Saturday, 2 February 2013

देखा हर एक शाख पे


- फ़िराक़ गोरखपुरी
देखा हर एक शाख पे गुंचो को सरनिगूँ१.
जब गई चमन पे तेरे बांकपन की बात.

जाँबाज़ियाँ तो जी के भी मुमकिन है दोस्ती.
क्यों बार-बार करते हो दारों-दसन२ की बात.

बस इक ज़रा सी बात का विस्तार हो गया.
आदम ने मान ली थी कोई अहरमन३ की बात.

पड़ता शुआ४ माह५ पे उसकी निगाह का.
कुछ जैसे कट रही हो किरन-से-किरन की बात.

खुशबू चहार सम्त६ उसी गुफ्तगू की है.
जुल्फ़ों आज खूब हुई है पवन की बात.



.सिर झुकाए हुए . सूली के तख्ते और फंदे . शैतान 
. किरण . चाँद . चारों ओर.

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