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Tuesday, 27 December 2016

महेंद्र भटनागर की कविताएँ

(1) यथार्थ
.
राह का
नहीं है अंत
चलते रहेंगे हम!
.
दूर तक फैला
अँधेरा
नहीं होगा ज़रा भी कम!
.
टिमटिमाते दीप-से
अहर्निश
जलते रहेंगे हम!
.
साँसें मिली हैं
मात्र गिनती की
अचानक एक दिन
धड़कन हृदय की जायगी थम!
समझते-बूझते सब
मृत्यु को छलते रहेंगे हम!
.
हर चरण पर
मंज़िलें होती कहाँ हैं?
ज़िन्दगी में
कंकड़ों के ढेर हैं
मोती कहाँ हैं?


   
(2) लमहा

एक लमहा
सिर्फ़ एक लमहा
एकाएक छीन लेता है
ज़िन्दगी!
हाँ, फ़क़त एक लमहा।
हर लमहा
अपना गूढ़ अर्थ रखता है,
अपना एक मुकम्मिल इतिहास
सिरजता है,
बार - बार बजता है।
.
इसलिए ज़रूरी है —
हर लमहे को भरपूर जियो,
जब-तक
कर दे न तुम्हारी सत्ता को
चूर - चूर वह।
.
हर लमहा
ख़ामोश फिसलता है
एक-सी नपी रफ़्तार से
अनगिनत हादसों को
अंकित करता हुआ,
अपने महत्त्व को घोषित करता हुआ!


     
(3) निरन्तरता 

हो विरत ...
एकान्त में,
जब शान्त मन से
भुक्त जीवन का
सहज करने विचारण —
झाँकता हूँ
आत्मगत
अपने विलुप्त अतीत में —
.
चित्रावली धुँधली
उभरती है विशृंखल ... भंग-क्रम
संगत-असंगत
तारतम्य-विहीन!
.
औचक फिर
स्वतः मुड़
लौट आता हूँ
उपस्थित काल में!
जीवन जगत जंजाल में!


      
(4) नहीं

लाखों लोगों के बीच
अपरिचित अजनबी
भला,
कोई कैसे रहे!
उमड़ती भीड़ में
अकेलेपन का दंश
भला,
कोई कैसे सहे!
.
असंख्य आवाज़ों के
शोर में
किसी से अपनी बात
भला,
कोई कैसे कहे!


      
(5) अपेक्षा

कोई तो हमें चाहे
गाहे-ब-गाहे!
.
निपट सूनी
अकेली ज़िन्दगी में,
गहरे कूप में बरबस
ढकेली ज़िन्दगी में,
निष्ठुर घात-वार-प्रहार
झेली ज़िन्दगी में,
कोई तो हमें चाहे,
सराहे!
किसी की तो मिले
शुभकामना
सद्भावना!
अभिशाप झुलसे लोक में
सर्वत्र छाये शोक में
हमदर्द हो
कोई
कभी तो!
.
तीव्र विद्युन्मय
दमित वातावरण में
बेतहाशा गूँजती जब
मर्मवेधी
चीख-आह-कराह,
अतिदाह में जलती
विध्वंसित ज़िन्दगी
आबद्व कारागाह!
.
ऐसे तबाही के क्षणों में
चाह जगती है कि
कोई तो हमें चाहे
भले,
गाहे-ब-गाहे!


     
(6) चिर-वंचित

जीवन - भर
रहा अकेला,
अनदेखा -
सतत उपेक्षित
घोर तिरस्कृत!
.
जीवन - भर
अपने बलबूते
झंझावातों का रेला
झेला !
जीवन - भर
जस-का-तस
ठहरा रहा झमेला !
जीवन - भर
असह्य दुख - दर्द सहा,
नहीं किसी से
भूल
शब्द एक कहा!
अभिशापों तापों
दहा - दहा!
.
रिसते घावों को
सहलाने वाला
कोई नहीं मिला -
पल - भर
नहीं थमी
सर - सर
वृष्टि - शिला!
.
एकाकी
फाँकी धूल
अभावों में -
घर में :
नगरों-गाँवों में!
यहाँ - वहाँ
जानें कहाँ - कहाँ!


     
(7) जीवन्त

दर्द समेटे बैठा हूँ!
रे, कितना-कितना
दुःख समेटे बैठा हूँ!
बरसों-बरसों का दुख-दर्द
समेटे बैठा हूँ!
.
रातों-रातों जागा,
दिन-दिन भर जागा,
सारे जीवन जागा!
तन पर भूरी-भूरी गर्द
लपेटे बैठा हूँ!
.
दलदल-दलदल
पाँव धँसे हैं,
गर्दन पर, टख़नों पर
नाग कसे हैं,
काले-काले ज़हरीले
नाग कसे हैं!
.
शैया पर
आग बिछाए बैठा हूँ!
धायँ-धायँ!                            
दहकाए बैठा हूँ!


      
(8) अतिचार

अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधों का विश्वास -
नहीं, जन्म-जन्मान्तर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
अपनेपन का अहसास!
.
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्ध उपासना
कठिन सिद्ध साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
वचन-वायदे!
और —
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
पाप-पुण्य की,
छल -
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
उतर आता है!
संयम के लौह-स्तम्भ
टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
डूब बह जाते हैं।
जब भूकम्प वासना का
‘तीव्रानुराग’ का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
हर पुख़्ता-पुख़्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
जाता है भूल!
.

Contact :
DR. MAHENDRA BHATNAGAR,
110 BALWANT NAGAR, GANDHI ROAD, GWALIOR — 474 002 [M.P.]
Phone :
M-8109730048 / 0751-4092908
E-Mail :
drmahendra02@gmail.com

युग को प्रतिमान बनाती आलोचना

  जब एक कवि आलोचक की भूमिका में होता है तब सबसे बड़ा खतरा आलोचना की भाषा का होता है। कवि स्वभावतः अनुभवशील संवेदनशील सृजक होता है तो आलोचक तर...