अनुपमा सरकार
जाने क्या ढूँढती हूँ
हाथों की इन लकीरों में
शायद उलझे सपने, झूठी ख्वाहिशें
बेतरतीब ख्वाब, अनसुलझे सवाल और...
और क्या!
अरे! ढूँढने से कभी कुछ मिला है क्या?
ये लकीरें, तकदीरें तो
पलटती ही रहती हैं हर पल
मौसम की तरह
बस, जब जो मिले
वह काफी नहीं होता
है जीवन एक अनंत सफर
और हम अनथक पथिक
राहें समझते-समझते
मंज़िलें बदल जाती हैं