- डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
(यह
कहानी उस समय की है जब गाँवों में मजदूर को एक दिन की मजदूरी आठ आने मिलती थी। साइकिल
रखना स्टेटस सिम्बल माना जाता था और गाँव के धनी-मानी व्यक्तियों के पास ही निज की बैलगाड़ी
होती थी।)
शम्भू रैदास रायबरेली जनपद के मलिकपुर बरना उर्फ बन्ना ग्राम में ‘चौधरी’ के
उपनाम से प्रसिद्ध था। जवाँर के लोग उसका बड़ा सम्मान करते थे। बन्ना के जमींदारान
कायस्थ घराने में उसकी पुश्तैनी हलवाही थी। शम्भू भी उसी परम्परा में लाला सूरज
नारायन की सीर का सारा कार्य-भार संभालता था। सूरज नारायन विधुर थे। उनकी पत्नी शारदा
देवी बड़ी ही धर्म-परायण और साध्वी महिला थीं। कुछ वर्षों पूर्व एक लम्बी बीमारी के
बाद उनका देहावसान हुआ था। उनकी सज्जनता की कहानियाँ प्रायः गाँव में लोगों की
जुबान से सुनाई पड़ती थी। सूरज नारायन एक सरकारी मुलाजिम थे और इस सिलसिले में उन्हें
अधिकांशतः गाँव से सुदूर जनपदों में अपने कार्यक्षेत्र में रहना पड़ता था। उनका बड़ा
पुत्र श्याम इलाहाबाद में बी.काम. की पढाई कर रहा था और वहीं एक हॉस्टल में रहता
था। सूरज नारायन के छोटे पुत्र का नाम बृजेन्द्र था। वह दसवीं कक्षा का छात्र था
और अपने पिता के साथ रहता था। उसके पिता अपनी सरकारी मुलाजिमत से वक्त निकालकर
प्रायः गाँव आते और अपने पुश्तैनी मकान की देख-भाल किया करते थे। इसी दौरान वे शम्भू
रैदास से खेती-बारी और मजूरी आदि का हिसाब करते। सूरज नारायन के साथ स्वाभाविक रूप
से उसका बेटा बृजेन्द्र भी गाँव आता और अपने हमजोलियों से मिलकर खुश होता।
एक बार दीपावली के तीन दिन पहले सूरज नारायन जो उस समय प्रतापगढ़ जनपद में तैनात
थे दीपावली के अवसर पर पुरुखों की डेहरी पर दीप जलाने के लिए पुत्र बृजेन्द्र के
साथ गाँव के निकटस्थ हरचन्दपुर रेलवे स्टेशन पर उतरे। परम्परा के अनुसार शम्भू रैदास
उनकी अगवानी करने हेतु स्टेशन पर मौजूद था। किन्तु त्योहार की भीड़ के कारण वे शम्भू
को देख नहीं सके। उन्हें मन ही मन चिन्ता हुई। सफर का पर्याप्त सामान उनके पास था।
अभी वह सोच ही रहे थे कि इस सामान के साथ गाँव तक जाने का क्या प्रबंध करें कि तभी
बृजेन्द्र हर्षातिरेक से चिल्लाया- ‘बाबू,
शम्भू दादा आ गए।’
सूरज नारायन ने बृजेन्द्र की हर्ष-मिश्रित आँखों का अनुसरण करते हुए इंगित
दिशा की ओर देखा तो हाथ मे लठ्ठ लिए मजबूत कद-काठी के चालीस वर्षीय शम्भू रैदास पर
उनकी आँखें स्थिर हो गईं। शम्भू को देखकर सूरज नारायन की उद्विग्नता तुरन्त समाप्त
हो गयी और मुख पर सहज शान्ति की एक मुस्कान तैर उठी। शम्भू ने आगे बढ़कर जुहार की- ‘पांय
लागी चाचा, सफर मां कोनो तकलीफ तो नाहीं भयी?’
सूरज नारायन ने इन्कार में सिर हिलाया। शम्भू की कुशलता पूछी और सामान की
ओर इशारा करते हुये चलने का संकेत किया। शम्भू ने सारा सामान उठाया। शरीर पर व्यवस्थित
किया। कुछ पीठ पर लादा, कुछ हाथ में पकड़ा और चल दिया। स्टेशन के बाहर बैलगाड़ी खड़ी
थी। सारा सामान लद जाने पर सूरज नारायन और बृजेन्द्र भी बैलगाड़ी पर चढ़े। शम्भू ने
बैल नाधे और कहा- ‘मालिक तनी और आगे खिसक के बैठो अभी गाड़ी
उलार है।’ फिर वह उचक कर हाकने की सीट पर सबसे आगे बैठ गया। बैलगाड़ी
धीरे-धीरे आगे बढ़ चली। कुछ दूर आगे बढ़ने पर शम्भू ने टिटकार लगायी- ‘चल
रे हीरा, शाबाश मेरे बच्चे।’ उसके इतना कहते ही बैल तेजी से भागे और
बैलगाड़ी देहात की टेढ़ी-मेढ़ी लीकों पर बलखाती हुयी तेजी से आगे बढ़ने लगी। लढ़िया के
सफर और उसके हिचकोलों का आनन्द लेता हुआ बृजेन्द्र खुशी से चिल्ला उठा- ‘वाह
दादा, मजा आ गया। बैलगाडी ऐसी ही चलाओ। धीमी मत करना।’
* * *
बन्ना गाँव में आज बड़ी चहल-पहल थी। क्यों न हो आखिर पूरे एक वर्ष के बाद कार्तिक-अमावस्या
का पुण्य-पर्व निकट आया था। गाँव के उल्लास का एक और भी कारण था। वह यह कि गाँव से
चार मील दूर रघुबरगंज में आज ही के दिन बाजार भी लगनी थी और दीपावली का साजो-सामान
गाँव वालों को वहीं से खरीदना था। वह गाँव का सबसे निकटस्थ बाजार था। कई सालों के
बाद ऐसा इत्तेफाक पड़ा था कि ऐन दीपावली के दिन ही कस्बे की बाजार भी लगनी थी। अगर
यही बाजार एक या दो दिन पहले पड़ जाती तो लोग त्योहार का साजो-सामान खरीदकर रख लेते।
मगर गरीब-मजदूरों को जिन्हें रोज ही कमाना और खर्च करना पड़ता है उनके लिए इसके
सिवाय कोई विकल्प नहीं था कि वे बाजार जाएँ और त्योहार के लिये अति आवश्यक वस्तुएँ
खरीदकर लाएँ। सूरज नारायन को भी बाजार जाना था। हालाँकि वे प्रतापगढ से कुछ सामान लाए
थे पर लाई-खील, मिट्टी के दिए, मिठाइयाँ तथा पटाखे आदि सामग्री तो यहीं से
खरीदनी थी। बृजेन्द्र जानता था कि बाबूजी को बाजार जाना है तो उसे भी साथ जाने का
अवसर मिलेगा और बाजार की रौनक का भी नजारा होगा।
सूरज नारायन अपनी पुश्तैनी चौपाल में तख्त के ऊपर मसनद के सहारे जमींदाराना
रोब-दाब से बैठे अपने मुसाहिबों से बातें कर रहे थे। तभी बृजेन्द्र ने आकर पूछा- ‘बाबू, बाजार
कब चलोगे, गाँव के तो सारे लोग जा रहे हैं?’
सूरज नारायन ने एक बार नजर उठाकर बृजेन्द्र की ओर देखा। उस मातृहीना बालक
को देखकर उनके मन में करुणा की एक हूक सी उठी। फिर उन्होंने स्वयं को संयत करते हुए
कहा- ‘खाना-वाना खाकर चलेंगे, हमें साइकिल से जाना है, जल्द
ही लौट आएँगे।’
बृजेन्द्र आश्वस्त होकर खेलने चला गया।
सूरज नारायन फिर मुसाहिबों की ओर उन्मख हुए। बातें हो ही रही थीं कि शम्भू रैदास
लाठी ठकठकाते हुए आ पहुँचा और दूर से ही जुहार की- ‘चाचा,
जय राम जी की।’
‘कहो
चौधरी’ सूरज नारायन ने बनावटी नाराजगी से कहा- ‘आज सबेरे कहाँ गायब हो गए थे, तुम्हें पता है गइया ने आज दूध नहीं दिया।
जब तुम जानते हो कि यह गाय केवल तुम्हारे बस की है तब भी तुम नहीं आए?’
‘ऐसी
बात नहीं है चाचा हम आइत तो जरुर मगर आप जनतै हैं कि आज दिवारी है। घर मां एकु
पैसा नाहीं रहा। सलीम शाह के हियाँ उधार लेय के बरे गए रहन मुदा उहौ मिनहा कर
दिहिन। मालिक घर के लरिकवा लावा-खुटिया के आस लगाए हैं। मगर जानि परत है यहि बेरा
तो दियौ न बारि पाउब। यही मारे नाहीं आय पायेन मालिक।’
‘अरे...’ -सूरज
नारायन ने चौंकते हुए कहा- ‘हमने कल जो तुम्हें पैसे दिए थे उनका क्या
हुआ?’
‘उहै
मजूरी मां चले गए चाचा, आपै तो कह्यो रहै कि बियास खेत कै माटी
समथर करै का है। तो उहै हम मजूर लगाय के माटी बराबर करवायन। खेतु एकदम चकाचक होयगा, चाचा।
मगर मजूरी नगद देय का परी। अब त्योहार मा केहि का ना करित मालिक। आखिर उनहूँ सबका
तो लच्छमी पूजै का है। एक तो वैसे ही हम सबसे लच्छमी रूठी रहत है। ऊपर से पुजापा न
होई तो कहो बैरूइ ठानि लेइ।’
‘अरे
भलेमानुष!’- सूरज नारायन ने दुनियादारी की बात समझाते हुए कहा- ‘तुमको
अपने लिए कुछ तो बचा लेना चाहिए था। क्या तुम्हारे घर-बार नहीं है। तुम्हारे बच्चे
नहीं हैं। जब वे लावा-खुटिया माँगेंगे तो कहाँ से दोगे?’
‘यही
बदे तो सलीम के पास गए थे, चाचा....’
- शम्भू ने निःश्वास लेकर
कहा। फिर उसने आशा भरी निगाह से सूरज नारायन की ओर देखा। पर वहाँ सिवाय एक शून्य के
और कुछ न दिखाई पड़ा। शम्भू का उत्साह एक बारगी ही मानो ठंडा पड़ गया। अचानक किसी
अप्रत्याशित आवेश से अघीर होकर उसने काँपते स्वरों में कहा- ’अब
आप ही का सहारा है, मालिक। जौ आपु चइहौ तौ हमरौ त्यूहार हुइ
जाई। बच्चे असीस देहैं मालिक।’
‘देखो
चौधरी, हम तुम्हें रुपए पहले ही दे चुके हैं। अब
तुम लुटाते फिरो तो हम क्या करें? माना कि काम हमारा ही था पर कुछ पैसे तो तुम्हें
रोक ही लेना चाहिए था। अपनी इस हालत के तुम खुद जिम्मेदार हो। हमें अभी खाद मंगानी
है। लगान व सिंचाई भरनी है, अब इस समय हम और कोई मदद नहीं कर सकते।’
‘ऐसा
न कहें, चाचा। हमार पुरखा जनम भर आपके हियाँ हरवाही किहे हैं? आपकी
मेहरबानी से हमरिउ घर मां तनी उजियार होय जाई।’
‘नहीं
शम्भू, हमारे पास भी कोई पैसे का पेड़ थोड़े ही है कि जब हिलाया पैसे टपक
पड़े। कमाई के लिये खून-पसीना एक कर देना पड़ता है तब तनखाह हाथ में आती है। जाओ
हमारा समय मत बर्बाद करो।’ इतना कहकर सूरज नारायन उठे और तेजी से घर
के अन्दर चले गए।
शम्भू रैदास ने मैले गमछे से दाहिनी आँख से हठात टपक आए आँसू की बूँद को
पोछा और लाठी उठाकर किसी नए सहारे की तलाश में चला गया।
* * *
सूरज नारायन को साइकिल
से बाजार जाना था इसलिए उन्होंने कोई जल्दी नहीं की। बृजेन्द्र के साथ जब वे
रघुबरगंज पहुँचे तो सूर्यास्त होने में एक घण्टे का समये बाकी बचा था। उन्होंने तत्परता
से उपयोगी सामान खरीदा, बृजेन्द्र की पसन्द की मिठाई,
खिलौने, पटाखे,
लाई-च्यूड़ा, खील और फल, दिया, मोमबत्ती,
ग्वालिन, गणेश-लक्ष्मी
की मूर्ति, सुगंध की सामग्री और पूजा का सामान। सारी खरीदारी करने के
उपरान्त सूरज नारायन ने दो झोले साइकिल के हैण्डिल पर दाएँ-बाएँ लटकाए। एक झोला
पीछे कैरियर पर बाँधा। बृजेन्द्र को साईकिल के हत्थे पर बिठाया और तेजी से गाँव की
ओर बढ़े। अँधेरा होने में अभी कुछ समय था। वे उजाला रहते ही गाँव पहुँच जाना चाहते
थे। इस विचार से उन्होंने पैडिल पर जोर लगाकर साईकिल को दौड़ाना शुरू कर दिया। मगर
यह क्या...? ‘भड़ाक’ की एक जोरदार आवाज हुई और साइकिल का पिछला
पहिया बर्स्ट हो गया। बृजेन्द्र उचक कर नीचे कूदा। सूरज नारायन को मजबूरन उतरना
पड़ा। बाजार से वे लगभग आधा मील दूर आ चुके थे। आस-पास कोई गाँव नहीं था। दूर-दूर
तक खेत बिखरे हुए थे और ढलते हुए सूरज के बीच घना सन्नाटा कुछ-कुछ रहस्यमय होता जा
रहा था। सूरज नारायन के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ खिंच आईं। बृजेन्द्र भी स्थिति
की गम्भीरता को समझ रहा था। उसने आकुल स्वर में पूछा- ‘अब क्या होगा,
बाबू? साइकिल
ने तो बड़े बे-मौके धोखा दिया।’
सूरज नारायन ने समर्थन में सिर हिलाया और माथे का पसीना पोछते हुए निश्चयात्मक
स्वर में बोले- ‘हमें बाजार वापस जाना होगा। अगर जरा भी
गफलत की तो वहाँ भी साइकिल की दुकानें बन्द हो जाएँगी।’
* * *
सूरज नारायन साइकिल बनवाकर
बाजार से जब दूसरी बार चले तो अँधेरा धीरे-धीरे पसरने लगा था। दीप जलाने के निर्धारित
मुहूर्त तक पहुँच जाने का विश्वास मन में लिए सूरज नारायन अपनी गाँव की ओर तेजी से
साइकिल पर भागे जा रहे थे। शाम होने के साथ ही हवा में कुछ शीत पैदा हो गई थी जो
बृजेन्द्र को साइकिल के हत्थे पर बैठे हुए बड़ी भली लग रही थी। अब वे अपने गाँव के
पास आ गए थे। यहाँ से उनका पुश्तैनी बाग प्रारम्भ होता था। इसमें आम के देशी
किस्मों के अनेक विशालकाय वृक्ष थे। इसके अतिरिक्त महुआ,
कटहल, नींबू
और आँवले के पेड़ भी थे। गाँव को जाने वाली सड़क इस बाग के किनारे से होकर जाती थी।
बाग के दाहिनी ओर बड़ी नहर थी। सूरज नारायन बाग के पास से गुजर ही रहे थे कि अचानक
उनकी छठी इन्द्री सजग हुई। उन्होंने एकाएक साइकिल मे ब्रेक लगाए और पलटकर पीछे
देखा। अँधेरा बढ़ चुका था। बाग के पेड़ों के कारण भी आस-पास कुछ दिखाई नहीं पड़ता था।
सूरज नारायन हठात् साइकिल से उतर पड़े। उन्होंने एक हाथ से साइकिल संभाली और दूसरे
हाथ से साइकिल के कैरियर को टटोला। उनकी आशंका सही निकली, कैरियर से झोला गायब था।
उसमें केवल रस्सी फॅंसी हुई थी। सूरज नारायन सन्नाटे में आ गए। पूजा का सारा सामान
उसी में पैक था। मोमबत्तियाँ, मिठाई और गट्टे भी उसी में थे। इसके
अतिरिक्त और जाने क्या-क्या सामान उसमें रहा हो। उस शीत में भी सूरज नारायन के
माथे पर पसीना आ गया।
अब तक बृजेन्द्र भी साइकिल से उतर कर नीचे आ चुका था। वह पिता को परेशान
देखकर घबराई हुई आवाज में बोला- ‘अब क्या हुआ, बाबू?
साइकिल तो ठीक है?’
‘हाँ, साइकिल
तो ठीक है।’ .सूरज नारायन ने गम्भीर होकर कहा- ‘मगर भैइया कैरियर वाला झोला लगता है कहीं रास्ते
में गिर गया है?’
‘ओह....‘- निराशा में बृजेन्द्र के मुख से इतना ही
निकला। उसके मन में एक अनचाहा सा क्षोभ उत्पन्न हआ। जगमग दीपावली की समस्त संभावनाएँ
मानो उसी क्षोभ में समा गई।
सूरज नारायन झोले की तलाश में क्षीण सी आशा लिए कुछ दूर तक पलटकर घूम आए।
इधर-उधर काफी ताक-झाँक की। बृजेन्द्र ने भी
ढूँढने का प्रयास किया। पर उस नामुराद झोले को न मिलना था और न मिला। हार
कर पिता-पुत्र फिर साईकिल के पास वापस आये। गाँव पास आ ही चुका था। अतः निराशा और शोक
में डूबे दोनों प्राणी पैदल ही गाँव की ओर बढ़े। अभी वे कुछ ही कदम चले थे कि बड़ी
नहर की ओर से एक लम्बी कद-काठी का व्यक्ति आता दिखाई दिया। समीप आने पर बुजेन्द्र
ने उसे पहचाना- ‘अरे,
शम्भू दादा इस समय और यहाँ?’
शम्भू ने इस समय बृजेन्द्र के आश्चर्य पर
ध्यान नहीं दिया। उसने सूरज नारायन को लक्ष्य करके पूछा- ‘
का बात है चाचा? सब
ठीक तो है। बजार से लौटे मा देर होय गई है।’
‘हाँ
चौधरी, आज का दिन तो हमारे लिए आफत ही हो गया। पहले बाजार से लौटते समय अहिरन के
पुरवा के पास साईकिल बर्स्ट हो गई तो फिर बाजार वापस जाना पड़ा। वहाँ से दुबारा लौटे
तो बाग के पास कुछ शंका हुई। पलटकर देखा तो कैरियर में बंधा झोला नदारद था। त्योहार
का जरूरी सामान सब उसी में था।’
‘यह
तो बहुत बुरा हुआ मालिक।’ - शम्भू ने कुछ सोचते हुए कहा- ‘अब
पता नहीं कहाँ गिरा होय। यहि अँधेरे माँ तो पता लगा पाना बहुतै मुश्किल है। को
जाने केहू के हाथे लाग गा होय। सो अब राम-राम करिए मालिक। धीरज धरें। घरे जाँय।
जौनु भवा तौनु भवा। हमका बृजेन्द्र भइया का जरूर अफसोस है। त्योहार तो लरिकनै का
होत है न चाचा।’
‘हाँ
चौधरी।’ -सूरज नारायन ने थके स्वर में समर्थन किया। ‘मगर, तुम
अँधेरे में अकेले कहाँ घूम रहे हो?’
‘कुछ
नहीं मालिक, हमरे लोगन के लिये तो सबु अंधेरुइ अँधेर है। तनिक तलाय (शौच-क्रिया)
आय रहेन। हियाँ नहर मां पानी कै सुभीता है।’
* * *
चौपाल में लालटेन जल रही थी। तख्त के पास चारपाई पर बृजेन्द्र लुटा-पिटा सा
बैठा था। त्योहार का सारा उल्लास ठंडा हो चुका था। चौपाल के सामने बाईं ओर हटकर
पक्के कुएँ की जगत पर सूरज नारायन ठन्डे पानी से नहाकर अपनी थकान और शायद मन की
खीझ भी उतार रहे थे। आस-पास के घरों में रोशनी हो रही थी। दिए व मोमबत्तियाँ जलाई जा
रही थीं। कुछ लोग दिए लेकर अपने खेतों में दीवाली जगाने जा रहे थे। रह-रह कर पटाखों
की आवाज़ भी आ रही थी। बृजेन्द्र इतना मायूस था कि वह अपने हमजोलियों के पास भी नहीं
गया। सूरज नारायन यद्यपि नहा रहे थे मगर उनके मन में विचारों का अन्धड़ चल रहा था।
ऐसी मनहूस दीवाली तो कभी नहीं हुई। उस साल भी नहीं जिस साल बृजेन्द्र की माँ का
देहावसान हुआ था। आज तो दिया-बत्ती भी जलाने की नौबत नहीं आई। बृजेन्द्र कितना
दुखी है, आखिर है तो बच्चा ही। उसे ऐसे कैसे बहलाया जा सकता है। काश! उसकी माँ जिन्दा
होती तो कम से कम यह स्थिति तो नहीं ही आती। उनके समय में घर कैसा भरा-पूरा रहता
था।
इधर ब्रजेन्द्र सोच रहा था इस नामुराद झोले को आज ही जाना था। मैं आगे बैठा
था इसलिए जान नहीं पाया। अगर मैं पीछे बैठा होता तो झोला पकड़े भी रह सकता था पर पापा को साइकिल चलाने में
दिक्कत होती। फिर किसे पता था कि ऐसी अनहोनी घटना हो जाएगी। सारे घरों में कितनी
जगमगाहट हो रही है। राधे दादा अपने दरवाजे पर पटाखा छुटा रहे हैं। लोगों के घर में
गणेश-लक्ष्मी की पूजा हो चुकी है। यहाँ कोई पूछने भी नहीं आया। सबको पता है बिना औरत
का घर है, यहाँ पूजा कौन करेगा। हो सकता है कि कुछ देर में किसी को ध्यान आए
कि इस घर में अभी तक दिए क्यों नहीं जले।
बृजेन्द्र सोच ही रहा था कि किसी के आने की आहट हुई। उसने समझा शायद राधे
दादा अँधेरा देखकर आ गए हों, लेकिन नहीं यह तो शम्भू दादा हैं और यह गाढ़े की चादर
सारे शरीर में क्यों लपेटे हैं। समझा हरारत हुई होगी। बाबू से एनासिन लेने आए
होंगे। फिर भी, उसने पूछा- ‘अरे दादा,
कैसे आए? अभी तो बाग में मिले
थे?’
‘तो
का हुआ इहौ तो आपन घर आय। तनिक चाचा से काम रहा भइया।’
‘क्या
जाड़ा लग रहा है?’
‘हाँ
बेटा, थोड़ी सुरसुरी चढ़ी है।’
बृजेन्द्र को पक्का यकीन हो गया कि चौधरी बुखार-दर्द की गोली ही लेने आए
हैं। उसने कहा- ‘ठीक है बैठो,
बाबू बस नहा के आ ही रहे हैं।’ शम्भू
चौपाल की दीवाल के सहारे पीठ सटाकर जमीन पर हमेशा की तरह उकड़ू बैठ गया। उसने चादर
कसकर लपेट ली मानो जाड़ा लग रहा हो।
’दादा
तुम तो काँप रह हो।’
‘नही
भइया, अबै ठीक होय जाई। जइसन तलाय से आयेन वैसेन कुछ जूड़ी अस लागि। हम
पंचन का तो यह सब लागे रहत है भइया। कहाँ तक फिकर करी।’
‘अभी
बाबू आकर एनासिन दे देंगे। सुबह तक ठीक हो जाओगे।’
‘हाँ
भइया’- बृजेन्द्र ने आश्वासन दिया और उठकर लालटेन की रोशनी तेज कर दी।
तभी सूरज नारायन इकलाई की धोती लपेटे, खड़ाऊँ की खटपट करते हुए चौपाल में प्रविष्ट
हुए। शम्भू को उपस्थित देखकर उन्हें कुछ विस्मय तो हुआ पर सोचा किसी काम से आया
होगा। हमारी मनोदशा की इसको जरा भी परवाह नहीं। देख नहीं रहा कि इस पहाड़ से घर में
कितना अँधेरा है। आह, इसे बरदाश्त करना आज कितनी बड़ी मजबूरी है।
‘अब
क्या है चौधरी?’- सूरज नारायन ने उकताए स्वर में पूछा- ‘कोई नई मुसीबत लेकर आए हो? आज
का दिन तो लगता है मुसीबतों का ही दिन है।’
फिर चौधरी को चादर में लिपटा
देखकर बनावटी हमदर्दी से पूछा- ‘तबियत तो ठीक है न चौधरी?’
’हाँ
मालिक, तबियत तो बिल्कुल बरोबर है।’-
इतना कहकर विशालकाय शम्भू
अचानक तनकर खड़ा हो गया। अगले ही पल उसने अपनी चादर एकबारगी ही अपने शरीर से उतारकर
फेंक दी। बृजेन्द्र ने आँखें फाड़कर विस्मय से देखा और उछलकर हिस्टीरियाई आवाज में चिल्लाया
-‘दादा, यही हमारा झोला है।’
अब लाला सूरज नारायन ने भी अपनी आँखें उठाईं। शम्भू रैदास नत सिर उनके
सामने खड़ा था। सूरज नारायन को एकाएक कुछ समझ में नहीं आया कि वह क्या करें या क्या
कहें? अचानक उन्हें लगा कि उस विशालकाय लम्बे व्यक्ति के सामने वह
बिल्कुल बौने हो गए हैं। यदि शम्भू चाहता तो इस झोले की सामग्री से वह अपने घर की
दीवाली जगमग कर सकता था। आखिर उसके घर में भी तो अँधेरा था। उस अँधेरे को दूर करने
की खातिर ही वह सबेरे मिन्नतें करने आया था। परन्तु,
उस समय उनका दिल जरा भी नहीं
पसीजा था। इधर शम्भू को देखो, उसने इस घर की कितनी परवाह की। वह हमारे
आने के बाद झोले की तलाश में भटका होगा। आखिर, उसने इस घर का नमक खाया है। उसके पुरखे यहाँ की ड्योढ़ी पर पले थे।
शायद, उसने अपना वही हक अदा किया है। मगर नहीं,
संभवतः यह सम्पूर्ण सच नहीं
है। सच तो यह है कि शम्भू के खून में ईमानदारी है,
मानवता है, चरित्र है और वह सब कुछ है जो एक सच्चे
इंसान में होना चाहिए। शायद हम जैसे शहर की आडम्बरपूर्ण सभ्यता में आत्ममुग्ध रहने
वालों में इसी निश्छल सच्चाई की नितान्त कमी है।
सूरज नारायन को इतना साहस नहीं हुआ कि वे आगे बढ़कर झोले को हाथ लगा सकें।
- ई
एस-1/436, सीतापुर रोड योजना
अलीगंज सक्टर-ए, लखनऊ
।
आपने लिखा...
ReplyDeleteकुछ लोगों ने ही पढ़ा...
हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 26/02/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
अंक 224 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।
Mujhe bahut bahut bahut achhi lagi kahani...jaise maine pahle bhi padhi ho aisi kahaniya..dhnyawad
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