नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ। देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’
के
अनुसार: ‘ जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे
अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं। ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है
जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- ‘अस्ति
कश्चित वाग्विशेष:’ की भांति। यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही
है 'ऊर्ध्वबाहु:
विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम्'
मैं
बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई
सुन नहीं रहा।’
मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक
सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ
सुना ही नहीं मनवा भी सका है। शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का
संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है। इंद्र जी ने ठीक
ही कहा है: ‘प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की
भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है,
जो
मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म
की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की
आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का
आकांक्षी है।’
जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और
अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का
माध्यम बनता है-
गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी
समय से जूझता है
अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है।
त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता,
कवि
का मंतव्य, भाषा और बिम्ब
सहजग्राह्य हैं। इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए-
चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?
जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है
क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है
साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की
सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं। कवि को यथार्थ को
यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है,
जैसा सहा, वैसा कहा-
कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा
इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं
स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता
यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात
कहता है।
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है। मुखपृष्ठ पर
अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं। कवि की
शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है-
डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है
चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की
देखकर आसन्न खतरे
हूकती है
जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने
बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है
यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे
में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है।
नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से
संपन्न करते हैं।
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन
देखें-
चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग
घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग
नूतन प्रतिमान खोजते हुए
जीवन अनुमान में निकल गया
छोड़कर विशेषण सब
ढूँढिए विशेष को
रोने या हँसने में
खोजें क्यों श्लेष को?
आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर
रच रहीं हैं शब्द हरकारे
मत भुनाओ
तप्त आँसू, आँख में ठहरे
कैसा मौसम है
मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती
मिले, विकल्प मिले तो
सीली दियासलाई से
आहटें, संदिग्ध होती जा रहीं
यह धुआँ है
या तिमिर का आक्रमण
ओढ़ता मैं शील औ’शालीनता
लग रहा हूँ आज
जैसे बदचलन
इस तरह की अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं
बेधती भी हैं।
इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और
आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है। कवि न तो अतीत के प्रति अंध
श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न
वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका
संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान
की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें। वह कहता
है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ
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गीत- नवगीत संग्रह - सुनो मुझे भी, रचनाकार-
जगदीश पंकज, प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी
भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद,
गाज़ियाबाद,
प्रथम
संस्करण-२०१५ , मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षक-
संजीव सलिल
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