानी - दोपहर का भोजन- अमरकांत

दोपहर का भोजन
- अमरकांत
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी है। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।
लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा- बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, 'खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?'
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, 'बाबू जी खा चुके?'
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, 'आते ही होंगे।'
रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।
वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, 'मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।'
मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, 'किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।'
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रखकर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, 'वहाँ कुछ हुआ क्या?'
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, 'समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।'
सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, 'प्रमोद खा चुका?'
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, 'हाँ, खा चुका।'
'रोया तो नहीं था?'
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, 'आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..'
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, 'एक रोटी और लाती हूँ?'
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, 'नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।'
सिद्धेश्वरी ने जिद की, 'अच्छा आधी ही सही।'
रामचंद्र बिगड़ उठा, 'अधिक खिलाकर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?'
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, 'पानी लाओ।'
सिद्धेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठाकर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो।
मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, 'कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।'
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, 'कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।'
सिद्धेश्वरी वहीं बैठकर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, 'बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।' यह कहकर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, 'एक रोटी देती हूँ?'
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, 'नहीं।'
सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।'
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, 'नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।'
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
मोहन कटोरे को मुँह लगाकर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पीकर तथा पानी के लोटे को हाथ में लेकर तेजी से बाहर चला गया।
दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, 'बड़का दिखाई नहीं दे रहा?'
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है- जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, 'अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।'
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, 'ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।'
सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, 'पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।'
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँसकर कहा, 'बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?' यह कहकर वह अचानक जोर से हँस पड़े।
मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँसकर खाने लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जाकर आज शाम को तोड़ने वाले हों।
सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, 'मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।'
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, 'मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।'
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, 'फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, 'गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।'
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, 'बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।'
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, 'रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?'
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, 'तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।' यह कहकर वे ठहाका मारकर हँस पड़े।
मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।

सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।

जनवादी लेखक संघ की विचार गोष्ठी

          जनवादी लेखक संघ लखनऊ की ओर से ‘वर्तमान समय के स्त्री-प्रश्न’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया| परिचर्चा में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर सदानंद शाही ने कहा कि आज की स्त्री परंपरा से खींची गयी दहलीज को पार करके बाहर निकल आई है, पुनः उसे उस दहलीज में नहीं धकेला जा सकता| अब बहुत निराशाजनक स्थिति नहीं है| स्त्री-पुरुष सन्दर्भों में देखें तो पशुता की ताकत पुरुष के पास ज्यादा है और मनुष्यता की ताकत स्त्री में ज्यादा है| उन्होंने तमाम मिथकीय प्रसंगों की चर्चा करते हुए स्त्रियों के समक्ष उठने वाले प्रश्नों की चर्चा की|

          अध्यक्षता करते हुए कवयित्री सुशीला पुरी ने कहा कि स्त्री प्रश्न स्त्री के बजाय पुरुषों के लिए जरुरी हैं| यह भी जरुरी है कि हमारा स्त्री विमर्श शहरों तक ही सीमित न रहे, गाँवों तक भी पहुँचे| विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. संध्या सिंह ने आधुनिक सन्दर्भों में स्त्री विमर्श के रैखिक विकास क्रम को प्रस्तुत किया| डॉ. रंजना अनुराग ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पित्रसत्तात्मक समाज में स्त्री सदियों से पीड़ित रही है| अनीता श्रीवास्तव, कुंती मुखर्जी, कवयित्री संध्या सिंह, डॉ. निरांजलि सिन्हा, अनुजा शुक्ला, दिव्या शुक्ला, माधवी मिश्रा, डॉ. अलका प्रमोद, रंजना श्रीवास्तव ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए स्त्री के अधिकारों और समानता के लिए स्वयं संघर्ष करने का आह्वान किया| विजय पुष्पम् पाठक ने परिचर्चा को बहस में तब्दील कर दिया जिससे विषय पर खूब चर्चा हुयी| ऐडवा की सीमा राणा, एस.ऍफ़.आई. के प्रवीण पाण्डेय, कलम सांस्कृतिक मंच के ऋषि श्रीवास्तव ने भी अपने विचार व्यक्त किए| धन्यवाद ज्ञापन नलिन रंजन सिंह ने किया|

          इस अवसर पर गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, प्रताप दीक्षित, राजेंद्र वर्मा, अजीत प्रियदर्शी, ज्ञान प्रकाश चौबे, राहुल देव, बृजेश नीरज, नसीम साकेती, शरदेन्दु मुखर्जी, राजा सिंह, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, अवधेश श्रीवास्तव, राजीव मोहन, गोपाल नारायण श्रीवास्तव, के.के. चतुर्वेदी आदि साहित्य प्रेमी मौजूद थे|

Tuesday 7 April 2015

सुनो मुझे भी- जगदीश पंकज

नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ। देवेन्द्र शर्मा इंद्रके अनुसार: जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं। ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- अस्ति कश्चित वाग्विशेष:की भांति। यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम्मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई  सुन नहीं रहा।

मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है। शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है। इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है।

जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है-

गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी
समय से जूझता है

अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है।

त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब  सहजग्राह्य हैं। इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए-

चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?

जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है

क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है

साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं। कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है,
जैसा सहा, वैसा कहा-

कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा

इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है।
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है। मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं। कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है-

डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है

चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की

देखकर आसन्न खतरे
हूकती है

जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने

बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है

यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है। नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं।
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता  कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें-

चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग

घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग

नूतन प्रतिमान खोजते हुए
जीवन अनुमान में निकल गया

छोड़कर विशेषण सब
ढूँढिए विशेष को
रोने या हँसने में
खोजें क्यों श्लेष को?

आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर
रच रहीं हैं शब्द हरकारे
मत भुनाओ
तप्त आँसू, आँख में ठहरे
कैसा मौसम है
मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती
मिले, विकल्प मिले तो
सीली दियासलाई से
आहटें, संदिग्ध होती जा रहीं
यह धुआँ है
या तिमिर का आक्रमण

ओढ़ता मैं शील औशालीनता
लग रहा हूँ आज
जैसे बदचलन

इस तरह की अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं।

इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है। कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें। वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ
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गीत- नवगीत संग्रह - सुनो मुझे भी, रचनाकार- जगदीश पंकज, प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण-२०१५ , मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षक- संजीव सलिल

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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