Tuesday, 4 November 2025

अपनों का साथ और सरकार के संबल से संवरते वरिष्ठ नागरिक

 विवेक रंजन श्रीवास्तव -विभूति फीचर्स


            एक अक्टूबर को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाती है। यह परंपरा सन् 1990 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रारंभ की थी। दुनिया के हर समाज में बुजुर्गों ने परिवार, संस्कृति और राष्ट्र निर्माण में अपना जीवन लगाया है, इसलिए उनके सम्मान और समस्याओं पर चिंतन करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है।
              बुजुर्ग वे दीपक हैं जो स्वयं जलकर परिवार और समाज को रोशनी देते हैं। हम सब जिस आराम और सुविधा का अनुभव करते हैं, उसके पीछे किसी न किसी बुजुर्ग की मेहनत, त्याग और दूरदृष्टि जुड़ी है। बुजुर्गों ने वह लांचिंग पैड तैयार किया है, जिस पर परिवार का रॉकेट लांच किया जाता है।  
           जीवन के  उत्तरार्ध में उनके सामने कई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। पहली चुनौती स्वास्थ्य की होती है। उम्र बढ़ने के साथ डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, हड्डियों का दर्द, आंख और कान की कमजोरी जैसी बीमारियां हो जाती हैं। डॉक्टरों के चक्कर, दवाइयों का बोझ और अस्पतालों की दूरी उन्हें शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रुप से थका देती है।
       दूसरी बड़ी समस्या अकेलेपन की है। आजकल के परिवार छोटे होते जा रहे हैं, बच्चे नौकरी और पढ़ाई के सिलसिले में दूर चले जाते हैं, और बुजुर्ग अपने ही घर में चुपचाप अकेले बैठ जाते हैं। यह अकेलापन कभी-कभी किसी भी बीमारी से ज्यादा भारी पड़ता है।
          तीसरी समस्या आर्थिक असुरक्षा है। जिनके पास पेंशन या बचत नहीं है, वे अपने रोजमर्रा के खर्च पूरे करने में भी परेशान हो जाते हैं। कभी-कभी संपत्ति विवाद और घर के भीतर उपेक्षा उनकी पीड़ा को और गहरा बना देती है।
                लेकिन समाधान भी हमारे पास हैं। हमें यह समझना होगा कि बुजुर्गों की बेहतरी हेतु सरकार और समाज, दोनों को अपनी भूमिका निभानी होगी। परिवार के युवा यदि रोज़ दस मिनट भी अपने दादा-दादी या नाना-नानी से हंसी-ठिठोली कर लें, तो यह उनके लिए किसी दवा से कम नहीं होगा। मोहल्ले और समाज में वरिष्ठ नागरिक क्लब, टहलने वाले समूह, भजन मंडल, पुस्तक चर्चा जैसी गतिविधियां उन्हें सामाजिक संबल और उत्साह देती हैं।
हमारी सरकार भी वरिष्ठ नागरिकों के लिए कई योजनाएं चला रही है। रेल और बस यात्रा में रियायत, आयकर में छूट, पेंशन योजनाएं, आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य सुरक्षा, 1800-180-1253 , हेल्पलाइन नंबर और वृद्धाश्रम जैसी सुविधाएं उपलब्ध हैं।
          मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव भी बुजुर्गों के प्रति काफी संवेदनशील हैं। पिछले वर्ष की दीपावली उन्होंने आनंदधाम के बुजुर्गों के साथ मनायी थी। सरकार द्वारा चलाए जा रहे वृद्धाश्रमों में रह रहे बुजुर्गों के लिए उन्होंने शासकीय अस्पतालों में प्राथमिकता के आधार पर पलंग उपलब्ध कराने के निर्देश दिए हैं। सत्तर वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों के आयुष्मान कार्ड बन जाने से अब वे भी शासकीय एवं निजी अस्पतालों में अपना उपचार करा पा रहे हैं।
                  समस्या यह है कि हर बुजुर्ग तक इन योजनाओं की जानकारी नहीं पहुंच पाती। इस दिशा में मध्यप्रदेश की सरकार तो प्रयास कर ही रही है, साथ ही यदि स्वयंसेवी संगठन और युवा मिलकर जागरूकता फैलाएं तो स्थिति बदल सकती है।
          विज्ञापन जगत भी बुजुर्गों की छवि को रोचक ढंग से प्रस्तुत कर रहा है। अनेक प्रॉडक्ट अपने प्रचार में बुजुर्ग दंपतियों की मुस्कुराती तस्वीरें दिखाते हैं। संदेश साफ है कि जीवन का असली स्वाद अनुभव और अपनत्व से आता है। चाय की प्याली में जब अनुभव का रस घुलता है, तो उम्र कोई मायने नहीं रखती। यह केवल मार्केटिंग नहीं है, यह एक संदेश है कि बुजुर्ग हमारे जीवन की ऊर्जा और प्रेरणा के स्रोत हैं।
               वरिष्ठ नागरिक दिवस हमें यह याद दिलाता है कि आज हम जो अपने बुजुर्गों के साथ करेंगे, कल वही व्यवहार हमें भी मिलेगा। यह केवल बुजुर्गों का सम्मान करने का दिन नहीं, बल्कि अपने भविष्य को बेहतर बनाने का भी अवसर है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि बुजुर्ग  बोझ नहीं, बल्कि घर और समाज की कीमती पूंजी हैं।
      सबको संकल्प लेना चाहिए कि हर बुजुर्ग का सम्मान करेंगे, उनकी समस्याएं सुनेंगे, उनके अनुभवों का लाभ लेंगे और सबसे बढ़कर उनकी मुस्कान को बनाए रखेंगे। उनके आशीर्वाद से ही हमारा जीवन सार्थक है। *(विभूति फीचर्स)*

Thursday, 30 October 2025

युग को प्रतिमान बनाती आलोचना

 

जब एक कवि आलोचक की भूमिका में होता है तब सबसे बड़ा खतरा आलोचना की भाषा का होता है। कवि स्वभावतः अनुभवशील संवेदनशील सृजक होता है तो आलोचक तर्कशील विवेचक होता है। दोनों स्थितियाँ बहुत समय तक साथ यात्रा नहीं करती हैं या तो आलोचना बचती है या कविता बचती है। दूसरी बात यह है कि यदि कवि की प्राथमिकता कविता है तो आलोचना कविता से बगैर प्रभावित हुए नहीं रह सकती है। ऐसी प्रभाविकताएँ जयशंकर प्रसाद, मुक्तिबोध, निराला, विजेन्द्र आदि में देखने को मिलती हैं। मुक्तिबोध की कविता को समझे बगैर उनकी आलोचना नहीं हो सकती है और विजेन्द्र का समग्र मूल्यांकनकर्म उनकी कविता के लिए एक तर्क का काम कर रहा है। शहंशाह आलम प्राथमिक रूप से कवि हैं। स्वाभाविक है वह आलोचना में भी कविता से पृथक नहीं रह सकते हैं। कवि की आलोचना प्रक्रिया कविता रचना प्रक्रिया की तरह व्यापक रचाव और कसाव की निर्मिति हो जाती है। यही कसाव और रचाव शहंशाह आलम की इस आलोचकीय कृति ‘कवि का आलोचक’ में देखने को मिल रहा है। कसाव और रचाव एक कृति को काव्यात्मक तो बना सकता है मगर बौद्धिक नहीं बनाता मगर शहंशाह आलम को एक आलोचक के रूप मैंने जितना पढ़ा जितना जाना उतना ही बौद्धिक पाया जितना कि जरूरी तर्कों के अन्वेषण के लिए अनिवार्य होता है। शंहशाह आलम पटना में रहते हुए भी पटना की स्थानीय राजनीति से निरपेक्ष व अकादमी और पीठों, प्रकाशकों के खेमे से अलग-थलग हैं। शहर में रहते हुए निरन्तर रचनारत हैं और बड़ी बात यह है कि वह सुविधाभोगी और चमकदार सुगढ़ कवि के रूप में नहीं जाने जाते हैं। उनकी इस आलोचकीय कृति की भाषा आम पाठक की भदेश भाषा है, अस्पष्टता और सुगढ़ता दोनों छू तक नहीं गयी है। चूँकि कार्यकर्ता शाश्वत मूल्यों और अभिजात्य भाषा दोनों को अस्वीकार करता है इसलिए इनका काव्य भी लय, तान व सौन्दर्यशास्त्र की भंगिमाओं से विरत होकर बोलचाल की बतकही से विनिर्मित है। मैंने देखा है कि उनका कवि जीवन में होने वाली छोटी-छोटी पराजयों, विजयों और भागीदारी में हो रहे विस्थापनों के दंश एवं आम आदमी की आहों से बना है इसलिए इनकी कविता में कलात्मक शुचिता की बजाय 'तर्कपूर्ण गुस्सा' अधिक है। यह गुस्सा विस्थापित समुदाय का गुस्सा है। शहंशाह आलम की आलोचना को भी इस तर्कपूर्ण गुस्से से अलग करके नहीं देखा जा सकता है। इस किताब में सम्मिलित अध्याय कविता का नया रहस्य, कविता में भाषा की खोज, जिन्दगी के जरूरी पलों को बचाए रखने की जिद आदि अध्याय सैद्धांतिक आलोचना के हैं। इस सैद्धांतिकी को केवल कविता की सैद्धांतिकी समझना बड़ी भूल होगी, यह आलोचना की जनवादी और मानववतावादी सैद्धांतिकी है। कवि जिस तरह कविता को जीवन की आलोचना समझता है, वह आलोचना को भी जीवन की रचना समझता है। आलोचना भी एक रचना है देरीदाँ के इस कथन को सही ठहराती हुई यह पुस्तक इस कथन के लिए बेहतरीन तर्क है। सैद्धांतिकी पढ़कर कहा जा सकता है कि कवि समय से प्रभावित है और आलोचक रचना से प्रभावित है। जब रचना समय के साथ है तो आलोचना कैसे समय से पृथक हो सकती है। यही कारण है कि आधुनिक हिन्दुस्तानी समाज के समस्त मुद्दे कवि की आलोचना में भी झलक उठे हैं।

  आज का समय बड़ा अजीब है। स्थाई विजन और मूल्य रचना व आलोचना के लिए बेमानी बनते जा रहे हैं। भाषा और जीवन दोनों विस्थापन से जूझ रहे हैं। विस्थापन के इन कारणों में आवारा पूँजी द्वारा लोकतन्त्र में किए जा रहे बदलावों की अहम भूमिका है। आलोचक बड़ी सजगता से इस बदलाव को देख रहा है और इसके बरक्स लोकतन्त्र का जनवादी परीक्षण कर रहा है। इस परीक्षण में वो काव्य परिपाटी की तमाम चौहद्दियों को तोड़ रहा है। भाषा उत्तर आधुनिक समझ के अनुकूल मगर भदेश मानकों के प्रतिकूल बैठेगी। इसे भाषा का विकास कहिए या आलोचना के नये तेवरों का भाषाई आगाज़ कहिए, दोनों एक ही बात है। शहंशाह आलम की भाषा समस्त तर्कों व आग्रहों को समाहित करती हुई वर्तमान के पिष्टपेषण के बजाय निष्कर्षों की खोज को अधिक तरजीह देती है। निष्कर्षों की खोज उनकी आलोचना को तात्कालिकता से हटाकर यथाथर्वादी सार्वभौमिकता में तब्दील कर देती है। वह युवा हैं, वर्तमान और भविष्य के कवि हैं, उनके मुद्दे तात्कालिक हैं और मुद्दों के प्रति नजरिया भी तात्कालिक है इसलिए उनकी स्थापनाएँ ताजी लगती हैं और युग के तस्कर मूल्यों की बेरहमी से चीड़-फाड़ करती है। कविता स्थाई विजन तय करती है तो आलोचना इस विजन की भूमिका लिखती है। कवि अपनी आलोचना में बिम्बों को बड़ा महत्व दे रहा है। तर्क के रूप में प्रयुक्त अधिकांश उदाहरण बिम्ब के रूप में है। लोकधर्मी काव्य में बिम्बधर्मिता और प्रतीकबद्धता का सम्मोहन दिखाई देना आम बात है। यह अवस्थिति शैली नहीं है महज अनुगूँज है। बिम्बों में गहराई इतनी होती है कि थाह लेना आसान नहीं होता है लेकिन जीवन अनुभव की तिक्तता बाहर की दुनिया का प्रतिबिम्ब दिखाते हुए भी कवि की आन्तरिक दुनिया का आभास करा देने में सक्षम होते हैं। बिम्ब मोह के बावजूद भी शहंशाह आलम लोकधर्मिता के उस खाँचे में पूरे तौर पर फिट नहीं बैठते हैं जिसे फैशनेबुल लोकधर्मियों ने गढ़ा है क्योंकि समय को पीछे से नहीं देखते या तो समय के साथ चलते हैं या समय के आगे बढ़कर प्रतिबिम्ब खींचते हैं। प्रतिबिम्बन में कुछ भी आयातित या अचानक नहीं है, वही है जो नग्न है, उघरा है। आलोचना को अनावश्यक नैतिकता के भार से मुक्त करने का छोटा सा मगर कारगर प्रयास है और विद्रूपताओं की खतरनाक आँधी में धूसरित हो रही आदमियत को बचाकर, धोकर, माँजकर सम्भावित परिवेश में ले जाने का क्रान्तिकारी हस्तक्षेप है।

कोई भी विधा हो परम्परागत फार्मेट में होना जरूरी नहीं है। परम्परागत होना कवित्व और आलोचक दोनों को एक साथ नहीं व्यक्त कर सकता इसलिए शहंशाह की यह पुस्तक विधागत दायरे का, विधियों का अतिलंघन करती है। यही अतिलंघन इनकी आलोचना को कवित्व की गरिमा देते हुए सामयिक और ज्वलन्त बनाता है, युगबोध का अभिलेख बना देता है। कवि के रूप में शहंशाह आलम अच्छे कवियों में शुमार किए जाने योग्य हैं। इनके आलोचक व्यक्तित्व ने कविता पक्ष को दबाया नहीं। एक बड़ा कवि जब आलोचना लिखता है तो अमूमन कहा जाता है कि यह उसका नया प्रयोग है। कवि के पास बिम्ब होते हैं, अपने मन्तव्यों को बिम्ब के माध्यम से व्यंजित करने की शैली होती है, एक बना-बनाया सोचा हुआ फार्मेट होता है और कुछ चरित्र होते हैं जिसके सहारे वो अपने आपकी अभिव्यक्ति कर देता है। मगर आलोचना में अपनी बौद्धिक अभिव्यक्ति व इतिहासबोध, विचारधारा की पुष्टि हेतु इन उपागमों का विश्लेषण जरूरी होता है। शहंशाह आलम की इस आलोचकीय कृति की बड़ी विशेषता है कि वह उन कविता फार्मेट की आलोचना व उनका विश्लेषण अधिक करते हैं जिनके वह खुद सफल प्रयोगकर्ता हैं। यह पहचान केवल कवि के आलोचक की होती है। जब कवि आलोचक की भूमिका में उतरता है तो वह उन मूल्यों पर अधिक केन्द्रित होता है जिन मूल्यों का बाहुल्य उसकी निजी रचना प्रक्रिया में होता है। मैंने देखा कि लोकधर्मी कवि चरित्रों व कविता में उपस्थित मानवीय तत्वों को आलोच्य विषय अधिक बनाता है। कवि भले ही कविता में अपने आस-पास के देखे-भाले लोगों में से ही चरित्र गढ़ता हो लेकिन आलोचना में वह किसी चरित्र का गढ़न नहीं कर सकता है। यह विधागत बाध्यता है और सीमा भी है लेकिन वह अनुभवगत सम्वेदनाओं से उत्पन्न चरित्रों की संकल्पना जरूर प्रस्तुत करता है। शहंशाह आलम की कविता समझ इस तरफ सक्रियता के साथ संकेत करती है। यह आलोचना भी कल्पना आश्रयी प्रतिभा की पैदाईश नहीं है, वह यथार्थ की कचोटती विसंगतियों से पैदा हुई है। शहंशाह आलम अन्य आलोचकों की तरह घुमा-फिराकर गोल-मटोल बात नहीं करते हैं बल्कि अपने वैचारिक सरोकारों के कारण सीधे और सटीक निर्णय देते हैं, तमाम तरह के जरूरी उपागमों में भी आमूलचूल परिवर्तन करते हैं। जिस तरह वह कविता उपागम और आलोचना उपागम मिलाकर आलोचना में रचनात्मक तोड़-फोड़ करते हैं उसी तरह वह यही तोड़-फोड़ उनकी संवेदना और भाषा में करते हैं। उनकी भाषा आलोचकीय ट्रिमनोलाजी की भाषा नहीं है, वह संवेदनशील पाठक की भाषा है और शिल्प भी आधुनिक आलोचकीय नहीं है पर नया है क्योंकि यहाँ कवि और पाठक दोनों आपस में मिल गये हैं इसलिए भिन्न आस्वाद की आलोचना इस कवि के आलोचक में देखने को मिली है। यहाँ समय की टकराहटों की प्रतिध्वनि और उससे आक्रान्त कवि की भावुकता के पदचाप बड़ी सहजता से सुने जा सकते हैं। विशेषकर उन आलेखों में जो सैद्धांतिक आलोचना के हैं।

 शहंशाह आलम की इस समीक्ष्य पुस्तक का गज़ल खण्ड देखकर मैं चकित हूँ। उन्होंने ग़जल समीक्षा को एक नयी भाषा दी है, नया मुहावरा दिया है। गज़ल की संकलित समीक्षाओं में युग का सच उघढ़ गया है। यह दौर भारतीय जनजीवन में उथल-पुथल का दौर है। दमन, महंगाई, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, जातीय संघर्षों ने ऐसी अराजकता पैदा की कि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग इन सबसे विक्षुब्ध हो गया। उसके ह्दय में असंतोष पनपने लगा संवेदनशील होने के कारण वह बेचैन और चिन्तित रहा। इधर के वर्षों में जिस तरह कारपोरेट पूँजी और सार्वजनिक पूँजी में आन्तरिक गठबन्धन स्थापित हुए, शोषण की विश्वव्यापी नीति तय की गयी, निवेश, विनिवेश को बढ़ावा मिला, जनता के हिस्से का धन भी कारपोरेट को सौंपा जाने लगा, प्रतिरोध को देशद्रोह की संज्ञा दी गयी, जमीन, जंगल, नदी सब कुछ छीना जाने लगा, ऐसे में कोई भी सचेतन बुद्धिजीवी चुप कैसे रह सकता है? इस दौर का कवि सत्ता व्यवस्था की अन्दरूनी विसंगतियों से परिचित रहा है। उसने इस भीषण लूट के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन सत्ताओं ने इस संघर्ष को अलग दिशा देकर मिथकों के आधार पर साम्प्रदायिकता की नई इबारत लिखी। समूचा देश इस आग में अब तक झुलस रहा है। इंसान से अधिक मिथक महत्वपूर्ण हो गये हैं। आचरण से अधिक दुराचरण व सहिष्णुता की जगह असहिष्णुता को बढ़ावा दिया गया। आधुनिक गज़लकार समय से निरपेक्ष रहकर नहीं लिखते हैं, वह व्याप्त खतरों को भली प्रकार समझते हैं। बढ़ते पूँजीवादी और वैश्विक खतरों के मद्देनजर उन्हें मनुष्य के आस्तित्व की चिन्ता व्यापती रही है। इसी चिन्ता का रचनात्मक व प्रतिरोधी प्रतिफलन आधुनिक हिन्दी गज़ल है जो किसी भी समकालीन कविता से अधिक समकालीन व प्रतिरोधी अभिव्यक्ति है। इस चेतना को शहंशाह आलम ने पहचाना है। यह उनकी बड़ी देन है। गज़ल भले ही अपने व्याकरण से हट रही है, इश्कमिजाजी से बाहर निकल चुकी हो मगर आलोचना आज वहीं की वहीं बैठी है। शहंशाह आलम ने इस जड़ता को तोड़ा है, एक नयी पद्धति की प्रस्तावना की है। वह समकालीन काव्य मूल्यों को गजल पर आरोपित करते हुए उसकी सार्थकता व निरर्थकता का प्रतिपादन करते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा की गज़ल पर अपनी बात रखते हुए वह कहते हैं कि "इस दुनिया के लोगों की बेहतरी के लिए यह जरूरी है कि रचनाकार रात के अन्धेरों को छोड़कर दिन के उजाले को पकड़े और अब अन्धेरे का सारा कारोबार दिन के उजाले में पूरी इमानदारी से किया जा रहा है।" इसका आशय है कि वह गज़लकारों से भी उसी प्रतिरोध की माँग रखते हैं जो आज की कविता और उपन्यासों में है। यह एक नयी समीक्षा की प्रस्तावना है। सम्भव है इश्कमिजाजी और कोमल रोमैन्टिक भाववादी इस पद्धति को स्वीकार न करें पर यह आधुनिकता की पीठिका तो है ही। मनुष्य के अस्तित्व व समय को केन्द्र में रखकर ही गजल के प्रतिमान तय करना सिद्ध करता है कि इस कवि के आलोचक में मनुष्य चिन्ता है, मनुष्य इसका समाधान है, मनुष्य इसका विषय है और वही रचनाओं का प्रतिपाद्य है। मनुष्य से जुड़ा व मनुष्यता के लिए जरूरी ऐसा कोई विषय नहीं है जो इस कविता से बाहर हो, मनुष्यता के लिए जितने भी खतरे इस भीषण और दुर्दान्त समय में सत्ता द्वारा उत्पन्न किये गये, कवि ने सभी पर कलम चलाया है। शहंशाह अपनी कविता और आलोचना को मनुष्य से पृथक नहीं मानते हैं, वह विहंगम मानते हैं और इस बड़प्पन को मनुष्य से जोड़ते हैं। यह जनवादिता गज़ल के लिए नयी देन है। शहंशाह आलम की आलोचना समुदायवादी सर्वनिष्ठ सर्वसमावेशी आलोचना का प्रतिरूप है। वह सैद्धांतिक प्रतिमानों का अत्यल्प प्रयोग करते हुए रचना के समाजशास्त्र पर अधिक बल देते हैं। वह सैद्धांतिक सौन्दर्य की अपेक्षा प्रभावक रचनासौन्दर्य पर अपनी दृष्टि केन्द्रित रखते हैं। कविता की समुदायवादी आलोचना में समाज और समाज को बेहतर बनाने के मूल्य सम्मिलित होते हैं। इस आलोचना का उभार दो तीन दशक पहले हुआ था। इसका उदय उस अत्यधिक व्यक्तिवाद, व्यक्तिगत अधिकारों पर अत्यधिक जोर दिए जाने की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ, जिसने अंतत: उन्हें अंहकारी बना दिया था। इस प्रकार समुदायवाद का केंद्रीय तत्व समुदाय के मूल्य पर उचित बल प्रदान करना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् अधिकांश राजनैतिक दार्शनिकों के लेखन से समुदाय की संकल्पना अपना महत्व खो चुकी थी। इसकी चर्चा स्वतन्त्रता और समानता के व्युन्त्पादक के रूप में की जाती थी। तथापि पूर्व में लगभग सभी महत्वरपूर्ण विचारधाराओं-समाजवाद, संरक्षणवाद, उदारवाद में स्वततंत्रता, समानता और समुदाय के राष्ट्रवादी आदर्शों के विषय में चर्चा की गई थी। इस प्रक्रिया में समुदाय की संकल्पना में विभिन्न रूप लिए। वर्ग की एकात्मिकता, साझा नागरिकता, सांस्कृतिक अस्मिता तथा समान नैतिक अवधारणा के परिदृश्य के कोण में इस संकल्पना को समुदायवाद नाम से प्रचारित किया गया है। यह साझा संस्कृति और सामूहिकतावादी आलोचना है। मैंने देखा कि आलम की इस किताब में ‘सामूहिकता’ का प्रतिपादन बड़े सतर्क ढंग से किया गया है। वह ऐसे किसी भी तत्व को आलोचना में नहीं आने देते हैं जो किसी धर्म या समुदाय जाति के लिए टाइप्ड हो गया है, न ही वह किसी जातीय और सांस्कृतिक मूल्य से आबद्ध दिखते हैं। उनके केन्द्र में मनुष्य और मनुष्य को ही अन्त तक आलोच्य विवेचन का विषय रखते हैं। यही कारण है कि वह कवि की निजी ईमानदारी और निजी अनुभूति के स्थान पर उसकी समय और समाज के प्रति ईमानदारी को अधिक महत्व देते हैं। उनकी मान्यता है कि इसके लिए जरूरी है कि रचनाकार अपनी निजी सीमाओं से बाहर निकलकर जीवन-संग्राम में शामिल रहे। विशेषकर राजकिशोर राजन, अरविन्द श्रीवास्तव, अशोक, मिजाज़ अहमद नेसार, संजय शान्डिल्य की आलोचना में वह समय और समाज के प्रति अपने दायित्व को वैचारिक अभिव्यक्ति तक सीमित न मानकर उसे रचनात्मक ईमानदारी से जोड़ते हैं। एक ऐसी ईमानदारी जो अभिव्यक्ति भर न हो एक विजन भी हो। ऐसी ईमानदारी का क्या मूल्य जो समाज को कहीं ले नहीं जाती है। अपनी निराशा, कुंठा, उदासी को ईमानदारी से व्यक्त करने मात्र का समाज की दृष्टि से कोई महत्व नहीं। कुछ आलोचकों ने अनुभूति की प्रमाणिकता और ईमानदारी के नाम पर कविता को कवि के निजी मामले तक सीमित कर दिया। फलस्वरूप अनेक बार अवैज्ञानिक स्थापनाओं को भी महत्व मिला इसलिए शहंशाह एकदम नयी स्थापना देते हैं कि लेखकीय ईमानदारी वही है जो समाज को बदलने की प्रेरणा दे सके, उसे नकारात्मक भावों प्रतिभावों से विरत कर व्यापक सरोकारों का हेतु बना सके। शहंशाह आलम का आलोचकीय सौन्दर्यबोध लोकधर्मी है। वह उन कविताओं पर अधिक ठहराव लेते हैं जो लोक की श्रम अस्मिता से जुड़ी है, जो व्यापक मानव हित की वर्गीय अभिव्यक्ति करती है। उनके सौंदर्य की कसौटी में उन लोगों का जीवन है जो श्रम से जुड़े हैं क्योंकि उनके लिये जो कुछ सौंदर्यपूर्ण है वह मनुष्य के श्रम की देन है। वास्तव में यह सच भी है कि प्रकृति के सौंदर्य के समानान्तर इस पृथ्वी पर मनुष्य ने जो कुछ सौंदर्यपूर्ण सर्जन किया है उसमें मनुष्य के श्रम की मुख्य भूमिका है, एक जनसम्बद्ध लोकधर्मी साहित्यकार ही ऐसा कह सकता है। यह उनकी ताकत भी है। उनका उद्देश्य अपनी आलोचना द्वारा कला और श्रम के बीच पैदा किये गये अलगाव को दूर कर सौंदर्यबोध को उसकी मानवीयता में स्थापित करना है जिसमें वह सफल भी रहे हैं। वह श्रम और पूँजी के संबंध की सच्चाई को खोलने का काम अपनी आलोचना में करते हैं। कुमार मुकुल, इब्राहिम अश्क, सुषमा सिन्हा की पुस्तक समीक्षाओं में यह आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है।

शहंशाह आलम की इस किताब पर यह टिप्पणी किसी नये लेखक की किताब पर किसी वरिष्ठ आलोचक की टिप्पणी नहीं है। यह उनकी उम्र से बहुत कम एक सामान्य पाठक की मात्र पाठकीय टिप्पणी है। मैं महज पद्धति पर केन्द्रित रहा क्योंकि ये समस्त आलेख किसी रणनीति के तहत नहीं लिखे गये, सब अलग-अलग समय के आलेख हैं। लगभग सब पुस्तक समीक्षा के रूप में हैं। अस्तु किसी सैद्धांतिक समीक्षा के बजाय महज पद्धति और विजन पर ही बात की जा सकती थी। मैंने वही बात करने की कोशिश की है। मुझे विश्वास है यदि यह पद्धति आगे भी सक्रिय रही तो शहंशाह आलम के अगामी कविता संग्रह का नाम होगा आलोचक की कविताएँ क्योंकि इस आलोचकीय पद्धति से लेखक प्रभावित न हो मैं इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता हूँ।

                                    उमाशंकर सिंह परमार

                                       बबेरू, बाँदा

                                     9888610776

 

Wednesday, 29 October 2025

Theme of the Novel- Afzal

 

The introductory part-Out of the Ashes deals with the history of the town of Azampur situated in North Uttar Pradesh and the participation of its people in the freedom struggle. The whole story comes through the narrative of Kazi Sahab-the last courtier of Azam Khan after whom the town was named. After independence the young generation is swept away by the rapid changes and the old order almost crumbles. The youth are irresistibly attracted towards unwonted activities. The town is now dubbed as the very hub of terror.

    The next part-The Escapades is an account of Afzal’s odyssey in post independent India where he encounters many shoddy and embarrassing things related to the high-ups and the revered- judges, professors, saints et al.  Disillusioned and tired he returns home to be picked up by the police that are out to hunt for some (muslim) suspect and project as the mastermind behind the infamous Jaipur Tripple Blast case.

    The concluding part- Hamam… narrates how Afzal is dragged into politics as a ploy and then becomes a law-maker. He learns many things from his mentor, which help him emerge as a heavy weight in political circles. His world changes overnight and his dramatic rise to power leaves senior party men fuming helplessly. He is now at the helm of affairs. Many myths like Mr. Clean are woven around his person. Even the academia heap honors upon him. The town of Azampur glows with pride. In the end his murmurs in a trance-hang me…hang me are revealing, amusing and even horrific!

Moreover, the novel reveals the mentality of the Hindus as a society towards the muslims in general and exploded several myths prevailing in the present secular society. Afzal-the protagonist proves himself to be the guru of all that had taken him so lightly.

Hang me…hang me… hang me…” is the last agonizing cry of Afzal, the chief protagonist of this brutally HONEST novel- a sarcastically revealing attack on politics, religion, business houses, even temples of justice.

At times, it sounds caustic and outrageous. It was meant to be so. All said it is not just pudding.

Tuesday, 28 October 2025

आह्लाद की आशाओं के अर्जमंद कवि बृजेश नीरज

 

-    प्रद्युम्न कुमार सिंह

कुछ फूट रहा था

लावा सा

समा रहा था

धरती की कोख पर

फूट रही थीं कोपलें

पेड़ों की डाल पर।

जिस प्रकार मानवीय अस्तित्व का केन्द्र उसका हृदय होता है उसी प्रकार समग्र सृष्टि का हृदय संवेदनाएँ होती हैं। ज़िन्दगी में कई ऐसे मोड़ आते हैं जब व्यक्ति को कई वस्तुओं में से किसी एक का चयन करना होता है तब चयन बड़ा ही मुश्किल होता है क्योंकि कभी विकल्प स्पष्ट और साफ नहीं होता है। ऐसे समय में विकल्पों के बीच से सही का चयन करना होता है। ऐसी विषम स्थिति में भी जो अपने भावों के अनुरूप चयन कर उसे तर्क की कसौटी में कसकर श्रेष्ठ साबित करता है वही सच्चा अन्वेषक होता है। बृजेश नीरज एक ऐसे ही अन्वेषक हैं जो छन्दमुक्त और छंदबद्धता के मध्य छन्दबद्धता का चयन करते हैं। जिस प्रकार कोई पुष्प अपनी प्रशंसा की कल्पना करके नहीं खिलता है ना ही वायु अपने साथ कारवां के चलने की उम्मीद से बहती है वरन उसका होना उसके अस्तित्व का प्रमाण होता है, बृजेश नीरज का कविता संग्रह ‘आँख भर आकाश’ कुछ ऐसी ही अन्वेषणा का परिणाम है।  

         आखिरकार बृजेश नीरज की शख्सियत क्या है? क्यों पढ़ा जाय उनका कविता संग्रह ‘आँख भर आकाश’? क्या हमें आँख बन्द करके किसी का समर्थन या विरोध करना चाहिए? तो इसका उत्तर मिलेगा, नहीं, हमें आँख खोलकर पूरी तसल्ली के साथ ही उस पर चर्चा करनी चाहिए। इसी संदर्भ में बृजेश के ‘आँख भर आकाश’ को जानना और समझना समीचीन होगा। कविता केवल भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति का नाम नहीं होती वरन भावों के वैशिष्ट्य की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। छन्दमुक्त रचना वैशिष्ट्यता में ही केन्द्रित होती है जबकि छन्दयुक्त रचना विशिष्टता एवम छन्दानुशासन की अनिवार्यता को महत्व प्रदान करती है। आज जब छन्दमुक्त कविता का चहुँओर बोलबाला है और छंदयुक्त रचना को दोयम दर्जे के रूप में देखा जा रहा हो, ऐसे समय में बृजेश जैसे समर्थ कवि ही छन्दयुक्त रचना रचने का साहस कर सकते हैं। वे बड़ी बेबाकी से प्रतिरोध की अलख जगाते दिखाई पड़ते हैंअग्नि में प्रतिरोध की समिधा बनेगी/ वेदना को और थोड़ा सा जगा लूँ।

          यद्यपि छन्दयुक्त रचना हमेशा से जनमानस को प्रभावित करती रही है और अपने कथ्य को बड़ी ही सहजता से समाज में आज भी पहुँचाने का कार्य कर रही है। चरणों का स्तुतिगान इसीलिए आज भी उत्सुकता के साथ सुने और सुनाये जाते हैं। आज के मंचीय परिदृश्य में सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिये द्विअर्थी फूहड़ रचनाएँ छन्दबद्ध लय के साथ प्रस्तुत करते हैं जो मनोरंजन तो खूब करती हैं और समसामयिक उपलब्धि भी हासिल कर लेती हैं किन्तु कालजयी होने की क्षमता नहीं रखती हैं। आज का समाज कपोल-कल्पित कल्पनाओं की अपेक्षा यथार्थ पर अधिक विश्वास करता है। वह कवि या सहित्यकार से अपेक्षा रखता है कि वह कविता को भडुवागीरी से अलग कर यथार्थ के धरातल पर खड़ा करे। इसके लिये उसे यदि छन्दभंगता भी स्वीकार करनी पड़े तो वह उसे भी स्वीकार करे। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई भी दृष्टिकोण जो सक्रिय ऊर्जा उत्पन्न करता हो या करने की क्षमता रख रहा हो उसे स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है क्योंकि भावनाएँ और दृष्टिकोण एक-दूसरे के कारक के रूप में कार्य करते हैं। बृजेश साहस करते हुए कबीर के सदृश्य दोनों को फटकारने का कार्य करते हैंमज़हबों में आपसी जो भेद है/ क्या खुदा का राम से विच्छेद है। 

             यदि छन्द रचना के सरोकारों में साधक ना बन सके तो बाधक भी ना हो। बृजेश की छांदस काव्य साधना सर्वजन की पीड़ा के साथ आगे बढ़ती है और उसके लिये पूरी शिद्दत के साथ खड़ी नज़र आती है। मैं यह बात किसी मोहवश नहीं कह रहा हूँ अपितु तर्क की कसौटी पर कसते हुये कह रहा हूँ कि छांदस काव्य साधना का जैसा उत्कर्ष बृजेश नीरज के काव्य संग्रह ‘आँख भर आकाश’ में देखने को मिलता है वैसा समकालीन रचनाकारों में देखने को प्राय: नहीं मिलता है। बृजेश आवश्यकता के अनुरूप आक्रोश भी व्यक्त करते हैं। वे यथार्थ के चितेरे कवि हैं, वे जनसमस्याओं से जूझने वाले कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी रचनाधर्मिता इसकी गवाही देती है- गाँव नगर में हुई मुनादी/ हाकिम आज निवाले देंगे/ चूल्हे अपनी राख झाड़ते/ बासन सारे चमक रहे हैं।

             बृजेश बड़ी ही मासूमियत के साथ चूल्हे का राख झाडना और उस पर चढ़ने वाले बासनों (बर्तनों) का चमकना व हरियाती लता और फूल का महकना जैसे साधरण एवम सहज शब्दों के माध्यम से यह बताने का प्रयास करते हैं कि एक आम आदमी के जीवन में छोटी सी खुशी भी उसे बहुत बड़ा सुकून देती है जिसके सामने वह उन सारी बड़ी तकलीफों को भी भुला देता है जिनसे वह रोज दो-चार होता है, उसी प्रकार जैसे घर में अँधेरा छाया हो और दियासलाई या आग की लौ या कोई प्रकाश का ज्योतिपुंज जलाकर उस अँधेरे से निजात पायी जा सकती है- स्याह अँधेरा हो/ धरा पर छाया/ विवश करता सोचने को/ पाने को निजात/ जरूरी है एक लौ का/ दीप बन टिमटिमाना। बृजेश का श्ब्द सामंजस्य इतना सटीक होता है कि उसमें से एक भी शब्द अलग करना कविता को उससे अलग करने की तरह है। वे सम विषम के साथ ऐसा सामन्जस्य स्थापित करते हैं कि जैसे वे हमेशा से साथ रहते आये हों। नागफनी और बीहड़ का सम्बंध, अक्षर और बीज का सम्बंध दृष्टव्य है- नागफनियों से भरे बीहड़ों में/ अक्षरों के बीज कुछ माँ बो दिये हैं।

               बृजेश का लेखन छोटे-छोटे सम्पुटों को साथ लेकर चलता है या यूँ कहें कि उन्हें ही वे महत्ता प्रदान करते हैं। उनका मानना है कि छोटे-छोटे सम्पुट ही बड़े कार्यों को अंजाम देने वाले होते हैं। व्यक्ति में यदि उत्साह हो तो वह बड़ी से बड़ी बाधा से भी टकराने से गुरेज नहीं करता, जैसे जुगनू एक बहुत ही छोटा जीव होता है किन्तु घने अंधकार से छुटकारा दिलाने का प्रयास करता रहता है और अपनी अल्प चमक से लोगों को उत्साहित करता रहता है गगन तिमिर की गागर में/ ढेरों जुगनू आन भरें। इसी प्रकार दीवार का चिटकना, छत से बूँद का टपकना, सहेजना और सीलन जैसे पुराने किन्तु संकोचवश कम प्रयुक्त होने वाले शब्दों के माध्यम से अपनी रचनाधर्मिता को गति देते हैं, यह उनका ही वैशिष्ट्य है कि वे इन सभी के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाने में सक्षम हो सके हैं चिटक गई/ दीवारें भी/ छत से/ बूँद टपकती है/ जमीं/ सहेजती थी/ मैंने/ मुझसे दूर खिसकती है/ नयनों की/ परतें सूखीं/ दिल में/ सीलन छाई।

इसी तरह बृजेश के अनुसार संवेदनहीन होते संसार में चेतन तो चेतन, अचेतन भी अपने सहज स्वभाव को त्यागने लगते हैं जो किसी बड़ी त्रासदी का संकेत भी है, जैसे शहर का पथराना, नदी का दुबकना, विकास के नाम पर गगनचुम्बी इमारतों से पर्यावरण संतुलन का बिगड़ना पथराते इस शहर किनारे/ सहमी दुबकी नदी पड़ी थी/ ऊँची दीवारों में फंसकर/ चुप चुप ठिठकी हवा खड़ी थी।

सामाजिक रिश्तों की टूटन कवि को अन्दर तक झकझोरती है और वे इस टूटन को अपने काव्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाते हैं किन्तु कहीं पर भी गेयता खण्डित नहीं होती है, वह उसी भाव प्रवणता के साथ खड़ी दिखती है जो उनके कहन के कटीलेपन के साथ परिष्कृत रूप से दिखाई पड़ती हैरिश्तों के इस बंजरपन में/ संवेदन जब हुये छिछोरे/ जैसे तैसे सपन पिरोये/ तिनका तिनका भाव बटोरे।

 एक तरफ बृजेश गज़ल जैसी गेय शैली को अपनी रचना का आधार बनाते हैं तो दूसरी ओर मात्राओं पर आधारित छन्द को बृजेश उचित प्रयोग करते नज़र आते हैं। चाहे कुण्डलिया हो या दोहा या फिर मुक्तक हो, जापानी विधा हाइकू हो या फिर सानेट हो, सभी में उन्होंने अपनी प्रतिरोधी प्रतिभा का परिचय बड़ी कुशलता के साथ दिया है। उनके ध्यान में हमेशा से सर्वहारा वर्ग रहा है जो पूँजी, सत्ता द्वारा सताया जाता रहा है और उसका मानस प्रतिरोधी संघर्ष के लिये तत्पर दिखता है- बाज़ारी व्यवहार में, मर्यादा का ह्रास/ नैतिकता सारी बनी, अपसंस्कृति का ग्रास/ अपसंस्कृति का ग्रास, क्षरण मूल्यों का दिन दिन/ संवेदन से शून्य, भाव अवमूल्यन प्रतिदिन/ सम्बंधों पर दाँव, हुये ऐसे व्यापारी/ हित साधन ही लक्ष्य, हुई नियति बाज़ारी।

जिस प्रकार कुण्डलिया में वे माहिर हैं वैसे ही दोहा छंद मानो उनकी उंगली पकड़कर चलता है- 

लहर लहर हर भाव हैं भंवर हुआ है दंभ/ विह्वल सा मन ढूँढ़ता रज कण में वैदंभ।

इस होली के रंग में डूबा सब संसार/ तुम बिन सूनी मैं हुई सूना ये घर द्वार।

जिस तन्मयता के साथ वे कुण्डलिया और दोहा लिखते हैं उसी अंदाज़ में मुक्तक भी रचते हैं। एक मुक्तक दृष्टव्य है डाल से छूटी इक लता है/ ज़िन्दगी इक अधूरी सी कथा है/ धूप इतनी सगी सी हो गई है/ छाँव भी अटपटी लगने लगी है।

बृजेश सानेट के तो मर्मज्ञ हैं। उनका सानेट अन्य किसी से भी कमतर नहीं है

एक सुनहरी आभा सी छाई थी मन पर/ मैं भी निकला चाँद सितारे टाँके तन पर/ तभी जोर की आँधी संग संग फूस उड़ा/ तब फूल, कली, पत्ता, पेड़ों से सभी झड़ा।

              निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है बृजेश के काव्य संग्रह ‘आँख भर आकाश’ में अनुभूति की तरलता, सघनता, प्रवाह और आयतन का विस्तार है। गीतों और लयात्मकता बन्धों की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनमें सिर्फ नारेबाज़ी नहीं वरन नारों को तरल अनुभूति में बदलने की प्रवृत्ति है। उनका विषय जितना वैविध्यपूर्ण है शिल्प उतना ही संतुलित और सुगठित है। उनका मनना है कि जिस बंध में नाद सौन्दर्य नहीं होता वह आधुनिक सरोकारों से जुड़ नहीं सकता। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि नाद की व्यंजक छटा ही आधुनिकता का कारण बनती है। बृजेश जितना सौन्दर्य के कुशल सर्जक हैं, सर्जना के क्षेत्र में जितने अधिक क्लासिक हैं, भाव के क्षेत्र में उतने ही आधुनिक हैं। यही कारण है कि उन्हें पढ़ना जितना सरल व सहज होता है उसे समझना उतना ही कठिन। इस ‘आँख भर आकाश’ की रचनाएँ जीवन और जीवन की विविधता से गुजरते हुये, सम्पूर्ण सृष्टि को आत्मसात किये हुये इक्कीसवीं सदी की नवीन कविताएँ हैं जो अपनी वस्तुपरकता के विरूद्ध विचार, प्रतिरोध और प्रगतिशीलता को साथ लेकर लेकर चलती हैं, जिसकी भाषा और संवेदना मिलकर समवेत हो जाते हैं। जब कवि अपनी रचनाओं में अपनी निजता थोपने के प्रयास करते दिखाई पड़ते हैं ऐसे समय में बृजेश उसे सहजता और सुबोधता प्रदान करने का प्रयास करते हुये उन सबसे अलग चलने का प्रयास करते हैं।                

Tuesday, 21 October 2025

खुरदुरे यथार्थ को बयां करतीं कहानियाँ

    हमारे समाज में कहानी का इतिहास मानव सभ्यता के इतिहास जितना ही पुराना है। प्राचीन काल से ही कहानी-किस्से मानव समाज के किसी न किसी रूप में अनिवार्य हिस्से रहे हैं। हम राजा-रानियों की कहानी से लेकर परीकथाओं, साहस-शौर्य गाथाओं, धर्म-नीति और सत्य-कथाओं, सहित कहानी के विविध रूपों के साक्षी रहे हैं। समय, देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार कहानी के स्वरूप में भी परिवर्तन हुए हैं। आज लिखी जा रही कहानियों में अपने समय का प्रतिबिंब है, वे आपको केवल मनोरंजन और शिक्षा देने के उद्देश्य से नहीं लिखी जातीं बल्कि आपके आस-पास के खुरदुरे यथार्थ, अपने समय के साथ उपजी विकृतियों, विषमताओं, विद्रूपताओं से आपका परिचय करवाती हैं, जिन्हें पढ़कर आप चिन्तन को विवश हो जाते हैं कि समाज में क्या होना चाहिए और क्या हो रहा है, इस प्रकार कहानीकार अपने उद्देश्य में सफल हो जाता है।

    सुपरिचित रचनाकार अरुण अर्णव खरे साहित्य की लगभग सभी विधाओं में सृजनरत हैं और हाल ही में उनका कहानी सँग्रह 'भास्कर राव इंजीनियर' प्रकाशित होकर पाठकों के सम्मुख आया है। उनके इस कहानी संग्रह में विविध विषयी 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। इन कहानियों से गुजरते वक्त पाठकों को लगेगा कि वह ऐसी घटनाओं, कहानियों अथवा पात्रों को कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में अपने समाज, अपने आस-पास देख चुका है। अरुण जी की यह कहानियाँ निश्चित ही उनके जीवनानुभव से उपजी हैं इसलिए पाठक को इनमें गहरे यथार्थ-बोध का अनुभव होता है। इन कहानियों में उनके पेशे इंजीनियरिंग का भी प्रभाव, यानी इंजीनियरिंग की पढ़ाई, कोचिंग, एंट्रेंस एग्जाम, दफ्तर की कार्य-प्रणाली आदि सहज रूप से कहानी का हिस्सा बनते हैं। उनकी कहानियाँ आज के समाज की तमाम चिन्ताओं को प्रकट करते हुए, पाठक की सम्वेदना को झकझोरने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं। वरिष्ठ साहित्यकार भालचंद्र जोशी ने अपनी भूमिका में लिखा भी है- "अरुण अर्णव खरे की इन कहानियों को पढ़ते हुए भाषा की संवेदन-ऊष्मा और भावनात्मक विश्वसनीयता के लिए श्रम करते एक जिम्मेदार लेखक के सामाजिक सरोकार भी स्पष्ट होते हैं।"

    संग्रह की प्रथम कहानी 'दूसरा राज महर्षि' आज के उस कटु यथार्थ से हमारा परिचय करवाती है, जिसमें माँ-बाप अपने बच्चों पर अपनी महत्वाकांक्षाओं का बोझ डाल देते हैं और जीवन में प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा, सफलता के लिए बच्चों पर भारी दबाव डालते हैं, जिसके कारण बच्चे डिप्रेशन सहित कई समस्याओं का शिकार होकर कहीं के नहीं रहते। 'भास्कर राव इंजीनियर' सँग्रह की शीर्षक कहानी है। इंजीनियरिंग की वर्षों तक परीक्षा पास न करने वाला भास्कर राव एक भला व्यक्ति दूसरों की सदैव मदद करने वाला, अपने गाँव में बिजली की चिन्ता करने वाला, जुनून का पक्का, अंततः इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर लेता है, कहानी पाठक के ह्रदय को छू जाती है। 'देवता' कहानी आदमी के दोगलेपन को उजागर करती महत्वपूर्ण कहानी है। अच्छे-खासे होनहार लड़के सूरज को साहब निरंजन उनके विभाग में बाबू की नौकरी लगवा देते हैं, उनका खुद का बेटा पढ़ने में फिसड्डी है, फिर भी उसे डोनेशन देकर इंजीनियरिंग करवाते है, पत्नी एवम बेटी के विरोध करने पर उनका यह कहना कि पढ़-लिखकर सब अफसर बन जाएँगे तो हमारे घर काम कौन करेगा। कहानी बड़ी मार्मिक बन पड़ी है। 'कौवे' कहानी हमारे समाज में फैले अन्धविश्वास को लेकर बुनी गई है, अगर किसी के सिर पर कौवा बैठ जाए तो उसकी मृत्यु की खबर रिश्तेदारों को भेजकर इसके अपशकुन से बचा जा सकता है। 'दीपदान' बच्चों के खेल-खेल में आँखों की रोशनी चले जाने पर कथा नायक अपने आपको जीवन भर अपराधी मानता है, और अंततः अपनी आँखों को दान कर स्वयं मौत को गले लगा लेता है। 'आफरीन' हिन्दू-मुस्लिम प्रेम विवाह की बेजोड़ कहानी है। किस प्रकार कट्टर ब्राह्मण मिसेज रचना त्रिवेदी को उनकी बहू अपने सौम्य व्यवहार से अंततः अपना बना लेती है। 'समरसता' आज आरक्षण की बहुत बड़ी विसंगति पर एक प्रश्न चिन्ह छोड़ती हुई कहानी है। कैसे एक ही समाज के दो परिवारों को सरकार की असंगत नीति के कारण, एक को लाभ और दूसरे को हानि झेलना पड़ती है। 'स्टेन्ट' कहानी चिकित्सा जैसे समाज सेवा के धर्म को डॉक्टरों ने पैसा कमाने का घिनौना पेशा बना लिया है, जहाँ आपके विश्वास का कैसे निर्ममतापूर्वक खून किया जा रहा है, पाठक पढ़कर तिलमिला उठता है। 'सलामी' गुमनामी में मरने वाले खिलाड़ी की कहानी है, जो अपना जीवन दूसरे की खातिर होम कर देता है। 'पुरस्कार' कहानी किस प्रकार सफलता के बाद हम अपने गुरु और मार्गदर्शक को भूल सफलता का श्रेय किसी और को देने की भूल कर बैठते हैं, को लेकर लिखी गई है। 'मकान' संग्रह की अंतिम कहानी है, जिसमें बताया गया है कैसे आज की पीढ़ी पैकेज और दौलत की चकाचौंध में अपने घर, परिवार और नाते-रिश्ते सबकुछ भुलाकर अपने ही सीमित, स्वार्थी संसार में जीना चाहते हैं।

    इस प्रकार इस संग्रह की सभी कहानियाँ पठनीय हैं, जो पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रहती हैं। कहानियों की भाषा सहज-सरल है। कृति का आवरण आकर्षक और मुद्रण साफ-सुथरा है। प्रकाशक और लेखक दोनों को इस महत्वपूर्ण कहानी संग्रह हेतु बहुत-बहुत बधाई।


भास्कर राव इंजीनियर (कहानी-संग्रह)
रचनाकार- अरुण अर्णव खरे
पृष्ठ -
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन
-----------------------------------------------------------------------
घनश्याम मैथिल ‘अमृत’

भोपाल
मो0- 9589251250

Monday, 24 February 2020

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव 

सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्यक्त करता है - कौशल किशोर 

मित्रता और आत्मीयता का बड़ा कवि - अजीत प्रियदर्शी 

मुक्तिचक्र और जनवादी लेखक मंच द्वारा प्रदत्त किये जाने वाले जनकवि केदारनाथ अग्रवाल सम्मान 2018 का दो दिवसीय आयोजन बाँदा और कालिंजर में दिनांक 22 दिसम्बर और 23 दिसम्बर को सम्पन्न हुआ। यह सम्मान वरिष्ठ कवि सुधीर सक्सेना को दिया गया था अस्तु डीसीडीएफ स्थित कवि केदारनाथ अग्रवाल सभागार में आयोजित 22 दिसम्बर के आयोजन में चर्चा के केन्द्र में सुधीर सक्सेना का बहुआयामी व्यक्तित्व व रचनाकर्म रहा। अध्यक्षता वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने की व मुख्य वक्ता वरिष्ठ कवि रेवान्त के प्रधान सम्पादक एक्टिविस्ट श्री कौशल किशोर थे। अन्य वक्ताओं में लखनऊ से आये युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी, युवा कवि बृजेश नीरज और फतेहपुर से आये युवा कवि आलोचक प्रेमनन्दन रहे। शुरुआत में संचालक उमाशंकर सिंह परमार ने सुधीर सक्सेना का परिचय देते हुए उनके साथ अपने सम्बन्धों व उनकी कविताओं पर विस्तार से अपनी बात रखी। बाँदा में केदारबाबू के शिष्य वरिष्ठ गीतकार जवाहर लाल जलज ने सभी आगन्तुकों का स्वागत करते हुए जनकवि केदारनाथ अग्रवाल सम्मान की रूपरेखा और सार्थकता सबके सामने रखी व इस सम्मान को एक आन्दोलन का प्रतिफलन कहते हुए बाँदा में केदार की विरासत को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया। लखनऊ से आए मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि कौशल किशोर ने सुधीर सक्सेना, स्वप्निल और अपनी मित्रता के संस्मरण सुनाये तथा आज के खतरों से आगाह करते हुए इन खतरों के समक्ष बौनी पड़ रही पत्रकारिता पर दुख व्यक्त किया और कहा कि हिन्दी पत्रकारिता की पक्षधरता सच्चाई रही है वह सच से कभी पीछे नहीं रही। आज रघुवीर सहाय और सुधीर सक्सेना जैसे पत्रकारों को हमें अपने आदर्श पर रखना होगा। सुधीर सक्सेना की 'समरकन्द में बाबर' और 'अयोध्या' कविता का जिक्र करते हुए उनकी राजनैतिक विचारधारा और काव्य मर्म का उदघाटन किया। जनवादी लेखक मंच के सचिव प्रद्युम्न कुमार सिंह ने सुधीर सक्सेना पर सम्मान पत्र का वाचन किया और मुक्तिचक्र सम्पादक गोयल जी ने अंग वस्त्र भेंट किया। रामावतार साहू, रामकरण साहू, नारायण दास गुप्त, मुकेश गुप्त, रामप्रताप सिंह परिहार ने अतिथियों को अंंग वस्त्र देकर स्वागत किया। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने प्रतीक चिह्न देकर सुधीर सक्सेना को जनकवि केदार सम्मान से सम्मानित किया। युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने सुधीर सक्सेना के कविता संग्रह 'किताबें दीवार नहीं जोतीं' का जिक्र करते हुए कहा आज हमारे समाज का सबसे बड़ा संकट है कि मैत्री भाव घटता जा रहा है। सुधीर सक्सेना ने अपने सौ मित्रों पर कविता लिखकर और विभिन्न शहरों पर कविता लिखकर आत्मीयता का रचाव किया है। प्रेमनन्दन ने कहा कि सुधीर सक्सेना ने सबसे अधिक और शानदार कविताएँ शहरों पर लिखी हैं। वह जिस भी शहर से जुड़े उसी पर लिखा। सम्मानित कवि सुधीर सक्सेना ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में बाँदा की धरती और बाँदा के साथ अपने लम्बे जुड़ाव का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि बाँदा को केन बाँधती है या फिर कविता और कोई भी बाँदा को घेर नहीं सकता। बाँदा की संस्कृति कविता की संस्कृति है, तुलसी से लेकर अब तक यह संस्कृति अडिग और अविचल भाव से चली आ रही है, निरन्तर आगे बढ़ती रहेगी। केदार की धरती में केदार सभागार मेंं केदार की विरासत के लिए काम कर रहे मुक्तिचक्र और जनवादी लेखक मंच द्वारा केदार सम्मान पाकर मैंं धन्य हूँ। सुधीर सक्सेना ने अपनी पाँच कविताओं का पाठ किया- काशी में प्रेम, विडम्बना कविता को लोगों ने खूब सराहा। युवा ग़ज़लकार कालीचरण सिंह ने बीच-बीच में अपनी ग़जल कहकर श्रोताओं की तालियाँ बटोरीं और सम्मान समारोह में रसवत्ता बनाये रखी। अध्यक्षता कर रहे स्वप्निल श्रीवास्तव ने सुधीर सक्सेना को अपनी पीढ़ी का एकमात्र कवि कहा जिसने सबसे अधिक लम्बी कवितायें लिखी और सुधीर सक्सेना को यह सम्मान मिलने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुये कहा कि हम सब इस ने समारोह में उपस्थित होकर फिर एक बार केदार की धरती की ऊर्जा देख ली । मुक्तिचक्र सम्पादक गोपाल गोयल ने केदार सम्मान की पीठिका बताते हुए कहा कि सुधीर सक्सेना कौशल किशोर स्वप्निल जी का बाँदा आना हमारे लिए बडी उपलब्धि है। गोष्ठी को वरिष्ठ अधिवक्ता आनन्द सिन्हा ,  रणवीर सिंह चौहान , रामकरण साहू, रामावतार साहू , चन्द्रपाल कश्यप जी ने भी सम्बोधित किया । और अन्त में डीसीडीएफ अध्यक्ष सीपीआईएम नेता वामपंथी विचारक सुधीर सिंह ने सभी आगन्तुकों का आभार व्यक्त किया ।

बुन्देली  अवशेषों में कविता की चमक 

बाँदा से लगभग साठ कीमी दूर मध्य प्रदेश की सीमा सतना और पन्ना से सटा हुआ चन्देलकालीन दुर्ग कालिंजर जनपद बाँदा की ऐतिहासिक धरोहर है कालिंजर को बाँदा के लोग भावुकता की हद तक प्यार करते हैं यही कारण है सरकारी बेरुखी और संसाधनों के अभाव के व खण्डित तथा ध्वस्त होने के बावजूद भी अपने भीतर बुन्देलखण्ड के पुरातन वैभव की कथा कह रहा है । रानी महल, अमान सिंह का महल, विभिन्न शैली में नृत्य आकृतियों से जटित दीवारों से युक्त विशाल रंगमहल, मृगदाव, शिव मन्दिर, बावडी, पोखर, तालाब, सैनिक कक्ष, राजदरबार, जैसे आकर्षक निर्मितियों को देखकर प्रतीत होता है कि बुन्देलखण्ड का स्थापत्य किसी जिन्दा कविता से कमतर नही है। रंगमहल में प्रवेश करते ही शीतलता का आभास होता है लम्बा चौडा आँगन और आँगन के चारो तरफ़ बारामदे हैं चारो तरफ ऊपर जाने की सीढिया हैं जिनसे चढ़कर हम सामने की छत पर बैठ गये इसी रंगमहल में कविता पाठ का आयोजन हुआ। रंगमहल में कविता पढ़ना एक बार पुनः इतिहास की ओर लौटना है । इस ध्वन्सावशेष मे कभी रात दिन संगीत और शब्द का झंकृत निनाद रहा होगा और उसी जगह पर पुनः शब्दों की गूँज उठी । अध्यक्षता स्वप्निल श्रीवास्तव ने की और संचालन स्वयं  सुधीर सक्सेना ने किया । पहली कविता संचालक ने पढ़ी जिसकी सराहना सभी ने की । जवाहर लाल जलज ने ओजस्वी शब्दों में व्यक्ति की जिजिविषा और जीवन के मध्य अन्तराल पर बात रखी । वरिष्ठ कवि कौशल किशोर ने "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" कविता का पाठ किया जिसमे आज के बुद्धिजीवी वर्ग के खोखलेपन को उजागर किया गया है। प्रेमनन्दन ने जनवादी चेतना की प्रगतिशील कविताओं का पाठ किया उनकी कविता मेरा गाँव को लोगों ने पसंद किया । पीके सिंह ने अपनी प्रेम कविताओं का पाठ कर सबका मन मोह लिया । बृजेश नीरज ने हिन्दी गज़लों को पाठ किया बृजेश ने परिनिष्ठित भाषा मे ग़जल के व्याकरण का निर्वाह कर शानदार उदाहरण पेश किया। युवा ग़ज़लकार कालीचरण सिंह ने तरन्नुम की गज़ल कहीं उनकी गजल "कहीं और चलें चलें" को सबने सराहा। अजीत प्रियदर्शी ने अपनी निजी पीडाओं के आलोक में समूचे समाज और समाज के ठेकेदारों की नकली संवेदना को अपनी कविताओं में दिखाया। उमाशंकर सिंह परमार ने लौटना और सन्नाटा कविता का पाठ किया दोनो कवितायें रेवान्त के ताजा अंक में प्रकाशित हैं। जनवादी लेखक मंच के कोषाध्यक्ष नारायण दास गुप्त ने अपने बुन्देली लोक गीत खागा सकल पट्यौला खा गा और साईकिल के पिछले टायर का अगला होना कविताओं का पाठ किया। अध्यक्षता कर रहे स्वप्निल श्रीवास्तव में एक प्रेम कविता और एक बंजारे कविता का पाठ किया। उनकी बंजारे कविता की पंक्ति "जितना मै आगे बढता गया उतना ही पीछे छूटता गया" कालिंजर के इतिहास को भी व्यक्ति कर देती है समय और इतिहास जितना आगे बढता गया ऊँची पहाडी में स्थित यह ऐतिहासिक दुर्ग अपनी भव्यता खोता गया। अन्त में संचालक, कवि केदार सम्मान से सम्मानित कवि सुधीर सक्सेना ने घोषणा की कि दुनिया इन दिनो कवि केदारनाथ अग्रवाल पर जल्द ही विशेषांक लायेगी साथ ही कविता पाठ के समापन की घोषणा की। 

उमाशंकर सिंह परमार 

9838610776



Thursday, 12 December 2019

आलोचना का विपक्ष

साहित्य में ऐसे बहुत से लेखक कवि हैं, जिनका जन संघर्ष से दूर-दूर तक वास्ता नहीं। सरप्लस पूँजी से सैर- सपाटे और मौज-मस्ती करते हैं और अपने कमरे में बैठकर मार्क्स की खूब सारी किताबें पढ़कर जनचेतना का मुलम्मा अपने ऊपर चढ़ाते हैं। गोष्ठियों और मंचों पर  खूब भाषण देते हैं। भारतवर्ष में ऐसे नवबुजुर्वा लोकवादियों की कमी नहीं। ये मार्क्सवाद और लोक चेतना का चोला पहनकर अपनी गलत कमाई को सफेद  करना चाहते हैं। अपने पक्ष में एक माहौल बनाना चाहते हैं। ये पूँजीपतियों और सामंतों से कम खतरनाक नहीं है। इनका एक प्रमुख अभिलक्षण यह भी है कि ये केवल सत्ता का विरोध करते हैं, शोषक समाज का नहीं, क्योंकि यह उनके ही अंग होते हैं। लोक चेतना और वर्ग संघर्ष उनका मुखौटा है। उनका डीक्लासीफिकेसन एक छलावा है इसलिए हमारी लड़ाई केवल सत्ता और पूँजी  से नहीं, इन तथाकथित सफेदपोशों से भी है जो अपने  को वर्गविहीन कहकर हमें ठगते हैं।'' यह कथन इसी  आलोचना पुस्तक से है। इसी लोकधर्मी आलोचना की खराद में समकालीन हिंदी कविता के कवियों की कविताओं को रखा गया है। जो समकालीन हिंदी कविता के एक नये विमर्श को कविता  के  पाठकों  के  सामने  रखती  है |आज के  इस  चर्चित  आलोचक  का  पूरी  तरह  से  यह  मानना  है  की  ये  कवि  कविताओं  में या  तो  कलावाद  को मोमेंटम  प्रदान  करते  हैं या फिर  गद्य  लेखन  मार्क्सवाद , स्त्री  विमर्श  आदि  का  कोइ  न  कोइ  विचार  वितंडा  खड़ा  कर  अपने  को  सामने  लानें  का उपक्रम  करते  है  यह  तो  साहित्य  में  स्वयम  को  चर्चा  में  लाने  का सायास प्रयत्न  भर  है | निश्चय  ही सुशील कुमार  की  यह  आलोचना  पुस्तक  साहित्य  के  पाठकों  के  सामने  काव्य  आलोचना  के  महत्वपूर्ण   सवालों  को  लेकर  खड़ी  होती  है | यह  किताब  हाल  ही  में  लोकोदय प्रकाशन  लखनऊ  से  प्रकाशित  हुई  है |

Wednesday, 12 July 2017

गोरख पाण्डेय की कविताएँ

तमाम विद्रूपताओं और अंधे संघर्षों के बावजूद जीवन में उम्मीद और प्यार के पल बिखरे मिलते हैं. इन्हीं पलों को बुनने वाले कवि का नाम है गोरख पाण्डेय. इनकी कविताओं में जीवन और समाज की सच्चाईयाँ अपनी पूरी कुरूपता के साथ मौजूद हैं लेकिन इनके बीच जीवन का सौन्दर्य आशा की किरण बनकर निखर आता है.  


प्रस्तुत हैं सौन्दर्य और संघर्ष के कवि गोरख पाण्डेय की कुछ कविताएँ-

सात सुरों में पुकारता है प्यार 
(रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर)

माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

जोगी शिरीष तले
मुझे मिला

सिर्फ एक बाँसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव

गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूँढ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बाँसुरी पर टेरता

जोगी देखते ही भा गया मुझे
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं ज़ात-पाँत
दर्द का एक राग
गाँवों और जंगलों को
गुंजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे माँ
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
माँ, मैं जोगी के साथ जाऊँगी

ससुराल वाले आएँगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशक़ीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना, माँ
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पाकर

तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़-माँस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सजा देना
उसमें काठ की पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन

मैं तो जोगी के साथ जाऊँगी, माँ
सुनो, वह फिर से बाँसुरी
बजा रहा है

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे
मना कर सकती हूँ उसे ?


हे भले आदमियो!
  
डबाडबा गई है तारों-भरी
शरद से पहले की यह
अँधेरी नम
रात।
उतर रही है नींद
सपनों के पंख फैलाए
छोटे-मोटे ह्ज़ार दुखों से
जर्जर पंख फैलाए
उतर रही है नींद
हत्यारों के भी सिरहाने।
हे भले आदमियो!
कब जागोगे
और हथियारों को
बेमतलब बना दोगे?
हे भले आदमियों!
सपने भी सुखी और
आज़ाद होना चाहते हैं।



तटस्थ के प्रति  

चैन की बाँसुरी बजाइए आप
शहर जलता है और गाइए आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइए आप



फूल और उम्मीद

हमारी यादों में छटपटाते हैं
कारीगर के कटे हाथ
सच पर कटी ज़ुबानें चीखती हैं हमारी यादों में
हमारी यादों में तड़पता है
दीवारों में चिना हुआ
प्यार।

अत्याचारी के साथ लगातार
होने वाली मुठभेड़ों से
भरे हैं हमारे अनुभव।

यहीं पर
एक बूढ़ा माली
हमारे मृत्युग्रस्त सपनों में
फूल और उम्मीद
रख जाता है।



समझदारों का गीत  
 
हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिए
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़िया-धसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहाँ विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं, हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।



फूल  

फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं
धड़कते हुए
बादलों के ग़लीचों पे रंगीन बच्चे
मचलते हुए
प्यार के काँपते होंठ हैं
मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई

ज़िन्दगी
जो कभी मात खाए नहीं
और ख़ुशबू हैं
जिसको कोई बाँध पाए नहीं

ख़ूबसूरत हैं इतने
कि बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें
कि दुनिया को और जीने लायक बनाने की
इच्छा जगा दें।



रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
  
रफ़्ता-रफ़्ता नज़रबंदी का ज़ादू घटता जाए है
रुख से उनके रफ़्ता-रफ़्ता परदा उतरता जाए है

ऊँचे से ऊँचे उससे भी ऊँचे और ऊँचे जो रहते हैं
उनके नीचे का खालीपन कंधों से पटता जाए है

गालिब-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए
उनका शहर लोहे का बना था फूलों से कटता जाए है

ये तो अंधेरों के मालिक हैं हम उनको भी जाने हैं
जिनका सूरज डूबता जाए तख़्ता पलटता जाए है।




समाजवाद  

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई



गुहार  

सुरु बा किसान के लड़इया चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
कब तक सुतब, मूँदि के नयनवा
कब तक ढोवब सुख के सपनवा
फूटलि ललकि किरनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे पसीवना से अन धन सोनवा
तोहरा के चूसि-चूसि बढ़े उनके तोनवा
तोह के बा मुठ्ठी भर मकइया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरे लरिकवन से फउजि बनावे
उनके बनूकि देके तोरे पर चलावे
जेल के बतावे कचहरिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

तोहरी अंगुरिया पर दुनिया टिकलि बा
बखरा में तोहरे नरके परल बा
उठ, भहरावे के ई दुनिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।


जनमलि तोहरे खून से फउजिया
खेत करखनवा के ललकी फउजिया
तेहके बोलावे दिन रतिया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।
सुरु बा किसान के लड़इया, चल तूहूँ लड़े बदे भइया।

अपनों का साथ और सरकार के संबल से संवरते वरिष्ठ नागरिक

  विवेक रंजन श्रीवास्तव -विभूति फीचर्स             एक अक्टूबर को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाती है। यह परंपरा सन् 1...