उपेन्द्रनाथ अश्क के नाट्य-साहित्य में
चित्रित मध्यवर्गीय समाज की समस्याएँ
- तरूणा यादव
शोधार्थी (हिन्दी)
वनस्थली विद्यापीठ (राज.)
साहित्य का विकास समाज सापेक्ष होता है।
यह मानव की अत्यन्त रमणीय एवं सशक्त मानसी अनुभूति है। समाज की आधारभूत ईकाई
परिवार है तथा परिवार की आधारभूत ईकाई व्यक्ति है। इस प्रकार व्यक्ति से परिवार
तथा परिवारों के समूह से समाज बनता है। अतः समाज शब्द का प्रयोग मानव समूह के लिए
किया जाता है। परिवार से लेकर विश्वव्यापी मानव समूह तक को समाज की संज्ञा दी जाती
है। विभिन्न शब्द कोशों में ‘समाज’ शब्द के अर्थ को
स्पष्ट किया है- संस्कृत कोश ग्रन्थ में- ‘‘समाज
शब्द की उत्पत्ति ‘सम’ उपसर्ग पूर्वक अज्
धातु से धज् प्रत्यय करने से होती है। (सम $
अज् $ धज्)
जिसका अर्थ सभा, मण्डल, गोष्ठी, समिति या परिषद।’’
नालन्दा विशाल शब्दसागर के अनुसार - ‘‘समाज का शाब्दिक
अर्थ है समूह या गिरोह।’’
साधारणतया उन सभी संगठनों के समूह को
समाज कहा जाता है जिन्हें मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने जीवन को
सुखी व पूर्ण बनाने के लिए निर्मित करता है।
समाज में होने वाले परिवर्तन का साहित्य
पर प्रभाव पड़ता है और साहित्य भी समाज में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है।
आर्थिक आधार पर विभाजित समाज के वर्ग या श्रेणियाँ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप
से साहित्य के वस्तुतत्व को प्रभावित तथा निर्धारित करते हैं। मध्यवर्ग समाज का
प्रमुख तथा व्यापक वर्ग होने के नाते साहित्य का भी केन्द्रीय वर्ग रहा है।
साहित्य की लगभग प्रत्येक विधा में इस वर्ग के जीवन सम्बन्धी समस्याओं की
अभिव्यक्ति हुई है। साहित्यकार ने मध्यवर्गीय जीवन तथा समस्याओं को ग्रहण कर समाज
से सीधे जुड़ने का प्रयास किया है। अतः साहित्यकार स्वयं मध्यवर्ग से सम्बन्धित रहा
है जिससे मध्यवर्गीय जीवन का समग्र रूप साहित्य क्षेत्र में उभर कर आया है।
मंजुलता सिंह ने एक साहित्यकार की
मनोवृतियों का वर्णन करते हुए कहा है- ‘‘मानव
की परिस्थितियों एवं उसकी मनोवृतियों का संघर्ष मात्र दिखाकर ही आज के साहित्य का
उत्तरदायित्व पूर्ण नहीं होता, परन्तु
निरन्तर बदलते हुए बाहरी और भीतरी परिवेश से प्राप्त अनुभवों के फलस्वरूप जो
परिवर्तन उत्पन्न होते हैं उन्हें भी साहित्यकार को चित्रित करना पड़ता है।’’ अतः
साहित्य साहित्यकार के परिवेशगत जनजीवन की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं धार्मिक समस्याओं आदि का
लेखा-जोखा है।
मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्धित होने के
कारण उपेन्द्रनाथ अश्क ने
मध्यवर्गीय समाज से ही जुड़ी समस्याओं को अपनी रचना का विषय बनाया। उनके मध्यवर्गीय
पात्र अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए परिवार और समाज से लड़ते हैं परन्तु असफल
रहते हैं। बाह्य संघर्षों में असफल और क्षुब्ध होकर मध्यवर्ग का आक्रोश जीवन के हर
पक्ष में दिखाई देता है। सामाजिक संगतियों-विसंगतियों, जीवनगत अभावों, जड़ताओं, जीवन मूल्यों एवम्
विश्वास और उनके बनते-बिगड़ते सम्बन्धों से हमेशा ग्रस्त दिखाई देता है।
उपेन्द्रनाथ अश्क का नाट्य-साहित्य पारिवारिक
सम्बन्धों का अथाह सागर है। कहीं कोई सम्बन्ध मधुर है तो कहीं वही सम्बन्ध भी कटु
हो उठा है। शिक्षा के प्रसार और पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण ने मध्यवर्गीय
पारिवारिक जीवन को गहरा आघात पहुँचाया है। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय संस्कृति की
आत्मा कहे जाने वाले संयुक्त परिवार भी बिखर कर अलग हो गए। पारिवारिक बन्धनों एवं
अनावश्यक औपचारिकताओं के कारण मध्यवर्गीय पति-पत्नी के दाम्पत्य जीवन में विश्वास
की कमी हो जाती है। जिसका परिणाम यह होता है कि दाम्पत्य जीवन नीरस हो उठता है। एक
पुरानी लोकोक्ति है कि ‘जब
तक दाँत मसूढ़ों से सटे होते हैं, तभी
तक उपयोगी होते हैं, हिल
जाने पर उखाड़ फेकना ही उचित होता है।’
मध्यवर्गीय समाज में दाम्पत्य जीवन की
नीरसता एवम् कृत्रिमता का विद्रूप व्यंग्य अशोक के इस कथन में निहित है। मिस्टर
अशोक - ‘‘चीख
रहा हूँ। क्या कहूँ, बीस
बार कहा कि भाई आराम करो। समय पर एक घड़ी का आराम बाद की एक वर्ष की मुसीबत से
बचाता है। पर यह मानती ही नहीं, पर
ज्यों ही मैंने बताया कि तुम्हारा खाना है। तो झट रसोई में जा बैठी मैं सब्जी लेने
गया था- मेरे आते ही इन्होंने खीर बना डाली।’’ अशोक एक घुटन का
शिकार है जिसकी तकलीफ बर्दाश्त से बाहर होने पर भी उसे सहकर मित्र के सामने अपने
विवश दर्द को छिपाने के लिए जीवन की कृत्रिमता से संघर्ष कर रहा है। विसंगतिपूर्ण
मध्यवर्गीय दाम्पत्य जीवन की खुरदरी जिंदगी की इस त्रासदी को अशोक और राजेन्द्र ही
भोग रहे हों, ऐसा नहीं है। कमोबेश समाज का हर तबका इन स्थितियों का शिकार है।
उपेन्द्रनाथ अश्क ने विवाह और प्रेम
की समस्या के सामाजिक पस-मंजर याने पृष्ठभूमि पर मध्यवर्गीय संस्कारों वाली स्त्री
और पुरुष के चित्र खींचे हैं। मदन का विवाह यदि अनिच्छा से किया गया तो जातीय
बन्धन का अभिशाप है तो दूसरी और एक अन्य नाटक ‘कैद’ में अप्पी का विवाह
अवांछित है। विशेष परिस्थितियोंवश अप्पी का विवाह उसके प्रेमी से न होकर बहनोई से
हो जाता है। अप्पी की घुटन आन्तरिक है। घुटन के इस जहर को पीकर भी अप्पी अन्दर-ही-अन्दर
घुट कर न जी पाती है और न मर पाती है। मदन की भाँति पुनर्विवाह का साहस उसमें भी
नहीं है, चूँकि
भारतीय नारी के परम्परागत संस्कार उसकी चेतना को जकड़े हुए है। उसकी यह विवशता इन
शब्दों में साकार हो उठी है- ‘‘हम
गरीबों का क्या है, जहाँ
बैठा दिया, जा
बैठी।’’ वैवाहिक जीवन की इस
असंगति ने अप्पी और प्राणनाथ के दाम्पत्य जीवन पर अवसाद और विषाद के घने कोहरे की
एक चादर तान दी है।
मध्यवर्गीय समाज में पुनर्विवाह के
सम्बन्ध में स्त्री और पुरुष के दोहरे मानदण्ड देखने को मिलते है। पुरुषों को
पुनर्विवाह की अनुमति हैै और स्त्री को नहीं। प्राणनाथ की पत्नी के मृत्यु के बाद
उसका विवाह उसकी साली (अप्पी) सेे किया जाता है। जिसके कारण वह अभिशप्त जीवन
व्यतीत करती है- ‘‘यदि
मैं तुम्हारी बहन की मृत्यु के बाद दिल्ली न गया होता तो तुम्हारी हँसी-खुशी का
सोता भी यो न सूख जाता और मेरे जीवन की पहाड़ी पर यांे गहरे धुंधलके न छा जाते।’’ अप्पी
मध्यवर्गीय साहसहीन लड़कियों की तरह विवाह तो कर लेती है लेकिन अपने विसंगतिपूर्ण
अनमेल दाम्पत्य जीवन की खुरदरी त्रासदी से समझौता नहीं कर पाती। ‘अलग-अलग रास्ते’ के मदन की राह से
गुजर कर यदि अप्पी परम्परागत सामाजिक मान-मर्यादाओं का दमन कर अपने प्रेमी दिलीप
से पुनर्विवाह कर लेती तो निश्चय ही उसका मानस रोग स्वस्थता में बदल सकता था।
सामाजिक लोकलाज एवं भय के कारण सुरेश और नीति का विवाह सम्पन्न नहीं होता और सुरेश
गंगा में कूदकर आत्महत्या कर लेता है। परम्परागत रूढ़ियों और संकीर्ण विचारों के
कारण मध्यवर्गीय समाज में प्रेम और विवाह की समस्या एक ज्वलंत समस्या है। भारतीय
मध्यवर्ग में अनेक कुरीतियाँ व्याप्त हैं उनमें वैवाहिक सम्बन्धी कुरीतियों में
दहेज सबसे जटिल समस्या उभरकर सामने आया है- ‘‘दहेज
की प्रथा प्रायः समाज के उच्च एवं मध्यवर्ग में पायी जाती हैं, लेकिन मध्यवर्ग में
दहेज विवशता का प्रतीक हैं तो उच्च एवं अभिजात वर्ग में प्रदर्शन का।’’ ‘अश्क’ द्वारा रचित ‘अलग-अलग रास्ते’ की रानी का
असंगतिपूर्ण दाम्पत्य जीवन दहेज-प्रथा की बलिवेदी का प्रसाद है। इच्छानुसार दहेज न
मिलने के कारण ससुराल वाले रानी पर अमानुषिक अत्याचार करते है। ऐसे गर्हित
पारिवारिक जीवन से ऊब कर रानी अपने पिता के घर से वापिस पति के घर जाने को किसी भी
कीमत पर तैयार नहीं है। अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के लिए जब पिता वर पक्ष की
इच्छा पूर्ण करने का प्रयत्न करते हैं तब रानी कहती है- ‘‘आप यह समझते हैं कि
ये मकान मेरे नाम करके मुझ पर कोई उपकार कर रहे है? ये मेरे गले में सदा के लिए दासता की
बेड़ी डाल रहे हैं। मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ रहने को विवश कर रहे हैं जिसके लिए
मेरे मन में लेशमात्र भी सम्मान नहीं। मुझे फिर उस नरक में ढकेलना चाहते हैं, जहाँ मैं घुट-घुटकर
अधमरी हो गयी हूँ।’’ त्रिलोक लोभवश रानी
को ले जाने के लिए तैयार है परन्तु रानी धन-लोलुप पति के साथ नहीं जाना चाहती।
वस्तुतः मध्यवर्गीय समाज में नारी की
दयनीय स्थिति को उभारकर नाटककार ने दाम्पत्य जीवन की असंगतिपूर्ण विद्रूपताओं पर
कसकता व्यंग्य किया है, जिसने
अप्पी, राज
और रानी जैसी न जाने कितनी नवयुवतियों के जीवन रस को छानकर जिदंगी को इतना खुरदरा
बना दिया है कि वे उसकी खराद पर ठीक बैठना चाहकर भी नहीं बैठ पा रही और उसकी यही
विवशता उसके दाम्पत्य जीवन की अभिशप्त त्रासदी बनकर उभर आती है।
‘उपेन्द्रनाथ अश्क’ के नाट्य साहित्य
में धर्म के नाम पर साम्प्रदायिकता को उमाड़ने वाली पूँजीवादी मनोवृति और उसके पीछे
नेता वर्ग की साजिशों का पर्दाफाश भी किया है। मुसलमानों की रक्षा करते हुए हिन्दू
गुण्डे़ से मारा जाने वाला प्रधान पात्र घीसू मरते समय दांत पीस कर कहता है- ‘‘एक तूफान आ रहा है।
जिसमें ये सब दादे, ये
गुण्डे़, ये
धर्म और जाति-पाति के दर्प, गरीबों
का लोहू पीने वाले पूंजीपति, ये
भोले-भाले लोगों को लड़वाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता-सब मिट जायेंगे।’’ ‘अश्क’ ने मध्यवर्गीय जीवन
में पूँजीवादी प्रभावों से उत्पन्न विशृंखलताओं और उच्छशृंखलताओं तथा उस जीवन के
अन्तर्विरोधों के व्यंग्यात्मक चित्र उपस्थित करने के साथ-साथ जीवन के उदात्त
मानवीय भावों का चित्र भी प्रस्तुत किया है। ‘अश्क’ ने मध्यवर्गीय जीवन
की विभिनन समस्याओं का विश्लेषण करते हुए उस वर्ग के तमाम अन्तविरोधों और उसके
प्रतिगामी तत्वों का यथार्थ उद्घाटन किया है।
सन्दर्भ-सूची
वामन श्विराम आप्टे: (सं.) संस्कृत
हिन्दी कोश, पृ.
सं. 1076
नवल
जी: (सं.) नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ.
सं. 15
मंजुलता
सिंह: हिन्दी उपन्यासों में मध्यवर्ग, पृ.
सं. 19
उपेन्द्रनाथ
अश्क: स्वर्ग की झलक नाटक, पृ.
सं. 56-57
वही, कैद और उड़ान नाटक, पृ. सं. 70
वही, पृ. सं. 44
डाॅ.
स्वर्णलता तलवार: हिन्दी उपन्यास और नारी समस्याएँ, पृ. सं. 60
उपेन्द्रनाथ
अश्क: अलग-अलग रास्ते नाटक, पृ.
सं. 112
वही, तूफान से पहले
एकांकी संग्रह, (तूफान
से पहले एकांकी, पृ.
सं. 42)
No comments:
Post a Comment