Saturday 27 December 2014

अनुपमा सरकार की कविता



                अनुपमा सरकार

हाथों की लकीरों में


जाने क्या ढूँढती हूँ
हाथों की इन लकीरों में
शायद उलझे सपने, झूठी ख्वाहिशें
बेतरतीब ख्वाब, अनसुलझे सवाल और...
और क्या!

अरे! ढूँढने से कभी कुछ मिला है क्या?
ये लकीरें, तकदीरें तो
पलटती ही रहती हैं हर पल
मौसम की तरह
बस, जब जो मिले
वह काफी नहीं होता

है जीवन एक अनंत सफर
और हम अनथक पथिक
राहें समझते-समझते
मंज़िलें बदल जाती हैं

4 comments:

  1. राहें समझते समझते मंजिलें बदल जाती हैं .....बहुत सुन्दर , बधाई

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  2. हार्दिक आभार मीना जी

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  3. बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

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  4. जय सिया राम ,मेरा तहेदिल से शुक्रिया आज शनिवार के दिन शनिदेव की करपा आप पर बानी रहे आपका जीवन सुख माय हो ?खुशियो भरा रहे ? अति सुन्दर सरल सटीक मंथन रचना अनुपमा जी हार्दिक शुभ कामना सु प्रभात
    बंद मेरी पुतलियो में रात है ?
    हास बन बिखरा आधार पर प्रातः है
    में पपहिया मेघ कया मेरे लिए ? जिंदगी का नाम ही बरसात है

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