जब एक कवि आलोचक की भूमिका में होता है तब
सबसे बड़ा खतरा आलोचना की भाषा का होता है। कवि स्वभावतः अनुभवशील संवेदनशील सृजक
होता है तो आलोचक तर्कशील विवेचक होता है। दोनों स्थितियाँ बहुत समय तक साथ यात्रा
नहीं करती हैं या तो आलोचना बचती है या कविता बचती है। दूसरी बात यह है कि यदि कवि
की प्राथमिकता कविता है तो आलोचना कविता से बगैर प्रभावित हुए नहीं रह सकती है।
ऐसी प्रभाविकताएँ जयशंकर प्रसाद, मुक्तिबोध, निराला, विजेन्द्र
आदि में देखने को मिलती हैं। मुक्तिबोध की कविता को समझे बगैर उनकी आलोचना नहीं हो
सकती है और विजेन्द्र का समग्र मूल्यांकनकर्म उनकी कविता के लिए एक तर्क का काम कर
रहा है। शहंशाह आलम प्राथमिक रूप से कवि हैं। स्वाभाविक है वह आलोचना में भी कविता
से पृथक नहीं रह सकते हैं। कवि की आलोचना प्रक्रिया कविता रचना प्रक्रिया की तरह व्यापक
रचाव और कसाव की निर्मिति हो जाती है। यही कसाव और रचाव शहंशाह आलम की इस आलोचकीय
कृति ‘कवि का आलोचक’ में देखने को मिल रहा है। कसाव और रचाव एक कृति को काव्यात्मक
तो बना सकता है मगर बौद्धिक नहीं बनाता मगर शहंशाह आलम को एक आलोचक के रूप मैंने
जितना पढ़ा जितना जाना उतना ही बौद्धिक पाया जितना कि जरूरी तर्कों के अन्वेषण के
लिए अनिवार्य होता है। शंहशाह आलम पटना में रहते हुए भी पटना की स्थानीय राजनीति
से निरपेक्ष व अकादमी और पीठों, प्रकाशकों
के खेमे से अलग-थलग हैं। शहर में रहते हुए निरन्तर रचनारत हैं और बड़ी बात यह है कि
वह सुविधाभोगी और चमकदार सुगढ़ कवि के रूप में नहीं जाने जाते हैं। उनकी इस आलोचकीय
कृति की भाषा आम पाठक की भदेश भाषा है, अस्पष्टता और सुगढ़ता दोनों छू तक नहीं गयी
है। चूँकि कार्यकर्ता शाश्वत मूल्यों और अभिजात्य भाषा दोनों को अस्वीकार करता है
इसलिए इनका काव्य भी लय, तान व सौन्दर्यशास्त्र की भंगिमाओं से विरत होकर बोलचाल
की बतकही से विनिर्मित है। मैंने देखा है कि उनका कवि जीवन में होने वाली छोटी-छोटी
पराजयों,
विजयों और भागीदारी में हो रहे विस्थापनों के दंश एवं आम
आदमी की आहों से बना है इसलिए इनकी कविता में कलात्मक शुचिता की बजाय 'तर्कपूर्ण गुस्सा' अधिक है। यह गुस्सा विस्थापित समुदाय का गुस्सा है। शहंशाह
आलम की आलोचना को भी इस तर्कपूर्ण गुस्से से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इस
किताब में सम्मिलित अध्याय कविता का नया रहस्य, कविता में भाषा की खोज, जिन्दगी के जरूरी पलों को बचाए रखने की जिद आदि अध्याय
सैद्धांतिक आलोचना के हैं। इस सैद्धांतिकी को केवल कविता की सैद्धांतिकी समझना बड़ी
भूल होगी, यह आलोचना की जनवादी और मानववतावादी सैद्धांतिकी है। कवि जिस तरह कविता
को जीवन की आलोचना समझता है, वह आलोचना को भी जीवन की रचना समझता है। आलोचना भी एक
रचना है देरीदाँ के इस कथन को सही ठहराती हुई यह पुस्तक इस कथन के लिए बेहतरीन
तर्क है। सैद्धांतिकी पढ़कर कहा जा सकता है कि कवि समय से प्रभावित है और आलोचक
रचना से प्रभावित है। जब रचना समय के साथ है तो आलोचना कैसे समय से पृथक हो सकती है।
यही कारण है कि आधुनिक हिन्दुस्तानी समाज के समस्त मुद्दे कवि की आलोचना में भी
झलक उठे हैं।
 
आज का समय बड़ा अजीब है। स्थाई विजन और मूल्य रचना व आलोचना के लिए बेमानी
बनते जा रहे हैं। भाषा और जीवन दोनों विस्थापन से जूझ रहे हैं। विस्थापन के इन
कारणों में आवारा पूँजी द्वारा लोकतन्त्र में किए जा रहे बदलावों की अहम भूमिका
है। आलोचक बड़ी सजगता से इस बदलाव को देख रहा है और इसके बरक्स लोकतन्त्र का जनवादी
परीक्षण कर रहा है। इस परीक्षण में वो काव्य परिपाटी की तमाम चौहद्दियों को तोड़ रहा
है। भाषा उत्तर आधुनिक समझ के अनुकूल मगर भदेश मानकों के प्रतिकूल बैठेगी। इसे
भाषा का विकास कहिए या आलोचना के नये तेवरों का भाषाई आगाज़ कहिए, दोनों एक ही बात
है। शहंशाह आलम की भाषा समस्त तर्कों व आग्रहों को समाहित करती हुई वर्तमान के
पिष्टपेषण के बजाय निष्कर्षों की खोज को अधिक तरजीह देती है। निष्कर्षों की खोज
उनकी आलोचना को तात्कालिकता से हटाकर यथाथर्वादी सार्वभौमिकता में तब्दील कर देती
है। वह युवा हैं, वर्तमान और भविष्य के कवि हैं, उनके मुद्दे तात्कालिक हैं और
मुद्दों के प्रति नजरिया भी तात्कालिक है इसलिए उनकी स्थापनाएँ ताजी लगती हैं और युग
के तस्कर मूल्यों की बेरहमी से चीड़-फाड़ करती है। कविता स्थाई विजन तय करती है तो
आलोचना इस विजन की भूमिका लिखती है। कवि अपनी आलोचना में बिम्बों को बड़ा महत्व दे
रहा है। तर्क के रूप में प्रयुक्त अधिकांश उदाहरण बिम्ब के रूप में है। लोकधर्मी
काव्य में बिम्बधर्मिता और प्रतीकबद्धता का सम्मोहन दिखाई देना आम बात है। यह
अवस्थिति शैली नहीं है महज अनुगूँज है। बिम्बों में गहराई इतनी होती है कि थाह
लेना आसान नहीं होता है लेकिन जीवन अनुभव की तिक्तता बाहर की दुनिया का प्रतिबिम्ब
दिखाते हुए भी कवि की आन्तरिक दुनिया का आभास करा देने में सक्षम होते हैं। बिम्ब
मोह के बावजूद भी शहंशाह आलम लोकधर्मिता के उस खाँचे में पूरे तौर पर फिट नहीं
बैठते हैं जिसे फैशनेबुल लोकधर्मियों ने गढ़ा है क्योंकि समय को पीछे से नहीं देखते
या तो समय के साथ चलते हैं या समय के आगे बढ़कर प्रतिबिम्ब खींचते हैं। प्रतिबिम्बन
में कुछ भी आयातित या अचानक नहीं है, वही है जो नग्न है, उघरा है। आलोचना को
अनावश्यक नैतिकता के भार से मुक्त करने का छोटा सा मगर कारगर प्रयास है और
विद्रूपताओं की खतरनाक आँधी में धूसरित हो रही आदमियत को बचाकर, धोकर, माँजकर
सम्भावित परिवेश में ले जाने का क्रान्तिकारी हस्तक्षेप है।
कोई भी विधा हो परम्परागत फार्मेट में होना
जरूरी नहीं है। परम्परागत होना कवित्व और आलोचक दोनों को एक साथ नहीं व्यक्त कर सकता
इसलिए शहंशाह की यह पुस्तक विधागत दायरे का, विधियों का अतिलंघन करती है। यही
अतिलंघन इनकी आलोचना को कवित्व की गरिमा देते हुए सामयिक और ज्वलन्त बनाता है,
युगबोध का अभिलेख बना देता है। कवि के रूप में शहंशाह आलम अच्छे कवियों में शुमार
किए जाने योग्य हैं। इनके आलोचक व्यक्तित्व ने कविता पक्ष को दबाया नहीं। एक बड़ा कवि
जब आलोचना लिखता है तो अमूमन कहा जाता है कि यह उसका नया प्रयोग है। कवि के पास
बिम्ब होते हैं, अपने मन्तव्यों को बिम्ब के माध्यम से व्यंजित करने की शैली होती
है, एक बना-बनाया सोचा हुआ फार्मेट होता है और कुछ चरित्र होते हैं जिसके सहारे वो
अपने आपकी अभिव्यक्ति कर देता है। मगर आलोचना में अपनी बौद्धिक अभिव्यक्ति व
इतिहासबोध, विचारधारा की पुष्टि
हेतु इन उपागमों का विश्लेषण जरूरी होता है। शहंशाह आलम की इस आलोचकीय कृति की बड़ी
विशेषता है कि वह उन कविता फार्मेट की आलोचना व उनका विश्लेषण अधिक करते हैं जिनके
वह खुद सफल प्रयोगकर्ता हैं। यह पहचान केवल कवि के आलोचक की होती है। जब कवि आलोचक
की भूमिका में उतरता है तो वह उन मूल्यों पर अधिक केन्द्रित होता है जिन मूल्यों
का बाहुल्य उसकी निजी रचना प्रक्रिया में होता है। मैंने देखा कि लोकधर्मी कवि
चरित्रों व कविता में उपस्थित मानवीय तत्वों को आलोच्य विषय अधिक बनाता है। कवि
भले ही कविता में अपने आस-पास के देखे-भाले लोगों में से ही चरित्र गढ़ता हो लेकिन
आलोचना में वह किसी चरित्र का गढ़न नहीं कर सकता है। यह विधागत बाध्यता है और सीमा
भी है लेकिन वह अनुभवगत सम्वेदनाओं से उत्पन्न चरित्रों की संकल्पना जरूर प्रस्तुत
करता है। शहंशाह आलम की कविता समझ इस तरफ सक्रियता के साथ संकेत करती है। यह
आलोचना भी कल्पना आश्रयी प्रतिभा की पैदाईश नहीं है, वह यथार्थ की कचोटती विसंगतियों
से पैदा हुई है। शहंशाह आलम अन्य आलोचकों की तरह घुमा-फिराकर गोल-मटोल बात नहीं करते
हैं बल्कि अपने वैचारिक सरोकारों के कारण सीधे और सटीक निर्णय देते हैं, तमाम तरह
के जरूरी उपागमों में भी आमूलचूल परिवर्तन करते हैं। जिस तरह वह कविता उपागम और
आलोचना उपागम मिलाकर आलोचना में रचनात्मक तोड़-फोड़ करते हैं उसी तरह वह यही तोड़-फोड़
उनकी संवेदना और भाषा में करते हैं। उनकी भाषा आलोचकीय ट्रिमनोलाजी की भाषा नहीं है,
वह संवेदनशील पाठक की भाषा है और शिल्प भी आधुनिक आलोचकीय नहीं है पर नया है क्योंकि
यहाँ कवि और पाठक दोनों आपस में मिल गये हैं इसलिए भिन्न आस्वाद की आलोचना इस कवि
के आलोचक में देखने को मिली है। यहाँ समय की टकराहटों की प्रतिध्वनि और उससे
आक्रान्त कवि की भावुकता के पदचाप बड़ी सहजता से सुने जा सकते हैं। विशेषकर उन
आलेखों में जो सैद्धांतिक आलोचना के हैं।
 शहंशाह आलम की इस समीक्ष्य पुस्तक का गज़ल खण्ड देखकर
मैं चकित हूँ। उन्होंने ग़जल समीक्षा को एक नयी भाषा दी है, नया मुहावरा दिया है।
गज़ल की संकलित समीक्षाओं में युग का सच उघढ़ गया है। यह दौर भारतीय जनजीवन में उथल-पुथल
का दौर है। दमन, महंगाई, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, जातीय संघर्षों ने ऐसी अराजकता पैदा की कि भारत का
बुद्धिजीवी वर्ग इन सबसे विक्षुब्ध हो गया। उसके ह्दय में असंतोष पनपने लगा
संवेदनशील होने के कारण वह बेचैन और चिन्तित रहा। इधर के वर्षों में जिस तरह
कारपोरेट पूँजी और सार्वजनिक पूँजी में आन्तरिक गठबन्धन स्थापित हुए, शोषण की विश्वव्यापी नीति तय की गयी, निवेश, विनिवेश
को बढ़ावा मिला, जनता के हिस्से का धन भी
कारपोरेट को सौंपा जाने लगा, प्रतिरोध
को देशद्रोह की संज्ञा दी गयी, जमीन, जंगल, नदी सब कुछ छीना जाने लगा, ऐसे में कोई भी सचेतन बुद्धिजीवी चुप कैसे रह सकता है?
इस दौर का कवि सत्ता व्यवस्था की अन्दरूनी विसंगतियों से
परिचित रहा है। उसने इस भीषण लूट के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन सत्ताओं ने इस संघर्ष
को अलग दिशा देकर मिथकों के आधार पर साम्प्रदायिकता की नई इबारत लिखी। समूचा देश
इस आग में अब तक झुलस रहा है। इंसान से अधिक मिथक महत्वपूर्ण हो गये हैं। आचरण से
अधिक दुराचरण व सहिष्णुता की जगह असहिष्णुता को बढ़ावा दिया गया। आधुनिक गज़लकार समय
से निरपेक्ष रहकर नहीं लिखते हैं, वह व्याप्त खतरों को भली प्रकार समझते हैं। बढ़ते
पूँजीवादी और वैश्विक खतरों के मद्देनजर उन्हें मनुष्य के आस्तित्व की चिन्ता
व्यापती रही है। इसी चिन्ता का रचनात्मक व प्रतिरोधी प्रतिफलन आधुनिक हिन्दी गज़ल
है जो किसी भी समकालीन कविता से अधिक समकालीन व प्रतिरोधी अभिव्यक्ति है। इस चेतना
को शहंशाह आलम ने पहचाना है। यह उनकी बड़ी देन है। गज़ल भले ही अपने व्याकरण से हट
रही है, इश्कमिजाजी से बाहर निकल चुकी हो मगर आलोचना आज वहीं की वहीं बैठी है।
शहंशाह आलम ने इस जड़ता को तोड़ा है, एक नयी पद्धति की प्रस्तावना की है। वह समकालीन
काव्य मूल्यों को गजल पर आरोपित करते हुए उसकी सार्थकता व निरर्थकता का प्रतिपादन
करते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा की गज़ल पर अपनी बात रखते हुए वह कहते हैं कि "इस दुनिया
के लोगों की बेहतरी के लिए यह जरूरी है कि रचनाकार रात के अन्धेरों को छोड़कर दिन
के उजाले को पकड़े और अब अन्धेरे का सारा कारोबार दिन के उजाले में पूरी इमानदारी
से किया जा रहा है।" इसका आशय है कि वह गज़लकारों से भी उसी प्रतिरोध की माँग
रखते हैं जो आज की कविता और उपन्यासों में है। यह एक नयी समीक्षा की प्रस्तावना
है। सम्भव है इश्कमिजाजी और कोमल रोमैन्टिक भाववादी इस पद्धति को स्वीकार न करें
पर यह आधुनिकता की पीठिका तो है ही। मनुष्य के अस्तित्व व समय को केन्द्र में रखकर
ही गजल के प्रतिमान तय करना सिद्ध करता है कि इस कवि के आलोचक में मनुष्य चिन्ता
है, मनुष्य इसका समाधान है, मनुष्य इसका
विषय है और वही रचनाओं का प्रतिपाद्य है। मनुष्य से जुड़ा व मनुष्यता के लिए जरूरी
ऐसा कोई विषय नहीं है जो इस कविता से बाहर हो, मनुष्यता के लिए जितने भी खतरे इस
भीषण और दुर्दान्त समय में सत्ता द्वारा उत्पन्न किये गये, कवि ने सभी पर कलम चलाया
है। शहंशाह अपनी कविता और आलोचना को मनुष्य से पृथक नहीं मानते हैं, वह विहंगम
मानते हैं और इस बड़प्पन को मनुष्य से जोड़ते हैं। यह जनवादिता गज़ल के लिए नयी देन
है। शहंशाह आलम की आलोचना समुदायवादी सर्वनिष्ठ सर्वसमावेशी आलोचना का प्रतिरूप
है। वह सैद्धांतिक प्रतिमानों का अत्यल्प प्रयोग करते हुए रचना के समाजशास्त्र पर
अधिक बल देते हैं। वह सैद्धांतिक सौन्दर्य की अपेक्षा प्रभावक रचनासौन्दर्य पर
अपनी दृष्टि केन्द्रित रखते हैं। कविता की समुदायवादी आलोचना में समाज और समाज को
बेहतर बनाने के मूल्य सम्मिलित होते हैं। इस आलोचना का उभार दो तीन दशक पहले हुआ
था। इसका उदय उस अत्यधिक व्यक्तिवाद, व्यक्तिगत अधिकारों पर अत्यधिक जोर दिए जाने की प्रतिक्रियास्वरूप
हुआ,
जिसने अंतत: उन्हें अंहकारी बना दिया था। इस प्रकार
समुदायवाद का केंद्रीय तत्व समुदाय के मूल्य पर उचित बल प्रदान करना है। द्वितीय विश्वयुद्ध
के पश्चात् अधिकांश राजनैतिक दार्शनिकों के लेखन से समुदाय की संकल्पना अपना महत्व
खो चुकी थी। इसकी चर्चा स्वतन्त्रता और समानता के व्युन्त्पादक के रूप में की जाती
थी। तथापि पूर्व में लगभग सभी महत्वरपूर्ण विचारधाराओं-समाजवाद, संरक्षणवाद, उदारवाद में स्वततंत्रता, समानता और समुदाय के राष्ट्रवादी आदर्शों के विषय में चर्चा
की गई थी। इस प्रक्रिया में समुदाय की संकल्पना में विभिन्न रूप लिए। वर्ग की
एकात्मिकता, साझा नागरिकता, सांस्कृतिक अस्मिता तथा समान नैतिक अवधारणा के परिदृश्य के
कोण में इस संकल्पना को समुदायवाद नाम से प्रचारित किया गया है। यह साझा संस्कृति
और सामूहिकतावादी आलोचना है। मैंने देखा कि आलम की इस किताब में ‘सामूहिकता’ का
प्रतिपादन बड़े सतर्क ढंग से किया गया है। वह ऐसे किसी भी तत्व को आलोचना में नहीं आने
देते हैं जो किसी धर्म या समुदाय जाति के लिए टाइप्ड हो गया है, न ही वह किसी
जातीय और सांस्कृतिक मूल्य से आबद्ध दिखते हैं। उनके केन्द्र में मनुष्य और मनुष्य
को ही अन्त तक आलोच्य विवेचन का विषय रखते हैं। यही कारण है कि वह कवि की निजी
ईमानदारी और निजी अनुभूति के स्थान पर उसकी समय और समाज के प्रति ईमानदारी को अधिक
महत्व देते हैं। उनकी मान्यता है कि इसके लिए जरूरी है कि रचनाकार अपनी निजी
सीमाओं से बाहर निकलकर जीवन-संग्राम में शामिल रहे। विशेषकर राजकिशोर राजन, अरविन्द श्रीवास्तव, अशोक, मिजाज़ अहमद नेसार, संजय शान्डिल्य की आलोचना में वह समय और समाज के प्रति अपने
दायित्व को वैचारिक अभिव्यक्ति तक सीमित न मानकर उसे रचनात्मक ईमानदारी से जोड़ते हैं।
एक ऐसी ईमानदारी जो अभिव्यक्ति भर न हो एक विजन भी हो। ऐसी ईमानदारी का क्या मूल्य
जो समाज को कहीं ले नहीं जाती है। अपनी निराशा, कुंठा, उदासी
को ईमानदारी से व्यक्त करने मात्र का समाज की दृष्टि से कोई महत्व नहीं। कुछ
आलोचकों ने अनुभूति की प्रमाणिकता और ईमानदारी के नाम पर कविता को कवि के निजी मामले
तक सीमित कर दिया। फलस्वरूप अनेक बार अवैज्ञानिक स्थापनाओं को भी महत्व मिला इसलिए
शहंशाह एकदम नयी स्थापना देते हैं कि लेखकीय ईमानदारी वही है जो समाज को बदलने की
प्रेरणा दे सके, उसे नकारात्मक भावों प्रतिभावों से विरत कर व्यापक सरोकारों का
हेतु बना सके। शहंशाह आलम का आलोचकीय सौन्दर्यबोध लोकधर्मी है। वह उन कविताओं पर
अधिक ठहराव लेते हैं जो लोक की श्रम अस्मिता से जुड़ी है, जो व्यापक मानव हित की
वर्गीय अभिव्यक्ति करती है। उनके सौंदर्य की कसौटी में उन लोगों का जीवन है जो
श्रम से जुड़े हैं क्योंकि
उनके लिये जो कुछ सौंदर्यपूर्ण है वह मनुष्य के श्रम की देन है। वास्तव में यह सच
भी है कि प्रकृति के सौंदर्य के समानान्तर इस पृथ्वी पर मनुष्य ने जो कुछ
सौंदर्यपूर्ण सर्जन किया है उसमें मनुष्य के श्रम की मुख्य भूमिका है, एक जनसम्बद्ध
लोकधर्मी साहित्यकार ही ऐसा कह सकता है। यह उनकी ताकत भी है। उनका उद्देश्य अपनी
आलोचना द्वारा कला और श्रम के बीच पैदा किये गये अलगाव को दूर कर सौंदर्यबोध को
उसकी मानवीयता में स्थापित करना है जिसमें वह सफल भी रहे हैं। वह श्रम और पूँजी के
संबंध की सच्चाई को खोलने का काम अपनी आलोचना में करते हैं। कुमार मुकुल, इब्राहिम अश्क, सुषमा सिन्हा की पुस्तक समीक्षाओं में यह आग्रह स्पष्ट
दिखाई देता है।
शहंशाह आलम की इस किताब पर यह टिप्पणी
किसी नये लेखक की किताब पर किसी वरिष्ठ आलोचक की टिप्पणी नहीं है। यह उनकी उम्र से
बहुत कम एक सामान्य पाठक की मात्र पाठकीय टिप्पणी है। मैं महज पद्धति पर केन्द्रित
रहा क्योंकि ये समस्त आलेख किसी रणनीति के तहत नहीं लिखे गये, सब अलग-अलग समय के
आलेख हैं। लगभग सब पुस्तक समीक्षा के रूप में हैं। अस्तु किसी सैद्धांतिक समीक्षा के
बजाय महज पद्धति और विजन पर ही बात की जा सकती थी। मैंने वही बात करने की कोशिश की
है। मुझे विश्वास है यदि यह पद्धति आगे भी सक्रिय रही तो शहंशाह आलम के अगामी
कविता संग्रह का नाम होगा आलोचक की कविताएँ क्योंकि इस आलोचकीय पद्धति से लेखक
प्रभावित न हो मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता हूँ।
         
                          उमाशंकर
सिंह परमार
                                       बबेरू, बाँदा 
                                     9888610776
 
 
