ISSN

ISSN : 2349-7122

Sunday, 24 August 2014

नरेश शांडिल्य के दोहे

नरेश शांडिल्य

दोहे

एक कहो कैसे हुई, मेरी-उसकी बात।
मैंने सब अर्जित किया, उसे मिली खैरात।।

भीख न दी मैंने उसे, लौट गया वो दीन।
उससे भी बढ़कर हुई, खुद मेरी तौहीन।।

उनकी आँखों में पढ़ी, विस्थापन की पीर।
उपन्यास से कम न था, उन आंखों का नीर।।

ख्वाब न हों तो जिन्दगी, चलती-फिरती लाश।
पंख लगाकर ये हमें, देते हैं आकाश।।

महलों पर बारिश हुई, चहके सुर-लय-साज।
छप्पर मगर गरीब का, झेले रह-रह गाज।।

कहना है तो कह मगर, कला कहन की जान।
एक महाभारत रचे, फिसली हुई जुबान।।

कबिरा की किस्मत भली, कविता की तकदीर।
कबिरा कवितामय हुआ, कविता हुई कबीर।।

मुट्ठी में दुनिया मगर, ढूँढ रहा मैं नींद।
खोई जिसकी बींदणी, मैं हूँ ऐसा बींद।।

सिंह गया तब गढ़ मिला’, हा ये कैसी जीत।
तुम्हीं कहो इस जीत का, कैसे गाऊँ गीत।।

इस दुनिया से आपकी, नहीं पड़ेगी पूर।
चलो चलें शांडिल्य जी, इस दुनिया से दूर।।

अपनों का साथ और सरकार के संबल से संवरते वरिष्ठ नागरिक

  विवेक रंजन श्रीवास्तव -विभूति फीचर्स             एक अक्टूबर को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाती है। यह परंपरा सन् 1...