जन्म तिथि- २९.०९.१९८३
शिक्षा- बी. कॉम., डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
प्रकाशित कृतियाँ- मैं देव न हो सकूँगा (कविता संग्रह), परों को खोलते हुए (संयुक्त काव्य संग्रह), शुभमस्तु (संयुक्त काव्य संग्रह), सारांश समय का (संयुक्त काव्य संग्रह), गज़ल के फलक पर (संयुक्त गज़ल संग्रह)
पता- मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मोबाइल- 09369926999
ई-मेल- arunsri.adev@gmail.com
अरुन श्री की कविताएँ
शिक्षा- बी. कॉम., डिप्लोमा इन कंप्यूटर एकाउंटिंग
प्रकाशित कृतियाँ- मैं देव न हो सकूँगा (कविता संग्रह), परों को खोलते हुए (संयुक्त काव्य संग्रह), शुभमस्तु (संयुक्त काव्य संग्रह), सारांश समय का (संयुक्त काव्य संग्रह), गज़ल के फलक पर (संयुक्त गज़ल संग्रह)
पता- मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मोबाइल- 09369926999
ई-मेल- arunsri.adev@gmail.com
अरुन श्री की कविताएँ
मैं
कितना झूठा था !!
कितनी
सच्ची थी तुम, और
मैं कितना झूठा था!!!
तुम्हे
पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी!
मैं
चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से!
तब
रंगों का अर्थ न तुम जानती थी, न मैं!
एक
गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी
आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग!
मेरी
चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी!
तुम
गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती!
मैं
अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता -
कि
अभी बच्ची हो!
तुम
तुनक कर कोई स्टूल खोजने लगती!
तुम
बड़ी होकर भी बच्ची ही रही, मैं कवि होने लगा!
तुम्हारी
थकी-थकी हँसी मेरी बाँहों में सोई रहती रात भर!
मैं
तुम्हारे बालों में शब्द पिरोता, माथे पर कविताएँ लिखता!
एक
करवट में बिताई गई पवित्र रातों को -
सुबह
उठते पूजाघर में छुपा आती तुम!
मैं
उसे बिखेर देता अपनी डायरी के पन्नों पर!
आरती
गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रंग
दीवारें
कह उठतीं कि वो नहीं बदलेंगी अपना रंग तुम्हारे रंग से!
मैं
खूब जोर-जोर पढता अभिसार की कविताएँ!
दीवारों
का रंग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता!
हमने
तब जाना कि एक रंग “अँधेरा” भी होता है!
रात
भर तुम्हारी आँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन!
तुम
सुबह-सुबह काजल लगा लेती कि छुपा रहे रात का रंग!
मैं
फाड देता अपनी डायरी का एक पन्ना!
मेरा
दिया सिन्दूर तुम चढ़ाती रही गाँव के सत्ती चौरे पर!
तुम्हारी
दी हुई कलम को तोड़ कर फेंक दिया मैंने!
उत्तरपुस्तिकाओं
पर उसी कलम से पहला अक्षर टाँकता था मैं!
मैंने
स्वीकार कर लिया अनुत्तीर्ण होने का भय!
तुमने
काजल लगाते हुए कहा कि मुझे याद करोगी तुम!
मैंने
कहा कि मैं कभी नहीं लिखूँगा कविताएँ!
कितनी
सच्ची थी तुम, और
मैं कितना झूठा था!!!
अंतिम
योद्धा
हाँ
मैं
पिघला दूँगा अपने शस्त्र
तुम्हारी
पायल के लिए
और
धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पाँव
शोभा
बनेंगे
किसी
आक्रमणकारी राजा के दरबार की
फर्श
पर एक विद्रोही कवि का खून बिखरा होगा!
हाँ
मैं
लिखूँगा प्रेम कविताएँ
किन्तु
ठहरो तनिक
पहले
लिख लूँ एक मातमी गीत
अपने
अजन्मे बच्चे के लिए
तुम्हारी
हिचकियों की लय पर
बहुत
छोटी होती है सिसकारियों की उम्र
हाँ
मैं
बुनूँगा सपने
तुम्हारे
अन्तः वस्त्रों के चटक रंग धागों से
पर
इससे पहले कि उस दीवार पर -
जहाँ
धुंध की तरह दिखते हैं तुम्हारे बिखराए बादल
जिनमें
से झांक रहा है एक दागदार चाँद!
वहीं
दूसरी तस्वीर में
किसी
राजसी हाथी के पैरों तले है दार्शनिक का सर!
- मैं
टांग दूँ अपना कवच
कह
आओ मेरी माँ से कि वो कफ़न बुने
मेरे
छोटे भाइयों के लिए
मैं
तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूँगा
हाँ
मुझे
प्रेम है तुमसे
और
तुम्हे मुर्दे पसंद हैं !
सुनो
स्त्री!
सुनो
स्त्री!
पुरुष
स्पर्श की भाषा सुनो!
और
तुम देखोगी आत्मा को देह बनते!
तेज
हुई साँसों की लय पर थिरकती छातियाँ
प्रेम
कहेंगी तुमसे -
संगीत
और नृत्य के संतुलन को!
सामंजस्य
जीवन कहलाता है!
(ये
तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)
सम्मोहन
टूटते है अक्सर -
बर्तन
फेकने की आवाजों से!
आँगन
और छत के लिए आयातित धूप
पसार
दी जाती है,
शयनकक्ष
की मेज पर!
रंगीन
मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते हैं,
जब
बुझ जाएगा तुम्हारी आँखों का सूरज!
(अगर
डूबता तो फिर उग भी सकता था)
थोपी
गई धार्मिक स्मृतियाँ विस्मृत कर देतीं हैं -
प्रतिरोध
की आदिम कला!
इस
घटना को आस्तिक होना कहा जाएगा!
तो
सुनो स्त्री!
पुरुष
स्पर्श की भाषा सुनो!
बस, ह्रदय कर्ज़दार न हो
तुम्हारे
कान गिरवी न रख दिए जाएँ!
(होंठ
उम्र भर सूद चुकाते रहेंगे)
दूब
ताकतवर मानी गई है,
कुचलने
वाले भारी भरकम पैरों से!
बीच
समुन्दर,
अकेला
जहाज,
मस्तूल
पर तुम!
तुम्हारे
पंख सजावट का सामान नहीं हैं!
थोपी
गई स्मृतियाँ नकार दी जानी चाहिए!
तय
करना है
चाँद-सितारे, बादल, सूरज
आँख
मिचौली खेल रहें हैं।
धरती
खुश है,
झूम
रही है।
झूम
रहा है प्रहरी कवि-मन।
समय
आ गया नए सृजन का।
खून
सनी सड़कों पर-
काँटे
उग आए हैं।
जीवन
भाग रहा है नंगे पाँव –
मगर
बचना मुश्किल है।
सन्नाटों
का गठबंधन-
अब
चीखों से है।
हृदयों
के श्रृंगारिक पल में
छत
पर चाँद उतर आता है।
कवि
के कन्धे पर सर रखकर
मुस्काता
है।
नीम
द्वार का गा उठता है
गीत
प्यार के।
कविताएँ
नाखून बढाकर
घूम
रहीं हैं।
नुचे
हुए भावों के चेहरे
नया
मुखौटा ओढ़ चुके हैं।
अट्टहास
करती है नफरत
प्यार
भरी कुछ मुस्कानों पर।
अलग-अलग
से दो मंजर हैं,
किसको
देखूँ?
जुदा-जुदा
सी दो राहें हैं,
क्या
होगा-
मेयार
सफर का?
तय
करना है !
आवारा कवि
अपनी आवारा कविताओं में -
पहाड़ से उतरती नदी में देखता हूँ पहाड़ी लड़की का यौवन!
हवाओं में सूंघता हूँ उसके आवारा होने की गंध!
पत्थरों को काट पगडण्डी बनाता हूँ!
लेकिन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूँ प्रेम तो देह लिखता हूँ!
जैसे खेत जोतता किसान सोचता है फसल का पक जाना!
और जब -
मैं उतर आता हूँ पूर्वजों की कब्र पर फूल चढाने -
कविताओं को उड़ा नदी तक ले जाती है आवारा हवा!
आवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है!
रहस्य नहीं रह जाते पत्थरों पर उकेरे मैथुनरत चित्र!
चाँद की रोशनी में किया गया प्रेम सूरज तक पहुँचता है!
चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के आँगन में!
जल-भुन गए शिखरों से पिघल जाती है बर्फ!
बाढ़ में डूब कर मर जाती हैं पगडंडियाँ!
मैं तय नहीं कर पाता प्रेम और अभिशाप के बीच की दूरी!
किसी अँधेरी गुफा में जा गर्भपात करवा लेती है आवारा लड़की!
आवारा लड़की को ढूँढते हुए मर जाता है प्रेम!
अभिशाप खोंस लेता हूँ मैं कस कर बाँधी गई पगड़ी में,
और लिखने लगता हूँ -
अपने असफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कविताएँ”!
लेकिन -
मैं जब भी लिखता हूँ उसके लिए प्रेम तो झूठ लिखता हूँ!
प्रेम नहीं किया जाता प्रेमिका की सड़ी हुई लाश से!
अपवित्र दिनों के रक्तस्राव से तिलक नहीं लगाता कोई योद्धा!
दुर्घटना के छाती पर इतिहास लिखता हुआ युद्धरत मैं-
उस आवारा लड़की को भूल जाऊँगा एक दिन,
और वो दिन -
एक आवारा कवि का बुद्ध हो जाने की ओर पहला कदम होगा!
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