10 सितंबर,
1932 को अल्मोड़ा
(उत्तराखंड) के गाँव ओलियागाँव के एक किसान परिवार में जन्मे शेखर जोशी कथा-लेखन को
दायित्वपूर्ण कर्म मानते हैं। सन् 1953 में लिखी उनकी पहली कहानी ‘दाज्यू’ काफी चर्चित
हुई। इस कालजयी कहानी का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इस पर चिल्ड्रन फिल्म
सोसायटी ने फिल्म का निर्माण किया।
शेखर जोशी जी का आभार कि उन्होंने यह कहानी यहाँ प्रकाशित करने की अनुमति
प्रदान की।
दाज्यू
चौक से निकल कर बायीं ओर जो बड़े साइनबोर्ड वाला छोटा कैफे
है वहीं जगदीश बाबू ने उसे पहली बार देखा था। गोरा-चिट्टा रंग,
नीली शफ्फ़ाफ आँखें,
सुनहरे बाल और चाल में एक अनोखी मस्ती- पर
शिथिलता नहीं। कमल के पत्ते पर फिसलती हुई पानी की बूँद की सी फुर्ती। आँखों की
चंचलता देख कर उसकी उम्र का अनुमान केवल नौ-दस वर्ष ही लगाया जा सकता था और शायद
यही उम्र उसकी रही होगी।
अधजली सिगरेट का एक लंबा कश खींचते हुए जब जगदीश बाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से उनकी, उस स्थान पर आने वाले व्यक्ति की, प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन के लिए थोड़ा झुका और मुस्कराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समाहित था। ‘सिंगल चाय’ का आर्डर पाने पर वह एक बार पुन: मुस्करा कर चल दिया और पलक मारते ही चाय हाजिर थी।
मनुष्य की भावनाएँ बड़ी विचित्र होती हैं। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, उस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता। उस एकाकीपन की अनुभूति, उस अलगाव की जड़ें होती हैं- बिछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।
जगदीश बाबू दूर देश से आए हैं, अकेले हैं। चौक की चहल-पहल, कैफे के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है। शायद कुछ दिनों रहकर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे। पर आज तो लगता है यह अपना नहीं, अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है! और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं अपने गाँव-पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे-होटल…!
’चाय शा’ब!’
जगदीश बाबू ने राखदानी में सिगरेट झाड़ी। उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है। और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया-
’क्या नाम है तुम्हारा?’
’मदन।’
’अच्छा, मदन! तुम कहाँ के रहने वाले हो?’
’पहाड़ का हूँ, बाबूजी!’
’पहाड़ तो सैकड़ों हैं- आबू, दार्जिलिंग, मंसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया। मुस्कुराकर बोला-
’अल्मोड़ा, शा’ब अल्मोड़ा।’
’अल्मोड़ा में कौन-सा गाँव है?’ विशेष जानने की गरज से जगदीश बाबू ने पूछा।
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया। शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था, इस कारण टालता हुआ सा बोला, ‘वह तो दूर है शा’ब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा।’
’फिर भी, नाम तो कुछ होगा ही।’ जगदीश बाबू ने जोर देकर पूछा।
’डोट्यालगों’ वह सकुचाता हुआ-सा बोला।
जगदीश बाबू के चेहरे पर पुती हुई एकाकीपन की स्याही दूर हो गई और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव ‘……..’ के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ‘ट्रे’ गिर पड़ेगी। उसके मुँह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह मानो अपने अतीत को फिर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो।
अतीत- गाँव…ऊँची पहाड़ियाँ…नदी…ईजा (मां)…बाबा…दीदी…भुलि (छोटी बहन)…दाज्यू (बड़ा भाई)…!
मदन को जगदीश बाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा?- नहीं, दीदी,…भुलि?- नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू!
दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीश बाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गई। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
‘दाज्यू, जैहिन्न…।’
‘दाज्यू, आज तो ठंड बहुत है।’
‘दाज्यू, क्या यहाँ भी ‘ह्यूं’ (हिम) पड़ेगा।’
‘दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।’ तभी किसी और से ‘बॉय’ की आवाज पड़ती और मदन उस आवाज की प्रतिध्वनि के पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाता! आर्डर लेकर फिर जाते-जाते जगदीश बाबू से पूछता, ‘दाज्यू कोई चीज?’
‘पानी लाओ।’
‘लाया दाज्यू’, दूसरी टेबल से मदन की आवाज सुनाई देती।
मदन ‘दाज्यू’ शब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर माँ अपने बेटे को चूमती है।
कुछ दिनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया। उन्हें अब चौक, केफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा। परंतु अब उन्हें यह बार-बार ‘दाज्यू’ कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…।
‘मदन! इधर आओ।’
‘आया दाज्यू!’
‘दाज्यू’ शब्द की आवृत्ति पर जगदीश बाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे- अपनत्व की पतली डोरी ‘अहं’ की तेज धार के आगे न टिक सकी।
‘दाज्यू, चाय लाऊँ?’
‘चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन रात। किसी की ‘प्रेस्टिज’ का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?’
जगदीश बाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन ‘प्रेस्टिज’ का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाए ही सब कुछ समझ गया था।
मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर- गाँव से दूर, ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीयता-प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदी से, बाबा की बाँहों के, और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो।
परंतु भावुकता स्थायी नहीं होती। रो लेने पर, अंतर की घुमड़ती वेदना को आँखों की राह बाहर निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं।
मदन पूर्ववत काम करने लगा।
दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीश बाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गई। कैफे में पहुँचकर जगदीश बाबू ने इशारे से मदन को बुलाया परंतु उन्हें लगा जैसे वह उनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया। आज उसके मुँह पर वह मुस्कान न थी और न ही उसने ‘क्या लाऊँ दाज्यू’ कहा। स्वयं जगदीश बाबू को ही कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेट’ परंतु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की अपेक्षा ‘लाया शा’ब’ कहकर वह चल दिया। मानों दोनों अपरिचित हों।
‘शायद पहाडिय़ा है?’ हेमंत ने अनुमान लगाकर पूछा।
‘हाँ’, रूखा सा उत्तर दे दिया जगदीश बाबू ने और वार्तालाप का विषय ही बदल दिया।
मदन चाय ले आया था।
‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के?’ हेमंत ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीश बाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही रह गईं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीश बाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना… फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया… और एक दिन ‘किसी की प्रेस्टिज का खयाल नहीं रहता तुम्हें…’
जगदीश बाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखी सा फूट पड़ेगा।
हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘बॉय कहते हैं शा’ब मुझे।’ संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।
अधजली सिगरेट का एक लंबा कश खींचते हुए जब जगदीश बाबू ने कैफे में प्रवेश किया तो वह एक मेज पर से प्लेटें उठा रहा था और जब वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से उनकी, उस स्थान पर आने वाले व्यक्ति की, प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कुछ बोला नहीं। हाँ, नम्रता प्रदर्शन के लिए थोड़ा झुका और मुस्कराया भर था, पर उसके इसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समाहित था। ‘सिंगल चाय’ का आर्डर पाने पर वह एक बार पुन: मुस्करा कर चल दिया और पलक मारते ही चाय हाजिर थी।
मनुष्य की भावनाएँ बड़ी विचित्र होती हैं। निर्जन, एकांत स्थान में निस्संग होने पर भी कभी-कभी आदमी एकाकी अनुभव नहीं करता। लगता है, उस एकाकीपन में भी सब कुछ कितना निकट है, कितना अपना है। परंतु इसके विपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नारियों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की अनुभूति होती है। लगता है, जो कुछ है वह पराया है, कितना अपनत्वहीन! पर यह अकारण ही नहीं होता। उस एकाकीपन की अनुभूति, उस अलगाव की जड़ें होती हैं- बिछोह या विरक्ति की किसी कथा के मूल में।
जगदीश बाबू दूर देश से आए हैं, अकेले हैं। चौक की चहल-पहल, कैफे के शोरगुल में उन्हें लगता है, सब कुछ अपनत्वहीन है। शायद कुछ दिनों रहकर, अभ्यस्त हो जाने पर उन्हें इसी वातावरण में अपनेपन की अनुभूति होने लगे। पर आज तो लगता है यह अपना नहीं, अपनेपन की सीमा से दूर, कितना दूर है! और तब उन्हें अनायास ही याद आने लगते हैं अपने गाँव-पड़ोस के आदमी, स्कूल-कालेज के छोकरे, अपने निकट शहर के कैफे-होटल…!
’चाय शा’ब!’
जगदीश बाबू ने राखदानी में सिगरेट झाड़ी। उन्हें लगा, इन शब्दों की ध्वनि में वही कुछ है जिसकी रिक्तता उन्हें अनुभव हो रही है। और उन्होंने अपनी शंका का समाधान कर लिया-
’क्या नाम है तुम्हारा?’
’मदन।’
’अच्छा, मदन! तुम कहाँ के रहने वाले हो?’
’पहाड़ का हूँ, बाबूजी!’
’पहाड़ तो सैकड़ों हैं- आबू, दार्जिलिंग, मंसूरी, शिमला, अल्मोड़ा! तुम्हारा गाँव किस पहाड़ में है?’
इस बार शायद उसे पहाड़ और जिले का भेद मालूम हो गया। मुस्कुराकर बोला-
’अल्मोड़ा, शा’ब अल्मोड़ा।’
’अल्मोड़ा में कौन-सा गाँव है?’ विशेष जानने की गरज से जगदीश बाबू ने पूछा।
इस प्रश्न ने उसे संकोच में डाल दिया। शायद अपने गाँव की निराली संज्ञा के कारण उसे संकोच हुआ था, इस कारण टालता हुआ सा बोला, ‘वह तो दूर है शा’ब अल्मोड़ा से पंद्रह-बीस मील होगा।’
’फिर भी, नाम तो कुछ होगा ही।’ जगदीश बाबू ने जोर देकर पूछा।
’डोट्यालगों’ वह सकुचाता हुआ-सा बोला।
जगदीश बाबू के चेहरे पर पुती हुई एकाकीपन की स्याही दूर हो गई और जब उन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कि वे भी उसके निकटवर्ती गाँव ‘……..’ के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण अभी मदन के हाथ से ‘ट्रे’ गिर पड़ेगी। उसके मुँह से शब्द निकलना चाह कर भी न निकल सके। खोया-खोया सा वह मानो अपने अतीत को फिर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो।
अतीत- गाँव…ऊँची पहाड़ियाँ…नदी…ईजा (मां)…बाबा…दीदी…भुलि (छोटी बहन)…दाज्यू (बड़ा भाई)…!
मदन को जगदीश बाबू के रूप में किसकी छाया निकट जान पड़ी! ईजा?- नहीं, बाबा?- नहीं, दीदी,…भुलि?- नहीं, दाज्यू? हाँ, दाज्यू!
दो-चार ही दिनों में मदन और जगदीश बाबू के बीच की अजनबीपन की खाई दूर हो गई। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाई देता-
‘दाज्यू, जैहिन्न…।’
‘दाज्यू, आज तो ठंड बहुत है।’
‘दाज्यू, क्या यहाँ भी ‘ह्यूं’ (हिम) पड़ेगा।’
‘दाज्यू, आपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।’ तभी किसी और से ‘बॉय’ की आवाज पड़ती और मदन उस आवाज की प्रतिध्वनि के पहुँचने से पहले ही वहाँ पहुँच जाता! आर्डर लेकर फिर जाते-जाते जगदीश बाबू से पूछता, ‘दाज्यू कोई चीज?’
‘पानी लाओ।’
‘लाया दाज्यू’, दूसरी टेबल से मदन की आवाज सुनाई देती।
मदन ‘दाज्यू’ शब्द को उतनी ही आतुरता और लगन से दुहराता जितनी आतुरता से बहुत दिनों के बाद मिलने पर माँ अपने बेटे को चूमती है।
कुछ दिनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया। उन्हें अब चौक, केफे ही नहीं सारा शहर अपनेपन के रंग में रंगा हुआ सा लगने लगा। परंतु अब उन्हें यह बार-बार ‘दाज्यू’ कहलाना अच्छा नहीं लगता और यह मदन था कि दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…।
‘मदन! इधर आओ।’
‘आया दाज्यू!’
‘दाज्यू’ शब्द की आवृत्ति पर जगदीश बाबू के मध्यमवर्गीय संस्कार जाग उठे- अपनत्व की पतली डोरी ‘अहं’ की तेज धार के आगे न टिक सकी।
‘दाज्यू, चाय लाऊँ?’
‘चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन रात। किसी की ‘प्रेस्टिज’ का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?’
जगदीश बाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन ‘प्रेस्टिज’ का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाए ही सब कुछ समझ गया था।
मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर- गाँव से दूर, ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीयता-प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदी से, बाबा की बाँहों के, और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो।
परंतु भावुकता स्थायी नहीं होती। रो लेने पर, अंतर की घुमड़ती वेदना को आँखों की राह बाहर निकाल लेने पर मनुष्य जो भी निश्चय करता है वे भावुक क्षणों की अपेक्षा अधिक विवेकपूर्ण होते हैं।
मदन पूर्ववत काम करने लगा।
दूसरे दिन कैफे जाते हुए अचानक ही जगदीश बाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गई। कैफे में पहुँचकर जगदीश बाबू ने इशारे से मदन को बुलाया परंतु उन्हें लगा जैसे वह उनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन आया। आज उसके मुँह पर वह मुस्कान न थी और न ही उसने ‘क्या लाऊँ दाज्यू’ कहा। स्वयं जगदीश बाबू को ही कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेट’ परंतु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की अपेक्षा ‘लाया शा’ब’ कहकर वह चल दिया। मानों दोनों अपरिचित हों।
‘शायद पहाडिय़ा है?’ हेमंत ने अनुमान लगाकर पूछा।
‘हाँ’, रूखा सा उत्तर दे दिया जगदीश बाबू ने और वार्तालाप का विषय ही बदल दिया।
मदन चाय ले आया था।
‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के?’ हेमंत ने अहसान चढ़ाने की गरज से पूछा।
कुछ क्षणों के लिए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीश बाबू की आँखें चाय की प्याली पर ही रह गईं। मदन की आँखों के सामने विगत स्मृतियाँ घूमने लगीं… जगदीश बाबू का एक दिन ऐसे ही नाम पूछना… फिर… दाज्यू आपने तो कल थोड़ा ही खाया… और एक दिन ‘किसी की प्रेस्टिज का खयाल नहीं रहता तुम्हें…’
जगदीश बाबू ने आँखें उठाकर मदन की ओर देखा, उन्हें लगा जैसे अभी वह ज्वालामुखी सा फूट पड़ेगा।
हेमंत ने आग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’
‘बॉय कहते हैं शा’ब मुझे।’ संक्षिप्त-सा उत्तर देकर वह मुड़ गया। आवेश में उसका चेहरा लाल होकर और भी अधिक सुंदर हो गया था।
bahut acchi, marmsparshi aur kaaljayi kahani.
ReplyDeleteइतनी भावप्रवण रचना पढ़ने का सुअवसर प्रदान करने के लिये आपका ह्रदय से आभारी हूँ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना :)
ReplyDeleteमैदान से लेकर पहाड़ों तक से लुप्त होते अपनेपन और उसकी मिठास को खटास में बदलने की विडंबना की कहानी है'दाज्यू'.यह कहानी अपने शिल्प ,भाषा और कथ्य तीनों से बाँधती है.बड़ी बात कहती हुई एक छोटी किंतु आसानी से भूली न जा सकने वाली कहानी.इस सुन्दर कहानी को पढ़वाने के लिए 'शब्द व्यंजना' के संपादक राहुल देव को धन्यवाद!
ReplyDelete-गुणशेखर
Adbhud dajyu
ReplyDeleteवाक़ई यहां कहानी बाल मजदूरी की वजह पर प्रकाश डालती हुई एक बाहरी वातावरण में किस प्रकार अजनबी आपसी रिस्ते बनाते हैं बड़ी सहज से कवि शेखर जोशी ने बताया
ReplyDeleteबेहद रोचक पर मेरा अधिकार नही बनता कि किसी को बेवजह सलाह दूं पर सभी भारतीय अपने ही हैं इसलिए कहना चाहता हूं की जगदीश जी लड़के से माफी मांगनी चाहिए थी।सही है ना। वैसे बहुत सारा प्यार इस कहानी के लिए 😊🙏
ReplyDeleteपद और प्रतिष्ठा होने पर लोग सगे कमजोर रिश्तों से दूरियां बना लेते हैं। यहतो एक ग्राहक और 'छोटू' के बीच का रिश्ता है। अतः जगदीश बाबू और मदन का व्यवहार एक दूसरे के प्रति अत्यंत ही स्वाभाविक है। फिर बच्चे के बालमन पर लगी चोट और आत्म सम्मान में अगले को नाम न बताना भी स्वाभाविक है। बहुत बहुत ही यथार्थ कथावस्तु। बहुत ही सजीव चित्रण आदरणीय जोशी जी। 🙏🙏
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