Tuesday 12 August 2014

दोहे - प्रेम पियूष

 राम शिरोमणि पाठक "दीपक"

अधरों के पट खोलकर, की है ऐसी बात! 
शब्द-शब्द में बासुँरी, फिर मधुमय बरसात!!

वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले, पथ पर कोमल घास!!

मन शुक फिर बनने लगा, चखने चला रसाल!
कितना मोहक रूप है, कितने सुन्दर गाल!!

केश कहूँ या तरु सघन, होता है यह भ्राम!
इन केशों की छाँव में, कर लूँ मैं विश्राम!!

प्रेममयी इस झील का, अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है, और नहीं है थाह!!

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