Monday, 26 December 2016

विजय पुष्पम पाठक की कविता



सदियों से यही होता आया था
चुप रहकर सुनती रही थी
शिकायतें, लान्छनाएँ  
बोलने की अनुमति
न ही अवसर दिया गया
आदत ही छूट गयी प्रतिवाद की
अपना पक्ष रखने की
घर की चारदीवारी
कब बन गयी नियति
आसमान आँगन भर में सिमट गया
तीज-त्यौहार आते रहे
शादी-ब्याह देते रहे
गीतों में अपनी व्यथा व्यक्त करने का अवसर
घिसे बिछुए चित्रित करते रहे
पावों के लगते चक्कर
कालिख ने भर दी हथेलियों की लकीर कोई पंडित भी बाँच नहीं सकता अब उनका लेखा
जन्मकुण्डली एक बार मिलाकर
फिर दुबारा देखी भी नहीं गयी
सुना है इन दिनों
वो कुछ बिगड़ सी गयी गई है
बहुत जुबान चलने लगी है उसकी
और कभी-कभी उठे हुए हाथ को
रोकने के लिए

उठा देती है अपने हाथ भी 

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