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ISSN : 2349-7122

Saturday, 22 December 2012

Poem


जब भी करती हूं मैं,
मेरे घर की सफाई
पता नबीं क्या हो जाता है,
मुझे,पुरानी चीजों को देखकर,
चाहती हूं रख लूं
उन सभी को समेटकर
और संजोलूं उन्हे
जो छेड़ देता हैं
सारी अतीत की यादें...
अवचेतन पचल पर अंकित,
वो सारी बातें...
जो दबी हैं अन्त:स्थल में
बंधी हैं एक अनकहे बन्धन से
बन्धन,जो अटूट है
नहीं टूटता काल के प्रहार से
अवरोधों की बयार से
परे है जो
क्रीन्ति के आयाम से
तभी तो एक छोटा सा टेलीवीजन(जो गूंगा सा हो गया है)
भी दिलाता है मुझे याद
जैसे कल की ही हो बात
कितनी विह्वलता से की थी प्रतीक्षा
उसके आगमन की
कितनी खुशियां मनाईं थी
उसके शुभागमन की...
वो दादा जी का बेंत,जो
आज भी याद दिलाता है
उनके जोश भरी चाल की
टूटा हुआ ऐनक
जो कभी शोभा था उनके भाल की
एसी कितनी अमूल्य यादें हैं 
बसा हैं इन पुरानी चीजों मे
कैसे भूल जाऊं
वो खुशबू अपनेपन की
जो बसी है इन पुरानी चीजों मे
भाई-बहन का क्षणिक झगड़ा
दोस्तों का प्यार
मां का वात्सल्य
पिता का दुलार...
सभी कुछ तो छिपा है
इन पुरानी चीजों में
कैसे भूल जाउं वो नन्ही-नन्ही सी खुशियां जो
निहित हैं इन पुरानी चीजों मे,
नहीं छोड़ सकती मैं चाहकर भी
मोह इन पुरानी चीजों से...
नही तोड़ सकती जुदा बन्धन
इन पुरानी चीजों से...
सोचती हूं कभी-कभी
यह निर्जीव पुरानी चीजें
कह जाती हैं बहुत कुछ
जो सुन सकती हूं मैं,
दे जाती है एक अहसास जो
महसूस कर सकती हीं मैं
फिर लोग कैसे नही महसूस कर पाते
एहसास जीते जागते रिश्तों के
कैसे भुला देते हैं
माता पिता का अगाध स्नेह का प्रवाह
को...और तोड़ देते हैं,सारे बन्धन
एक पल मे...
कैसे...?
मैं कभी समझ पाई
और शायद कभी समझ पाउंगी।''
             - क्रांति बाजपेई
               हरदोई

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