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Sunday, 28 December 2014

संगीता शर्मा की दो कविताएँ

          संगीता शर्मा ‘अधिकारी’

चाय की प्याली

चाय की प्याली का
होठों तक आते-आते रुक जाना
उड़ने देना भाप को
ऊँचा और ऊँचा
उस ऊँचाई के ठीक नीचे से
सबकी नज़रे बचा
प्याली का बट जाना
दो हिस्सों में
आज भी बहुत सताता है
आज भी बहुत याद आता है ।
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ग्लोबल वार्मिंग

बाहर-भीतर
भिन्न व्यवहार करना
गिरगिट की मानिंद
रंग बदलना
स्वयं का दंभ भरना
अपनी कुटिल हँसी में
सैकड़ों को निपटाना
तो कोई आपसे सीखे

यही विशेषण
आपको कुर्सी पर जमाए हुए है
किन्तु ‘सावधान‘
ग्लोबल वार्मिंग में
सब कुछ
पिघलने लगा है |

युग को प्रतिमान बनाती आलोचना

  जब एक कवि आलोचक की भूमिका में होता है तब सबसे बड़ा खतरा आलोचना की भाषा का होता है। कवि स्वभावतः अनुभवशील संवेदनशील सृजक होता है तो आलोचक तर...