Thursday 4 February 2016

व्यंग्य - अभिभूत

- डॉ अनिल मिश्र

सुभान अल्लाह! क्या हनक, क्या शोखी, क्या तेजी! सारे रसों, सारे अलंकारों को अपने में समाहित किए इस काव्यदेवी का स्थायी भाव ईमानदारी ही माना था, समालोचकों ने। ज़बान कभी शीरी तो कभी मिर्ची। बात का लहजा और कथ्य क्या कहने, कहीं कोमल कान्त पदावली, कहीं ग़ज़ल की नाज़ुकी, कहीं श्रृंगार की मिठास, कहीं कसीदों की कारीगरी तो कहीं वीर रस की नितांत गर्म तासीर। नई वाली मैडम के इस सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व ने सभी को सम्मोहित कर रखा था। अधीनस्थ तो अधीनस्थ, बड़े साब से लेकर बूढ़े वाले मंत्री जी तक सभी इस चुम्बकीय आकर्षण के परिधिगत थे। जिस कार्य को जब, जैसे, जहाँ चाहा, किया। जिस कार्य के लिए उन्होंने हाँ कहा, हाँ तथा जिसे ना कह दिया, ऊपर तक ना ही हो गया।
अपने काम से काम रखने वाले, दुनियादारी में कच्चे, पर मूल्यों के पक्के, विभागीय खेमेबाजी से अलग प्रशांत खेमका जी, जो जल्दी किसी से प्रभावित नहीं होते थे, मैडम जी से इतने अभिभूत हुए कि उनके दिल की गहराई मैडम जी के व्यक्तित्व एवं कार्यशैली की पहाड़ जैसी ऊँचाई से पट गई। जहाँ जाते, जिससे मिलते, मैडम जी का गुणगान उसी तरह करते जिस तरह नारद जी भगवान् का।
सब कुछ सुन्दर और प्रभावी ढंग से चल रहा था, पर विधि का विधान तो संविधान से भी परे है। खेमका साहब को बड़े साब का आदेश मिला कि तत्काल जूनागंज जनपद को प्रस्थान करें तथा वहाँ विभागीय अधिकारियों द्वारा बड़ा घोटाला शीर्षक से प्रकाशित दैनिक अख़बारीय ख़बर पर अपनी विस्तृत आख्या संस्तुति सहित शासन को एक सप्ताह के अन्दर उपलब्ध कराएँ। आदेश में यह भी निर्देशित था कि विभाग के वरिष्ठ अधिकारी श्री ख़बरी ख़ान भी आप की सहायता के लिए आप के साथ जाएँगे।
विषय संवेदनशील था और विधानसभा सत्र के बीच समाचार पत्र में आया अथवा लाया गया था, अतः खेमका साहब को रात में ही सूदूर जनपद के लिए मो० ख़बरी ख़ान जी के साथ विभागीय कार से प्रस्थान करना पड़ा। यद्यपि ख़ान साहब के साथ यह उनकी पहली यात्रा थी पर खेमका साहब सुनते रहते थे कि ख़बरी ख़ान साहब अपने नाम के अनुरूप वाकई ख़बरों की ख़ान हैं। उनके पास मंत्री से लेकर संतरी तक के साँस लेने तक की पुरानी से पुरानी और नई से नई पुख्ता ख़बर अपने मूल स्वरुप में विद्यमान रहती है बिलकुल वैसे ही जैसे साधकों के पास सिद्धियाँ। ख़ान साहब के लिए यह भी मशहूर था कि वे सिर्फ ख़बरें रखते ही नहीं बल्कि छेड़े जाने पर उसे किसी के भी सामने बेख़ौफ़ हूबहू बाँच भी देते हैं। खैर!
खेमका जी विभागीय अधिकारियों द्वारा बड़ा घोटाला ख़बर से आहत तो थे ही, उनके मुख से निकल पड़ा, “ख़ान साहब! शासन को शर्मिंदा कर देते हैं ये अधिकारी। बेड़ागर्क कर दिए हैं ये घोटालेबाज़। कब सुधरेंगें ये लोग? कब शांत होगी इनकी पैसों की पिपासा।” खेमका जी का एक के बाद एक चार वाक्य सुनते ही ख़ान साहब के अन्दर का ख़ान खड़ा हो गया और थोड़ी कड़वी ज़बान में बोला, “खेमका जी! वह तो दूर के छोटे से जिले के छोटे से घोटाले की बात है जिसे आप जानते नहीं, जानने जा रहे हैं।”
ख़बरी ख़ान जी, खेमका जी की इज्ज़त करते थे पर उनकी दुनियादारी की नादानी पर नाराज़ भी रहते थे। आज मौका मिला था और भड़ास बाहर निकल आई। गुस्से को दबाते हुए बोले, खेमका जी! दीपक तले अँधेरा होता है। आप जिसकी तारीफ़ करते थकते नहीं, उसके बारे में कुछ बोलूँ?
... और उन्होंने जब प्रकाश की गति से मैडम के कुछ चुनिन्दा कार्यों के विकेंद्रीकरण से केन्द्रीयकरण की महत्वपूर्ण कार्यवाही के दान-प्राप्ति-दर्शन का पटाक्षेप किया तो खेमका जी के दिल का भूगोल मैडम जी के व्यक्तित्व और गुप्त कृतित्व के द्वंद के भूचाल से ऐसा बदला कि मैडम जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व की पहाड़ी से पटी खेमका जी के दिल की गहराई बंगाल की खाड़ी में तब्दील हो गई।
जाँच के इस दौरे से लौटते समय जब खेमका जी अपनी रिपोर्ट की रूप-रेखा सोच रहे थे तभी उनका मोबाइल बज उठा।
...नई वाली मैडम का तबादला हो गया। वह नए ठिकाने के लिए फुर्र हो चुकी थीं। नई जगह, नए लोग और नई वाली मैडम का वही पुराना प्रभावशाली अंदाज़। वहाँ पर भी लोग यहाँ तक कि मूल्यों के मूर्तिमान स्वरुप मानवेन्द्र मुखर्जी जी भी उनके व्यक्तित्व के चुम्बकीय प्रभाव से अभिभूत होते जा रहे थे और उनके दिल की गहराई भी मैडम जी की कार्यशैली के पहाड़ की ऊँचाई से पटती जा रही थी; पटती जा रही थी....

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Friday 15 January 2016

नवीन मणि त्रिपाठी के मुक्तक

नारी संवेदना

लिपट  कफ़न  में आबरू को खो  गयी बेटी।
बाप  के कन्धों  पे अर्थी  में सो गयी बेटी।।
ये तख्तो-ताज व ताकत बहुत निकम्मी है।
अलविदा कह  तेरे कानून को  गयी  बेटी।।


हम  शहादत  के  नाम  पर हिसाब  माँगेंगे।
इस  हुकूमत से तो वाजिब  जबाब  माँगेंगे।।
चिताएँ खूब  सजा दी हैं आज  अबला  की।
हर  हिमाकत  पे  तुझ से  इन्कलाब  माँगेंगे।।


पंख  तितली  का कुतर कर गए बयान  तेरे।
तालिबानी  की  शक्ल में हुए  फरमान  तेरे।।
कुर्सियाँ पा  के हुए  तुम भी  बदगुमान  बहुत।
अस्मतें  सारी  लूट  ले  गए दरबान   तेरे।।


लाश  झूली  जो   दरख्तों   पे  शर्म   सार  हुए।
जुर्म   को   जुर्म  ना  कहने  के  इश्तिहार  हुए।।
अब  है  लानत  तेरी  मनहूस   बादशाहत   को।
हौसले   पस्त   तो   बेटी  के  बेशुमार हुए।।


वो  मुहब्बत  का  जनाजा  निकाल ही  देंगे।
तहजीब- ए- तालिबान  दिल  में  डाल  ही देंगे।।
शजर  की   शाख  पे लटकी  ये  आबरू  देखो।
कली  ना  खिल  सके गुलशन  उजाड़  ही देंगे।।


तुम तो  शातिर तेरी ताकत भी कातिल हो गयी।
अब  तेरी सरकार  बेबस और जाहिल  हो गयी।।
इंतकामी    फैसला  फाँसी   लटकती   बेटियाँ।।
चुन  के  लाये थे  तुझे ये  सोच गाफिल हो गयी।।


            देश के नाम

वो  शगूफों  को  तो बस यूँ उछाल देते हैं ।
नफरतों का जहर  वो दिल में डाल देते हैं ।।
कितने शातिर हैं ये कुर्सी  को चाहने  वाले ।
अमन सुकूं का कलेजा  निकाल  लेते हैं ।।


सच की चिनगारी से  हस्ती तबाह कर देंगे |
हड्डियाँ बन के हम फीका कबाब कर देंगे ||
दौलते-मुल्क पे कब्ज़ा हुआ अय्याशों का |
वक्त  आने  पे  हम  सारा हिसाब कर देंगे ||


हम  शहीदों  की  हसरतों  पे  नाज करते हैं |
उनकी जज्बात को हम भी सलाम करते हैं ||
वतन  को  बेचने  वालों जरा  संभल जाना |
तुम्हारे  हश्र  का  अहले- मुकाम  रखते  हैं ||


तुमने  लूटा  है  वतन हमको  बनाना होगा |
देश  के  दर्द  को आँखों में सजाना  होगा ||
भूख से  रोती  जिंदगी  को मौत  दी तुमने |
धन जो काला है उसे  देश  में लाना  होगा ||


वो  हुक्मराँ  हैं  हम पलकें  बिछाए बैठे  हैं |
बात  जो खास है  उसको छिपाये  बैठे  हैं ||
वो   रिश्वतों   के बादशाह   कहे   जाते  हैं |
एक  दूकान   वो  घर  में  लगाये  बैठे   हैं ||


उनके मकसद के चिरागों को जलाते क्यों हो |
बचेगा  देश  भरोसा  ये   जताते   क्यों  हो ||
जो  कमीशन  में  खा गये हैं फ़ौज  की तोपें |
उनकी  बंदूक   से   उम्मीद  लगाते क्यों  हो ||


वो   शहादत  को  फरेबी   करार   कर   देंगे ।
अब   शहीदों   को भी  वो  दागदार कर  देंगे 
सारी  तहजीब  डस  गयी है सियासी नागिन ।
वतन  की  शाख  को  वो तार - तार  कर  देंगे 


          प्रणय के स्वर

तेरी   पाजेब   की  घुघरू ने  दिल  से  कुछ  कहा  होगा |
लबों   ने  बंदिशों   के  सख्त  पहरों   को   सहा   होगा ||
यहाँ   गुजरी   हैं   रातें  किस  कदर  पूछो ना तुम हम से |
तसव्वुर     में    तेरी   तस्वीर  का    हाले-  बयाँ   होगा ||


यहाँ   ढूँढ़ा   वहाँ   ढूँढा  ना   जाने   किस   जहाँ   ढूँढा |
किसी    बेदर्द  हाकिम   से   गुनाहों   की   सजा   ढूँढा ||
वफाओं   के   परिंदे   उड़  गये   हैं   इस  जहाँ  से  अब |
जालिमों   के   चमन  में   मैंने  कातिल   का  पता  ढूँढा |


शमाँ   रंगीन   है   फिर   से   गुले   गुलफाम  हो   जाओ |
मोहब्बत  के  लिए  दिल   से  कभी  बदनाम  हो  जाओ ||
चुभन  का   दर्द   कैसा   है  जख्म   तस्लीम  कर   देगा |
वक्त  की  इस  अदा  पे  तुम भी कत्ले आम  हो  जाओ ||


ये   साकी   की  शराफत  थी  जाम  को कम दिया होगा |
तुम्हारी   आँख  की  लाली  को  उसने  पढ़  लिया  होगा ||
बहुत   खामोशियों   से    मत   पियो  ऐसी   शराबों   को |
छलकती   हैं   ये  आँखों   से   कलेजा  जल  गया  होगा ||


तुम्हारे   हर   तबस्सुम   की   यहाँ   पर    याद   आएगी |
कमी   तेरी    यहाँ   हर   शख्स   को   इतना   सताएगी ||
तुम   हमसे   दूर   जाके  भी  ये  वादा  भूल      जाना |
चले   आना   प्रेम   की   डोर   जब   तुमको   बुलाएगी ||


तुम्हारी  झील  सी  आँखों  में अक्सर  खो  चुके  हैं हम ।
प्यास  जब  भी  हुई  व्याकुल  तो  बादल  बन चुके हैं हम।।
ये  अफसानों  की  है  दुनिया  मुहब्बत की  कहानी   है ।
सयानी  हो   चुकी   हो  तुम  सयाने   हो  चुके  हैं   हम ।।


कदम  फिसले  नहीं  जिसके  वो रसपानों को क्या जाने।
मुहब्बत  की  नहीं  जिसने वो  बलिदानों को क्या जाने ।।
ये  दरिया  आग  का  है  इश्क  में  जलकर  जरा  देखो ।
शमा  देखी  नहीं   जिसने वो  परवानों  को  क्या  जाने ।।


तेरे  जज्बात  के  खत   को  अभी   देकर  गया   कोई ।
दफ़न  थीं  चाहतें उनको   भी   बेघर  कर   गया   कोई ।।
हरे  जख्मों  के  मंजर  की  फकत   इतनी   निशानी  है ।
हमें    लेकर   गयी   कोई  तुम्हें   ले   कर   गया   कोई ।।


मिलन  की  आस  को  लेकर, वियोगी  बन गया था मै।
ज़माने  भर  के  लोगों  का  विरोधी  बन गया  था  मै ।।
रकीबों  के   शहर   में जुल्म   के   ताने   मिले  इतने ।
बद चलन बन गयी थी तुम तो भोगी बन गया था मै।।



Friday 18 December 2015

आधी रात में / पाश

आधी रात में
मेरी कँपकँपी सात रजाइयों में भी न रुकी
सतलुज मेरे बिस्तर पर उतर आया
सातों रजाइयाँ गीली
बुखार एक सौ छह, एक सौ सात
हर साँस पसीना-पसीना
युग को पलटने में लगे लोग
बुख़ार से नहीं मरते
मृत्यु के कन्धों पर जानेवालों के लिए
मृत्यु के बाद ज़िन्दगी का सफ़र शुरू होता है
मेरे लिए जिस सूर्य की धूप वर्जित है
मैं उसकी छाया से भी इनकार कर दूँगा
मैं हर खाली सुराही तोड़ दूँगा
मेरा ख़ून और पसीना मिट्टी में मिल गया है

मैं मिट्टी में दब जाने पर भी उग आऊँगा

Friday 8 May 2015

इस गली के आख़िरी में मेरा घर टूटा हुआ

प्रमोद बेड़िया 

इस गली के आख़िरी में एक घर टूटा हुआ
जैसे बच्चे का खिलौना हो कोई टूटा हुआ ।

उसने मुझको कल कहा था आप आकर देखिए 
रहे सलामत आपका घर मेरा घर टूटा हुआ ।

आप उसको देख कर साबित नहीं रह पाएँगे ,
रोता कलपता सर पटकता मेरा घर टूटा हुआ ।

ज़िंदगी भर जो कमाई की वो सारी गिर गई
कल के तूफ़ाँ में बचा है मेरा घर टूटा हुआ।

आपके स्नानघर के बराबर ही सही 
अब तो वह भी ना बचा है मेरा घर टूटा हुआ।

नौ जने हम सारे रहते थे उसीमें यों जनाब
ज्यों कबूतर पींजड़े में मेरा घर टूटा हुआ ।

आप कम से कम यही कि देखते वो मेरा घर
इस गली के आख़िरी में मेरा घर टूटा हुआ ।

Thursday 7 May 2015

ग़ज़ल में मात्राओं की गणना:

संदीप द्विवेदी (वाहिद काशीवासी)

आज के समय में हमारे देश में काव्य की अनेक विधाएँ प्रचलित हैं जो हमें साहित्य के रस से सिक्त कर आनंदित करती हैं। इनमें कुछ इसी देश की उपज हैं तो कुछ परदेश से भी आई हैं और यहाँ आकर यहाँ के रंग-ढंग में ढल गई हैं। ऐसी ही एक अत्यंत लोकप्रिय काव्य विधा है ग़ज़ल। हमारे समूह में ग़ज़ल की मात्राओं की गणना पर चर्चा करने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया है अतः मैं बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात आरंभ करता हूँ।
ग़ज़लें कहने के लिए कुछ निश्चित लयों अथवा धुनों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें 'बह्र' के नाम से जाना जाता है। अगर आपका लिखा या कहा हुआ काव्य बह्र में बद्ध नहीं है तो उसे ग़ज़ल नहीं माना जा सकता। बह्र में ग़ज़ल कहने के लिए हमें मात्राओं की गणना का ज्ञान होना आवश्यक है जिसे 'तक़्तीअ' कहा जाता है। अगर हम तक़्तीअ करना सीख लेते हैं तो फिर बह्र भी धीरे-धीरे सध जाती है। हिंदी छंदों के विपरीत, जहाँ वर्णिक छंदों (ग़ज़ल भी वर्णिक छंद ही है) गणों के निश्चित क्रम निर्धारित होते हैं और हर मात्रा का अपने स्थान पर होना अनिवार्य होता है, ग़ज़ल की बह्र में मात्राओं की गणना में छूट भी प्राप्त होती है अर्थात् बह्र से सामंजस्य बैठने के लिए कई बार दीर्घ को लघु गिनने की छूट भी प्राप्त होती है (यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि मात्रा गणना में मात्रा गिरना किसी नियम के अंतर्गत नहीं आता अपितु यह छूट है)। एक बात और कि यह आलेख छंद और मात्रा गणना से अनभिज्ञ लोगों के लिए उपयोगी नहीं होगा।
हिंदी छंदों के गणों (यथा- यगण, मगण, रगण, जगण आदि) की भाँति ही ग़ज़ल में भी कुछ गण होते हैं, यहाँ अंतर केवल इतना होता है कि बह्र के गणों की मात्राओं में गिरावट भी की जा सकती है जो कि हिंदी छंदों में अनुमत्य नहीं है। उर्दू के कुछ गण (उर्दू में रुक्न) इस प्रकार हैं:
फ़ायलातुन = 2122, मफ़ाईलुन = 1222, फ़ायलुन = 212 आदि।
ग़ज़ल में मात्रा की गणना उच्चारण पर निर्भर करती है और हम सभी को इस बात का बोध है कि उच्चारण का भाषा में कितना महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिंदी के वर्णिक छंदों में किसी भी स्थिति में दो लघु मिल कर एक दीर्घ नहीं हो सकते जबकि ग़ज़ल की बह्र में यह सर्वमान्य है। उदाहरण के लिए - अधिक को हिंदी में अ=1 धि=1 क=1 अर्थात् 111 (नगण) गिनेंगे किन्तु ग़ज़ल के नियमानुसार इसकी मात्रा गणना 12 होगी। ग़ज़ल की तक़्तीअ करते समय कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक होता है।
*बिना स्वर के सभी व्यन्जन (क, ख, ग, घ आदि) लघु मात्रिक (1) होते हैं।
*लघु स्वरों (यथा - अ, इ, उ) व अनुनासिक (ँ-चन्द्र बिंदु) के साथ प्रयुक्त व्यन्जन भी लघु मात्रिक ही होते हैं। जैसे सु, नि, भँ आदि।
*दीर्घ स्वरों ( यथा- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) व अनुस्वार (ं) के साथ प्रयुक्त व्यन्जन दीर्घ मात्रिक होते हैं। जैसे का, पी, जौ, लो, अं आदि।
* किसी भी शब्द में यदि दो लघु मात्रिक व्यन्जन या स्वर उपस्थित हैं तो वे उच्चारण के अनुसार दीर्घ मात्रिक में परिवर्तित हो जाते हैं और यह सदैव होता होता है, उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार दो लघु मात्राओं यानी 11 में नहीं गिना जा सकता। यथा - दिल (दि=1+ल=1 दिल=2), तुम (तु=1+म=1 तुम=2) घर (घ=1+र=1 घर=2) तथा जब (ज=1+ब=1 जब=2) इत्यादि। ऐसे ही और शब्द हैं कुछ, पल, रुक, यदि, शव, बद, फिर आदि।
* जिन शब्दों के उच्चारण में दोनों अक्षर अलग-अलग उच्चारित होंगे उन्हें एक दीर्घ (2) न गिन कर दो लघु (11) ही गिनेंगे अन्यथा शब्द का उच्चारण दोषपूर्ण हो जाएगा और उसके अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। जैसे कि - 'अगणित'; इसमें 'अ' तथा 'ग' का अलग-अलग उच्चारण किया जा रहा है एवं 'णित' का उच्चारण एक साथ किया जा रहा है अतः इसकी मात्रा 112 ही होगी और यह किसी भी स्थिति में 22 नहीं हो सकती। इसी प्रकार 'असमय' शब्द को देखें कि यह 112 का मात्रा संयोजन है और अगर इसे 22 करना चाहें तो यह 'अस्मय' हो जाएगा और अर्थ का अनर्थ भी।
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अब मात्राओं को गिराने के विषय में चर्चा करते हैं। ऊपर हम यह देख चुके हैं कि मात्राओं की गणना ग़ज़ल में किस तरह से की जाती है। मात्रा गिराने के बारे में चर्चा करने से पूर्व एक उदाहरण देखते हैं:-
* आप को देख कर देखता रह गया
इसकी मात्रा गणना इस प्रकार से होगी
आ- प- को- दे- ख- कर- दे- ख- ता- रह- ग- या
2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2
इस मिसरे में सभी मात्राएँ उचित हैं और कहीं भी गिराई नहीं गई हैं।
अब इसका अगला मिसरा लेते हैं जिसे मिला कर पूरा शे'र बनता है:
* क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
क्या- क- हूँ- औ- र- कह- ने- को- क्या- रह- ग- या
2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2
यहाँ भी सभी मात्राएँ अपने उचित वज्न में हैं केवल 'को' छोड़ कर। यहाँ 'को' की मात्रा '2' होनी चाहिए किन्तु इस 'को' की मात्रा को गिराते हुए '1' माना गया है और को का उच्चारण एक हद तक 'कु' के समीप आ गया है। यह इस प्रकार होता है कि - जब किसी बह्र में लघु मात्रा के लिए नियत स्थान पर दीर्घ मात्रा आ जाती है तो कुछ विशेष अक्षरों को हम दीर्घ मात्रा की तरह न पढ़ कर उस पर कम दबाव देते हुए उसे लघु मात्रा की तरह उच्चारित करते हैं। हालाँकि इसके लिए यह भी जानना अत्यंत आवश्यक है कि - किन किन दीर्घ मात्रिकों को गिरा कर लघु मात्रिक की तरह प्रयोग किया जा सकता है; किन शब्दों की मात्रा गिराई जा सकती है और किनकी नहीं; तथा शब्दों में किस स्थान पर मात्रा गिराई जा सकती है और किस स्थान पर नहीं?
* आ, ई, ऊ, ए, ओ के संयोग से बनी दीर्घ मात्रा को गिरा कर लघु किया जा सकता है किन्तु ऐ, औ, अं को किसी भी स्थिति में गिराया नहीं जा सकता हालाँकि अपवाद स्वरूप कुछ को इससे छूट भी प्राप्त है। इन अपवाद में - है, हैं, मैं, और शामिल हैं। सबसे अधिक जो गिराए जाते हैं वे हैं - तो, को, जो, ये, में आदि। साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी भी शब्द के अंत का ही दीर्घ गिरता है आरंभ का नहीं। किन्तु कुछ अपवाद वाले शब्द यहाँ भी हैं जिनमें सुविधानुसार आदि या अंत किसी की भी मात्रा गिराई जा सकती है जैसे - कोई, मेरी, तेरी। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह कि किसी भी संज्ञावाचक शब्द और हिंदी के तत्सम शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। हालाँकि अब कई लोग तत्सम शब्दों की मात्रा भी गिराने लगे हैं और इसे स्वीकार भी किया जाने लगा है कई मंचों पर चर्चा के दौरान यह तथ्य सामने आया है। अब आप सुधिजनों की प्रतिक्रियाएँ आमंत्रित हैं।

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...