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महादेवी वर्मा
भीत-सी
आँखों वाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर
दृष्टि डालकर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका
भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने
आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए,
नहीं
तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस
भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो
नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज
उत्साह से अपरिचित।
उसकी
माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर
मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा
मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या
विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिंदा
मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और
मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा
सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा
सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने
जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक
बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर
जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत
संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के
नीचे वाली अँधेरी कोठरी में आँख मूँदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क
पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता
था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निःसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी
कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि
उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर
के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था,
उसमें
खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को
भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह
दुखद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक
बच्चे को कंधे से चिपकाए और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती
रहती थी। अतः मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को
खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही
हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों
को सौंपा गया है।
और
बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी
नाक के दोनों ओर नीले काँच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती
रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से सँवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी
लकीर-सा सिंदूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार
बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार
उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।
यह
सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार
विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और
मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब
पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस
गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो
मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परंतु उसकी शब्दावली परिचित होने के
कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती
है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या
निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म
होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती
रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी
जान ही लेता था।
कभी-कभी
जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही
आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाड़ू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य
असंभव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का
कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित
जी की घुड़की का पुट भी रहता था,
तब
न जाने किस दुख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे
नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में
चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे
बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन
ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न
मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह
तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका
और न मेरी उलझन सुलझ पाई।
बिंदा
मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परंतु उसका नाटापन
देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से
दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई
झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके
दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही
उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके
सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा
ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में
बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बंद चिड़िया की याद दिलाती
थीं।
एक
बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा -
'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में
से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती
रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है।
मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों
नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी
और न डाँटेंगी।'
बिंदा
को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी
पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बंद पालकी में बैठकर आते देख
चुकी थी, अतः किसी को भी
पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।
पर
उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अतः उसी रात को मैंने माँ से बहुत
अनुनयपूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा
बनावें।' माँ बेचारी मेरी
विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना
आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में
बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध,
बिस्कुट, जलेबी सब बंद हो जाएगी - और मुझे बिंदा
बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे
स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस
रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।
बिंदा
के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे;
पर
पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दंड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी
थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर
रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खंभे से
दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाए मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में
सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दंड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन
चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दंड बिंदा को मिला। उसके
छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर
कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें
कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान
को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रुलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही
हों।
और
एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें
हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य;
पर
वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर
खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा
क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए
कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा
देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब
कुछ रहस्यमय हो उठा।
उसे
मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य;
पर
न ऊपर के खंड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में
दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के
उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी
में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए
घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में
छिपाए और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी
बिछोना बन गया हो।
मैं
तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास
निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल
मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते
हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'
माँ
ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष संदेशवाहक
के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन
चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।
फिर
कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ
ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्रायः कुछ
अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रुकिया ने बताया कि उस घर
में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं
मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में
कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख
बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खंड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी।
आँखें गड्ढे में धँस गई थीं, मुख दानों से भर कर न
जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं
जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के
चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर
मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गई। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों
में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खंड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी
आकर उसका काम कर जाती है।
फिर
तो बिंदा को दुखना संभव न हो सका;
क्योंकि
मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिंतित हो उठी थीं।
एक
दिन सबेरे ही रुकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बंद कर बार-बार आँखें
पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना
नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से
झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रुकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परंतु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ
बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरुद्ध पड़ता था।
अतः खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ
न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में
विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो
किसका? आदि प्रश्न मेरी
बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा
बन जाएँगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक
पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिंत्य
अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में
न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।
कई
दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध
में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो
अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गई। उस दिन से मैं प्रायः चमकीले तारे के
आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
तब
से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई
अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?
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