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ISSN : 2349-7122

Monday, 6 January 2014

मनोज शुक्ल का गीत


यूँ न शरमा के नज़रें झुकाओ प्रिये,
मन मेरा बाबला है मचल जायेगा.
तुम अगर यूँ ही फेरे रहोगी नज़र,
वक़्त है वेवफा सच निकल जायेगा.

अब रुको थरथराने लगी जिंदगी,
है दिवस थक गया शाम ढलने लगी.
खड़खड़ाने लगे पात पीपल के हैं,
ठंढी- ठंढी हवा जोर चलने लगी.
बदलियाँ घिर गयीं हैं धुँधलका भी है,
घन सघन आज निश्चित बरस जायेगा.
तुम चले गर गए तन्हाँ हो जाउंगा,
मन मिलन को तुम्हारे तरस जायेगा.
तुम अगर पास मेरे रुकी रह गयीं,
आज की रात ये दीप जल जायेगा.
यूँ न शरमा.....................


मौन हैं सिलवटें चादरों की बहुत,
रोकती-टोकती हैं दिवारें तुम्हें.
झूमरे ताकतीं सोचतीं देहरियां,
कैसे लें थाम कैसे पुकारें तुम्हें.
रातरानी बहुत चाहती है तुम्हें,
बेला मादक भी है रोकना चाहता,
चंपा भी चाहता है तुम्हारी छुअन,
बूढ़ा कचनार भी टोकना चाहता.
गर्म श्वांसों का जो आसरा ना मिला,
तो "मनुज " वर्फ सा आज गल जाएगा.
यूँ न ...............


रुक ही जाओ अधर भी प्रकम्पित से हैं,
ये नयन बेबसी से तुम्हें ताकते.
वासना प्यार में आज घुलने लगी,
ताप मेरे लहू का हैं क्षण नापते.
मन है बेचैन तन भी है बेसुध बहुत,
बुद्धि भी अब समर्पण को आतुर हुई.
बेसुरी सी धमक जिंदगी की  मेरी,
आ गयी अपनी लय में प्रिये सुर हुई.
बाँध लो गेसुओं से मेरी जिंदगी,
मृत्यु का देव प्राणो को छल जायेगा.
यूँ   शरमा…………………


- मनोज शुक्ल "मनुज"

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