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ISSN : 2349-7122

Sunday, 11 January 2015

कल्पना रामानी के नवगीत

         कल्पना रामानी

धूप सखी 

धूप सखी, सुन विनती मेरी,
कुछ दिन जाकर शहर बिताना।
पुत्र गया धन वहाँ कमाने,
जाकर उसका तन सहलाना।

वहाँ शीत पड़ती है भारी।
कोहरा करता चौकीदारी।
तुम सूरज की परम प्रिया हो,
रख लेगा वो बात तुम्हारी।

दबे पाँव चुपचाप पहुँचकर,
उसे प्रेम से गले लगाना।

रात, नींद जब आती होगी
साँकल शीत बजाती होगी
छिपे हुए दर दीवारों पर,
बर्फ हर्फ लिख जाती होगी।

सुबह-सुबह तुम ज़रा झाँककर,
पुनः गाँव की याद दिलाना।

मैं दिन गिन-गिन जिया करूँगी।
इंतज़ार भी किया करूँगी।
अगर शीत ने मुझे सताया,
फटी रजाई सिया करूँगी।

लेकिन यदि हो कष्ट उसे तो,
सखी! साथ में लेती आना।  
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गुलमोहर की छाँव

गुलमोहर की छाँव, गाँव में
काट रही है दिन एकाकी।

ढूँढ रही है उन अपनों को,
शहर गए जो उसे भुलाकर।
उजियारों को पीठ दिखाई,
अँधियारों में साँस बसाकर।

जड़ पिंजड़ों से प्रीत जोड़ ली,
खोकर रसमय जीवन-झाँकी।

फल वृक्षों को छोड़ उन्होंने,
गमलों में बोन्साई सींचे।
अमराई आँगन कर सूने,
इमारतों में पर्दे खींचे।

भाग दौड़ आपाधापी में,
बिसरा दीं बातें पुरवा की। 

बंद बड़ों की हुई चटाई,
खुली हुई है केवल खिड़की।
किसको वे आवाज़ लगाएँ,
किसे सुनाएँ मीठी झिड़की।

खबरें कौन सुनाए उनको,
खेल-खेल में अब दुनिया की।

फिर से उनको याद दिलाने,
छाया ने भेजी है पाती।
गुलमोहर की शाख-शाख को
उनकी याद बहुत है आती। 

कल्प-वृक्ष है यहीं उसे, पहचानें

और न कहना बाकी।

अपनों का साथ और सरकार के संबल से संवरते वरिष्ठ नागरिक

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