Thursday 9 April 2015

कहानी - दोपहर का भोजन- अमरकांत

दोपहर का भोजन
- अमरकांत
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रखकर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी।
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी है। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी लेकर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कहकर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मलकर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।
लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जाकर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ाकर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जाकर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रखकर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आकर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमाकर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जाकर पुकारा- बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रखकर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आकर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, 'खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?'
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, 'बाबू जी खा चुके?'
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, 'आते ही होंगे।'
रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।
वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने लाकर रख दी और पास ही बैठकर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, 'मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।'
मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, 'किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।'
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रखकर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, 'वहाँ कुछ हुआ क्या?'
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, 'समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।'
सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, 'प्रमोद खा चुका?'
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, 'हाँ, खा चुका।'
'रोया तो नहीं था?'
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, 'आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..'
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, 'एक रोटी और लाती हूँ?'
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, 'नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।'
सिद्धेश्वरी ने जिद की, 'अच्छा आधी ही सही।'
रामचंद्र बिगड़ उठा, 'अधिक खिलाकर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?'
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, 'पानी लाओ।'
सिद्धेश्वरी लोटा लेकर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठाकर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न होकर पान का बीड़ा हो।
मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, 'कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।'
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, 'कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।'
सिद्धेश्वरी वहीं बैठकर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, 'बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।' यह कहकर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, 'एक रोटी देती हूँ?'
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, 'नहीं।'
सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, 'नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।'
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, 'नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।'
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
मोहन कटोरे को मुँह लगाकर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम लेकर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पीकर तथा पानी के लोटे को हाथ में लेकर तेजी से बाहर चला गया।
दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में लेकर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, 'बड़का दिखाई नहीं दे रहा?'
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है- जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, 'अभी-अभी खाकर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।'
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, 'ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।'
सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, 'पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।'
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँसकर कहा, 'बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?' यह कहकर वह अचानक जोर से हँस पड़े।
मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँसकर खाने लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जाकर आज शाम को तोड़ने वाले हों।
सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, 'मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।'
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, 'मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।'
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, 'फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, 'गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।'
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, 'बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।'
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, 'रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?'
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, 'तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।' यह कहकर वे ठहाका मारकर हँस पड़े।
मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली लेकर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी लेकर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।

सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह होकर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।

जनवादी लेखक संघ की विचार गोष्ठी

          जनवादी लेखक संघ लखनऊ की ओर से ‘वर्तमान समय के स्त्री-प्रश्न’ विषय पर एक परिचर्चा का आयोजन किया गया| परिचर्चा में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्रोफ़ेसर सदानंद शाही ने कहा कि आज की स्त्री परंपरा से खींची गयी दहलीज को पार करके बाहर निकल आई है, पुनः उसे उस दहलीज में नहीं धकेला जा सकता| अब बहुत निराशाजनक स्थिति नहीं है| स्त्री-पुरुष सन्दर्भों में देखें तो पशुता की ताकत पुरुष के पास ज्यादा है और मनुष्यता की ताकत स्त्री में ज्यादा है| उन्होंने तमाम मिथकीय प्रसंगों की चर्चा करते हुए स्त्रियों के समक्ष उठने वाले प्रश्नों की चर्चा की|

          अध्यक्षता करते हुए कवयित्री सुशीला पुरी ने कहा कि स्त्री प्रश्न स्त्री के बजाय पुरुषों के लिए जरुरी हैं| यह भी जरुरी है कि हमारा स्त्री विमर्श शहरों तक ही सीमित न रहे, गाँवों तक भी पहुँचे| विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. संध्या सिंह ने आधुनिक सन्दर्भों में स्त्री विमर्श के रैखिक विकास क्रम को प्रस्तुत किया| डॉ. रंजना अनुराग ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पित्रसत्तात्मक समाज में स्त्री सदियों से पीड़ित रही है| अनीता श्रीवास्तव, कुंती मुखर्जी, कवयित्री संध्या सिंह, डॉ. निरांजलि सिन्हा, अनुजा शुक्ला, दिव्या शुक्ला, माधवी मिश्रा, डॉ. अलका प्रमोद, रंजना श्रीवास्तव ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए स्त्री के अधिकारों और समानता के लिए स्वयं संघर्ष करने का आह्वान किया| विजय पुष्पम् पाठक ने परिचर्चा को बहस में तब्दील कर दिया जिससे विषय पर खूब चर्चा हुयी| ऐडवा की सीमा राणा, एस.ऍफ़.आई. के प्रवीण पाण्डेय, कलम सांस्कृतिक मंच के ऋषि श्रीवास्तव ने भी अपने विचार व्यक्त किए| धन्यवाद ज्ञापन नलिन रंजन सिंह ने किया|

          इस अवसर पर गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, प्रताप दीक्षित, राजेंद्र वर्मा, अजीत प्रियदर्शी, ज्ञान प्रकाश चौबे, राहुल देव, बृजेश नीरज, नसीम साकेती, शरदेन्दु मुखर्जी, राजा सिंह, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, अवधेश श्रीवास्तव, राजीव मोहन, गोपाल नारायण श्रीवास्तव, के.के. चतुर्वेदी आदि साहित्य प्रेमी मौजूद थे|

Tuesday 7 April 2015

सुनो मुझे भी- जगदीश पंकज

नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ। देवेन्द्र शर्मा इंद्रके अनुसार: जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं। ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- अस्ति कश्चित वाग्विशेष:की भांति। यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम्मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई  सुन नहीं रहा।

मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है। शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है। इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है।

जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है-

गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी
समय से जूझता है

अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है।

त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब  सहजग्राह्य हैं। इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए-

चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?

जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है

क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है

साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं। कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है,
जैसा सहा, वैसा कहा-

कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा

इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है।
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है। मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं। कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है-

डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है

चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की

देखकर आसन्न खतरे
हूकती है

जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने

बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है

यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है। नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं।
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता  कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें-

चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग

घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग

नूतन प्रतिमान खोजते हुए
जीवन अनुमान में निकल गया

छोड़कर विशेषण सब
ढूँढिए विशेष को
रोने या हँसने में
खोजें क्यों श्लेष को?

आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर
रच रहीं हैं शब्द हरकारे
मत भुनाओ
तप्त आँसू, आँख में ठहरे
कैसा मौसम है
मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती
मिले, विकल्प मिले तो
सीली दियासलाई से
आहटें, संदिग्ध होती जा रहीं
यह धुआँ है
या तिमिर का आक्रमण

ओढ़ता मैं शील औशालीनता
लग रहा हूँ आज
जैसे बदचलन

इस तरह की अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं।

इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है। कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें। वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ
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गीत- नवगीत संग्रह - सुनो मुझे भी, रचनाकार- जगदीश पंकज, प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण-२०१५ , मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षक- संजीव सलिल

Monday 30 March 2015

अरुन शर्मा अनन्त की बात


समाज में असहज परिवर्तन मनुष्य के भीतर की समाप्त होती संवेदनाएँ, बड़प्पन और अनुजता के मधुर संबंधों में विच्छेद मनुजता के लिए अत्यंत हानिकारी होता जा रहा है. भावनाएँ दिन प्रतिदिन मलिन होती जा रही हैं, स्वयं को सर्वेसर्वा बनाने की जद्दोजहद में परस्पर प्रेम - व्यवहार का अंत हो रहा है. 

निंदनीय कार्यों में होती वृद्धि गिरी हुई मानसिकता के शिकार होते लोग, सभ्यता, संस्कृति, मान, मर्यादा को रौंद कर अपने मन की करने को आतुर आने वाली पीढ़ी अंधकारमय होती जा रही है. आने वाली पीढ़ी को दिशा देना समाज का धर्मं होता है किन्तु परिस्थिति अत्यंत दुःखद है समाज स्वयं दिशाहीन, समाज को उचित मार्ग दिखानेवाला साहित्य मठाधीशों एवं बहुत से फ़ालतू लोगों से भरा पड़ा है. 

मेरे अग्रज बृजेश नीरज जी कहते हैं " जिनके पास करने को कुछ नहीं होता, एकाध तुकबन्दी कर लेंगे, उसके बाद शुरू कर देंगे मठाधीशी. ऐसे लोग तमाम तरह के फसाद विभिन्न विषयों को लेकर करते रहते हैं. खुद को स्थापित करने और मान्यता दिलाने के उनके ये प्रयास सफल तो नहीं हो पाते, हाँ, कुछ मूढ़ व्यक्तियों के समर्थन से चर्चित जरूर हो जाते हैं. साहित्य अध्ययन और लगन दोनों चाहता है". यहाँ एक तथ्य उभर कर सामने आता है कि "साहित्य समय चाहता है, साहित्य - अध्ययन - चिंतन और लगन से प्राप्त होता है". "साहित्य एक साधना है" साहित्य की प्राप्ति सरल नहीं और इसकी प्राप्ति केवल एक साधक को ही होती है, साहित्य के प्रति सजग होने के साथ साथ गंभीरता अनिवार्य है. 

वर्तमान परिदृश्य में महिलायें साहित्य की ओर अग्रसर हुई हैं, नए रचनाकारों का जन्म हुआ है, इन रचनाकारों में अपार संभावनाएँ हैं जरुरत है तो सही दिशा में कार्य करने की. मनुष्य अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए सत्य पथ पर चले ईश्वर से इसी प्रार्थना के साथ अपनी बात को विराम देता हूँ.


अरुन शर्मा 'अनन्त'

Thursday 19 March 2015

ऐतिहासिक कथानक को सांस्कृतिक समझ से साथ उद्घाटित करता नाटक

         
                     राहुल देव
पुस्तक- सिद्धार्थ (नाटक)
लेखक- राजेन्द्र सिंह बघेल
प्रकाशक- यथार्थ प्रकाशन, नई दिल्ली

‘नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।‘ नाटक की यह परिभाषा उदृत करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हिंदी साहित्य में नाटकों की रचना की एक समृद्ध परम्परा रही है लेकिन आज के समय में इस विधा में साहित्यकारों की रूचि घटती सी जा रही है| सब कविता, कहानी, उपन्यास के पीछे भाग रहे हैं जिससे साहित्य की अन्य विधाएँ उपेक्षित होती हैं| नाटक विधा भी उनमें से एक है, आज बहुत कम नाटक लिखे जा रहे हैं| हमें जानना चाहिए कि नाटक क्या है, नाटक की साहित्यिक परम्परा क्या है, उसके साहित्यिक मूल्य क्या हैं| ऐसे समय में इस समीक्ष्य किताब का मेरे हाथ में आना एक सुखद एवं स्वागतयोग्य प्रस्तुति है|

अभी तक बुद्ध के जीवन पर लिखने वाले ज्यादातर लेखकों का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक रहा है लेकिन इस नाटक को पढ़ते हुए लेखक की ऐतिहासिक तथ्यों की बेहतरीन सांस्कृतिक समझ का आभास होता है| लेखक राजेन्द्र सिंह बघेल मेरे लिए एक नया नाम थे लेकिन जब मैंने किताब में उनका परिचय पढ़ा तो पता चला कि वे तो सूदूर अंचल में रहकर लिखने वाले एक सिद्धहस्त रचनाकार हैं| उन्होंने ऐतिहासिक विषय के अलावा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विषय पर भी नाटक लिखे हैं| तमाम भीड़-भाड़, जोड़-तोड़ और ख्याति से दूर रहकर समर्पण भाव से लेखन करने वाले ऐसे लेखकों को एक नए प्रकाशन द्वारा पाठकों के सामने लाए जाने का कार्य निश्चित रूप से सराहनीय है|

महात्मा बुद्ध का जीवन बहुत विशाल है| लेखक ने इसे लघु नाटक कहा है लेकिन यह लघु नाटक नहीं है| प्रस्तुत पुस्तक में नाटक के छोटे-बड़े 55 दृश्यों के सहारे बुद्ध के लगभग पूरे जीवन को समेटने की कोशिश की गयी है| नाटक प्रथम दृश्य में देवदत्त वाले हंस प्रकरण से शुरू होकर पचपनवें दृश्य बुद्ध के अंतिम उपदेश देने तक जाता है| अच्छी बात यह है कि लेखक ने बुद्ध को एक साधारण मनुष्य के रूप में दिखाया है किसी चमत्कारी या अलौकिक रूप में नहीं|


सिद्धार्थ का जन्म वि.पू. 505 समझा जाता है| वह उन्तीस वर्ष के थे, जब उन्होंने घर छोड़ा| उन्होंने छह वर्ष कठिन तपस्या की, तब बुद्ध हुए| फिर उन्होंने पैंतालीस वर्ष घूम-घूमकर उपदेश दिए| बुद्ध का अहिंसा, प्रेम, करुणा और सत्य पर आधारित जीवन दर्शन आज के हिंसा, घृणा और बेचैनी भरे जीवन का एक हल है| यों यह लम्बा जीवन विक्रम पूर्व 426 में पूरा हुआ और उसके बाद बौद्ध धर्म अपने रूप बदलता हुआ लगभग 1500 वर्ष भारत में रहा| बुद्ध के समय में समाज विषम था| वर्ण व्यवस्था और दास प्रथा अपने चरम पर थी| कुल, महाकुल, उपकुल, गण, आर्य-अनार्य के मध्य निरंतर संघर्ष होता रहता था| वास्तव में संस्कृतियों के उस संक्रमण काल में बुद्ध का जन्म होना एक अनिवार्य आवश्यकता सी बन गया था| नाटक के दूसरे दृश्य में जब सिद्धार्थ अपने कक्ष में विचारमग्न बैठे होते हैं तब वह महारानी से कहते हैं, “माँ, शास्त्र मुझे झूठे लगते हैं| उनका ज्ञान उस रहस्य को उद्घाटित नहीं करता जो जीवन-मरण के उद्देश्य को बताता है| मां शास्त्रों में ऐसा कुछ भी नहीं जो शांति प्रदान कर सके|” जब महारानी प्रत्युत्तर में सिद्धार्थ से कहती हैं कि, “...वीतराग मत बनो|...सांसारिक सुखों में जीवन की खोज़ करो|” तो सिद्धार्थ कितना स्पष्ट और सही तर्क देते हैं कि, “माँ! ये सुख क्षणिक हैं| इनमें जीवन की खोज़ करना व्यर्थ है|...” उन्हें सृष्टि के नियम कहकर या विधि का विधान कहकर बताई जाने वाली चीज़ें भ्रमित करती हैं| वह इस सत्य को तलाशने के लिए अन्दर और बाहर से बेचैन हो उठते हैं| आठवें दृश्य के अंतिम संवाद में वह कहते हैं, “...वाह रे संसार! माया का प्रपंच कितना भयंकर है| इससे बचकर निकल पाना सचमुच ही बहुत कठिन है|” उसके बाद के दृश्यों में उनके जीवन में यशोधरा का प्रवेश, सिद्धार्थ के मार्ग में क्रमशः बीमार, बूढ़े और मृत व्यक्ति का पड़ना और उनका व्यथित होना, पुत्र राहुल का जन्म और उसके बाद सिद्धार्थ का घर छोड़कर ज्ञान की तलाश में निकल पड़ना आदि प्रसंगों को क्रमानुसार जगह दी गयी है जिससे नाटक अपनी सम्पूर्णता की ओर बढ़ता है|

नाटक की प्रधान नारी पात्र यशोधरा भी उतना ही कहती और बोलती है जितना कि उस युग में नारी कह और बोल सकती थी| वह एक आदर्श नारी पात्र है| सिद्धार्थ से विवाह के बाद वह अपने पति से पूर्ण सहानुभूति रखती है| पन्द्रहवें दृश्य में सिद्धार्थ अपने मन की व्यथा को यशोधरा के सामने रखते हुए कहते हैं, “...यशोधरा! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवन और मृत्यु का यह व्यापार चक्र कौन से रहस्य से घिरा हुआ है और माया के आदि गहन आवरण को विदीर्ण करके कैसे अपने ज्ञान चक्षुओं को प्रकाशित किया जा सकता है|” यशोधरा अपने स्वामी की जीवन से पलायन की समर्थक नहीं है लेकिन फिर भी वह कहती है कि अगर वे जाएँ तो उसे भी अपने साथ ले चलें| वह अपनी सीमा को समझती है लेकिन वह पति धर्म और अतिशय प्रेम से विवश होती है| उसे पता है कि उसका पति कोई साधारण इन्सान नहीं है| उसका जन्म तो मानवता का उद्धार करने के लिए हुआ है| दृश्य तीस में जब सिद्धार्थ आलार कलाम के आश्रम में दीक्षित होते हैं परन्तु फिर भी उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं हो पाता, तब वे अपने गुरु से यह सारगर्भित बात कहते हुए पुनः ज्ञान की खोज़ में अपने चार शिष्यों को साथ लेकर निकल जाते हैं, “गुरुदेव; मैं परम्पराओं के प्रति निष्ठावान हूँ परन्तु उनकी दासता स्वीकार नहीं कर सकता| किसी भी वस्तु का बिना विचारे पूरी तरह अनुसरण करना जीवन के प्रतिकूल है| मैं यह नहीं मानता कि युगों के इतिहास से बनी परम्पराएँ अंतिम सत्य, अपरिवर्तनीय और निरपेक्ष हैं| हाँ, इतना अवश्य मानता हूँ कि अतीत के अनुभव पथ पर पैर रखकर हम भविष्य के अज्ञात को पाने में सफलता पा सकते हैं...बशर्तें अतीत का वह पथ आत्मपुकार के प्रतिकूल न हो|” इसके कुछ समय बाद सिद्धार्थ को सुजाता की खीर खाने के बाद निरंजना नदी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बन जाते हैं| उसके बाद वह जगह-जगह लोगों के मध्य अपने उपदेश देते हैं और एक व्यापक जनचेतना का उदय होता है| नाटक में कुछ अन्य प्रसंगों के साथ पचपनवें दृश्य में उनके अंतिम उपदेश “अप्प दीपो भव” यानि अपनी मुक्ति की चाह में किसी और पर निर्भर होने के बजाय खुद के दीपक स्वयं बनो, कहकर नाटक का पटाक्षेप होता है|

वास्तव में किसी भी रचना की सम्पूर्णता कथ्य और शिल्प के सानुपातिक कलात्मक संयोजन में निहित रहती है। हिन्दी नाटकों में इन दोनों तत्वों के बीच तालमेल की स्थिति पर यदि विचार किया जाए तो हिन्दी के बहुत कम नाटक इस स्तर तक ऊँचे उठ पाते हैं। जब तक रंग जगत में वे सफल नहीं होते, उन्हें अर्थवान साबित नहीं किया जा सकता। यह एक सुखद संयोग है कि हिन्दी रंगमंच व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय रंगमंच की भूमिका में क्रियाशील है। आज के हिन्दी नाटकों की उपलब्धि पर विचार किया जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी नाटक ने अपनी निरर्थकता और कलाहीनता के घेरे को तोड़कर उल्लेखनीय सर्जनात्मकता प्राप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। और अब नाट्यलेखन केवल सतही सामाजिक उद्देश्यपरकता के आसपास चक्कर नहीं काटता बल्कि गहरी या मूलभूत मानवीय अनुभूति या स्थितियों का सन्धान करता है। इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जीवन और समाज की विसंगतियों को उभारते हैं, पीड़ा संत्रास और अजनबीपन के बीच आज के मानव की दयनीय नियति को रेखांकित करते हैं। स्वतंत्रता के बाद नाटक आधुनिक युगबोध के साथ ही जुड़ता नहीं दिखाई देता, वरन रंगशिल्प के प्रति अधिक जागरूक भी हो गया है। नाटककार राजेन्द्र सिंह बघेल भी ऐतिहासिक कथानक के साथ चलते हुए हमेशा यह ध्यान में रखते हैं कि मंचन के समय व दृश्य की समाप्ति के बाद दर्शक पर अंतिम इम्प्रैशन क्या जाए| ऐतिहासिक विषय को साथ लेकर नाटक को उसके तमाम टूल्स के साथ युगीन आवश्यकता की संवेदना में ढालना किसी भी नाटककार के लिए एक कठिन चुनौती साबित होता है| प्रस्तुत पुस्तक में मुझे अन्य नाट्य कृतियों की तरह यह कमी कहीं दिखाई नहीं दी है|

इस पूरे नाटक में पूरी नाटकीयता के साथ भरपूर पठनीयता भी मौजूद है| इसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं को रंगमंच का एक दर्शक समझने लगता है, जैसे लगता है कि मानो पूरा नाटक उसकी आँखों के सामने ही चल रहा हो| यह एक अच्छे नाटक की विशेषता है| हर जगह नाटककार ने सधी हुई सीधी-सरल भाषा-शैली का प्रयोग किया है और यथासंभव अपने को कठिन शब्दों के प्रयोग से बचाया है| नाटक में जो दृश्य छोटे हो सकते हैं उन्हें छोटा रखा गया है और जो थोड़ा बड़े हो सकते हैं उन्हें वैसा ही रखा गया है, इससे गति बनी रहती है| सीमित पात्रों के माध्यम से पूरे वातावरण का बड़ा ही जीवंत चित्रण करने में नाटककार को पूर्ण सफलता मिली है| कुल मिलाकर कहें तो यह एक पठनीय और सहेजने योग्य पुस्तक है|




सम्पर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
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Sunday 1 March 2015

कुछ अपनी बात

ऋतुराज बसंत! शरद ऋतु की समाप्ति तथा ग्रीष्म के आगमन अर्थात् समशीतोष्ण वातावरण के प्रारम्भ होने का संकेत है बसंत। यह सृजनात्मक शक्ति के नव पल्लवन की ऋतु है। यह मौसम प्रकृति की सरसता में ऊर्जा का संचार करता है। यही कारण है कि इस मौसम में न केवल प्रकृति का कण-कण खिल उठता है वरन मानव, पशु-पक्षी सभी उल्लास से भर जाते हैं। तरंगित मन, पुलकित जीवन का मौसम बसंत जीवन में सकारात्मक ऊर्जा, आशा व विश्वास उत्पन्न करता है; नए सिरे से जीवन को शुरू करने का संकेत देता है। 
भारतीय सभ्यता- संस्कृति का सर्वोच्च त्यौहार होली बसंत ऋतु में मनाया जाता है। होली उल्लास का पर्व है। होली प्रतीक है अल्हड़ता का, उमंग का, रंगों का। होली के माध्यम से जीवन में उत्साह का संचार होता है। इस मौसम की मादकता से कोई अछूता नहीं रहता है। चारों ओर बिखरे रंग और उन्मुक्त हास-परिहास के बीच व्यक्ति इस आनंद-पर्व से अनुप्राणित होकर रंग-रस से सराबोर हो उठता है।
इस मौसम ने साहित्यकारों को भी अनुप्राणित किया है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य बसंत, फागुन और होली की रचनाओं से भरा पड़ा है! ऐसी ही कुछ चुनिन्दा रचनाओं का संकलन हम धरोहर के दूसरे भाग के रूप में इस अंक के साथ लेकर आपके समक्ष उपस्थित हैं। आपको यह संकलन कैसा लगा, यह तो आपकी प्रतिक्रियाओं से ही हमें पता चलेगा, जिनका हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।
 - बृजेश नीरज

Monday 23 February 2015

“अपनी-अपनी हिस्‍सेदारी“ का लोकार्पण


विश्‍व पुस्‍तक मेले में दिनांक 22 फरवरी, 2015 को हिन्‍दी अकादमी, दिल्‍ली के प्रकाशन सौजन्‍य से मंजुली प्रकाशन द्वारा सद्यय प्रकाशित सुश्री संगीता शर्मा अधिकारी के प्रथम कविता संग्रह अपनी-अपनी हिस्‍सेदारी का लोकार्पण कार्यक्रम प्रात: 11 बजे, लिखावट, कविता और विचार के मंच की ओर से हॉल न0 8, साहित्‍य मंच पर किया गया। कार्यक्रम की अध्‍यक्षता श्री मिथिलेश श्रीवास्‍तव ने की। आमंत्रित वक्‍ता श्री लक्ष्‍मी शंकर वाजपेयी, श्री अमर नाथ अमर, सुश्री अलका सिन्‍हा, सुश्री पुष्‍पा सिंह विसेन और श्री मनोज कुमार सिंह थे। सभी वक्‍ताओं ने वर्तमान कविता में विशेष रूप से पाए जाने वाले प्रेम, स्‍त्री-विमर्श, घर-परिवार, रिश्‍ते-नाते और समाज-राजनीति से लेकर वैश्विक सरोकारों के बीच उनकी कविताओं को व्‍याख्‍यायित किया तथा नवोदित कवियों में एक अलग तरह के मुहावरे के बीच अपनी पहचान बनाती हुई कविताएँ बताया। साथ ही उन्‍होंने संभावनाओं की जमीन तलाशती कविताओं के लिए युवा कवयित्री सुश्री संगीता शर्माअधिकारी को उनके प्रथम सृजनात्‍मक प्रयास की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ दीं। कार्यक्रम का बेहतरीन संचालन श्री अरविंद पथिक ने किया। अंत में लिखावट की संयोजिका श्रीमती अनीता श्रीवास्‍तव ने सभी का आभार व्‍यक्‍त करते हुए धन्‍यवाद ज्ञापित किया।  


केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...